पराली जलाने की समस्या से बचें, सही प्रबंधन से आय बढ़ाएं!

By: tractorchoice Published on: 20-Nov-2024
पराली जलाने की समस्या से बचें, सही प्रबंधन से आय बढ़ाएं!

किसान भाइयों प्रदूषण की वजह से देश की राजधानी गैस का चैम्बर बन गई है। AQI 1000 को भी पार कर गया है। विश्लेषकों के अनुसार पराली जलाना इसके मुख्य कारणों में से एक माना जा रहा है। 

इसलिए, ट्रैक्टरचॉइस के इस लेख में हम पराली का लाभकारी प्रबंधन कैसे किया जाए इस विषय पर चर्चा करेंगे। 

भारत के बहुत सारे राज्यों में धुंध सी छा जाने की वजह से समस्या उत्पन्न हो गई हैं। इसके लिए धान की पराली जलाने वाले किसानों को जिम्मेदार माना जा रहा है। 

यह समस्या सर्दियों में और भी गंभीर होती है, क्योंकि यह खरीफ की फसल धान की कटाई के बाद खेत में बचे फसल अवशेष को बड़ी मात्रा में जलाने की वजह से होती है।

भारत में सैकड़ों मिलियन टन फसल अवशेष का उत्पादन होता है 

भारत में तकरीबन 388 मिलियन टन फसल अवशेष का उत्पादन हर साल होता है। कुल फसल अवशेष का तकरीबन 27 फीसदी गेहूं का अवशेष और 51 फीसदी धान का अवशेष और बाकी दूसरी फसलों के अवशेष होते हैं। 

गेहूं और दूसरी फसलों के अवशेष या भूसा पशुओं को खिलाने के काम में लाया जाता है, 

लेकिन धान के फसल अवशेष या भूसे में औक्जेलिक अम्ल और सिलिका की मात्रा ज्यादा होने की वजह से इस के पुआल को पशुओं के चारे के रूप में प्रयोग नहीं किया जाता है।

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किसान कौन-से कारणों से नहीं जलाऐं पराली 

धान की पराली जलाने से विभिन्न जहरीली गैसें जैसे कार्बन मोनो औक्साइड, कार्बन डाई औक्साइड, बेंजीन, नाइट्रस औक्साइड और एरोसोल निकल कर वायुमंडल की साफ हवा में मिल कर उसे प्रदूषित करती हैं। नतीजतन, पूरा वातावरण दूषित हो जाता है।

यह जहरीली गैसें वातावरण में फैल कर जीवों में विभिन्न घातक बीमारियों जैसे त्वचा की बीमारियां, आंखों की बीमारियां, सांस व फेफड़ों की बीमारियां, कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियां फैलाती हैं। इसलिए किसान पराली जलाने से बचें।

दरअसल, किसान इससे न केवल पर्यावरण को दूषित होने से बचा सकते हैं, बल्कि मोटी आमदनी भी कमा सकते हैं।

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किसानों द्वारा पुआल जलाए जाने की वजह

धान के पुआल में कार्बन और नाइट्रोजन की मात्रा ज्यादा होने की वजह से अगर इसे सीधा खेत में जोत दिया जाए, तो मिट्टी की उर्वराशक्ति बढ़ाने के साथ-साथ पौध विषाक्तताभी बढ़ती है। 

इस का सीधा प्रभाव बीज जमने और उत्पादन पर पड़ता है और इस प्रक्रिया में काफी वक्त भी लगता है।

धान की पुआल में सिलिका व लिग्निन की अधिक मात्रा होने की वजह से इसे सड़ने में ज्यादा वक्त लगता है। 

इसलिए किसान इसे पूरे खेत में फैला कर उस के ऊपर पर्याप्त मात्रा में यूरिया छिड़क कर पानी भर देते हैं। 

इससे पुआल जल्दी सड़ तो जाता है, लेकिन इस में यूरिया की मात्रा ज्यादा होने के चलते कार्बन व नाइट्रोजन के अनुपात में कमी आ जाती है। 

अगर कार्बन व नाइट्रोजन का यह अनुपात 25:1 से कम हो जाए, तो मिट्टी के सूक्ष्म जीव मौजूद नाइट्रोजन का इस्तेमाल नहीं कर पाते, जिस की वजह से नाइट्रोजन परिवर्तित हो कर अमोनिया बन जाती है। 

इस तरह नाइट्रोजन का उचित इस्तेमाल नहीं हो पाता है।

इसके अतिरिक्त पुआल को खेत में जोत देने से मिट्टी के पोषक तत्त्व जैसे नाइट्रोजन गतिहीन या स्थिर हो जाती है, जिस से यह पौधों को उपलब्ध नहीं हो पाती। 

इसलिए किसान धान की फसल काटने के उपरांत गेहूं बोने की तैयारी में लगे होते हैं, उन के पास समय की कमी होने के चलते जल्दबाजी में पुआल खेत में फैला कर आग के हवाले कर देते हैं।

पुआल जलाने के हानिकारक प्रभाव

  1. मिट्टी में कार्बनिक पदार्थों की कमी 
  2. मिट्टी की संरचना में गिरावट 
  3. मिट्टी की जैविक गतिविधियों में कमी होना
  4. पर्यावरण प्रदूषण का बढ़ना. इस की वजह से जीवजंतुओं की सेहत पर बुरा असर होना 

धान के पुआल से कम्पोस्ट बनाना एक सुरक्षित विकल्प: सूक्ष्म जीवाणुओं की सहायता से कार्बनिक पदार्थों का औक्सीकृत जैव में बदलाव की प्रक्रिया को कम्पोस्ट बनाना कहते हैं। इससे बनने वाला उत्पाद कम्पोस्ट कहलाता है।

कम्पोस्ट को मिट्टी में मिलाने से पौधे और मिट्टी दोनों को लाभ होता है। यह पौधों की बढ़वार व विकास के लिए पोषक तत्व प्रदान करता है। साथ ही, मिट्टी की उर्वराशक्ति में वृद्धि करता है।

कम्पोस्ट निर्मित करने के लिए धान की कटाई के बाद बची पुआल को छोटे-छोटे टुकड़ों में काट लेते हैं। पुआल से कम्पोस्ट बनाने के लिए गड्ढा विधि व ढेर विधि को प्रयोग में लाया जाता है।

गड्ढे की लंबाई आमतौर पर 6 से 10 मीटर और चौड़ाई व गहराई 1 मीटर रखते हैं। पुआल ज्यादा मात्रा में होने पर गड्ढों की तादाद बढ़ाई जा सकती है। 

इस के बाद पुआल के छोटे-छोटे कटे टुकड़ों को रात में पानी में डुबो कर नम करते हैं और फिर गड्ढे में भर कर अब इस के ऊपर गोबर की एक परत लगाते हैं। इस तरह कुल 3 परतें निर्मित की जाती हैं।

पुआल के सड़ाने की क्रिया को तेज करने के लिए इस में 50 ग्राम प्रति 100 किलोग्राम भूसा की दर से ट्राइकोडर्मा कवक मिलाया जा सकता है और कंपोस्ट का कार्बन व नाइट्रोजन के अनुपात को कम करने के लिए इस में 0.25 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति 100 किलोग्राम पुआल की दर से मिलाते हैं। 

खाद को अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए इस में पाइराइट 10% फीसदी की दर से और रौक फास्फेट 1 फीसदी की दर के मिश्रण का इस्तेमाल किया जा सकता है। 

इसमें समय समय पर पानी का छिड़काव करते रहना चाहिए, ताकि इस में पर्याप्त मात्रा में नमी बरकरार बनी रहे। 

इसमें हवा के आनेजाने के लिए 15-20 दिन के अंतराल पर पलटाई कर देते हैं, जिससे ऊपरी व निचली सतह अच्छी तरह आपस में मिल जाती है। 

कंपोस्ट बनने की पूरी प्रक्रिया में 4 महीने का समय लगता है। इसके बाद इसे खेत में डाला जा सकता है।

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पुआल से तैयार कम्पोस्ट को जमीन में डालने के फायदे

फसल अवशेषों का उपयोग कर उत्तम गुणवत्ता की खाद तैयार कर खेतों में दी जा सकती है। इस प्रकार फसल अवशेषों का प्रबंधन सहजता से किया जा सकता है और पर्यावरण को भी प्रदूषित होने से संरक्षित किया जा सकता है।

पुआल से बनी खाद मिट्टी की भौतिक, रासायनिक व जैविक अवस्था सुधारती है और पौधों के जरूरी पोषक तत्त्वों के मिनरलाइजेशन को बढ़ाती है, जिससे कि पोषक तत्त्व मृदा में अधिक समय तक बने रहते हैं।

साथ ही, यह खाद मिट्टी में मौजूद फायदेमंद सूक्ष्म जीवों के बीच संतुलन बनाए रखने का भी महत्त्वपूर्ण कार्य करती है। इसलिए यह खाद फसल की बढ़वार और विकास को बढ़ाती है। साथ ही, पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाती है।

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कम्पोस्ट खाद की पहचान कैसे कर सकते हैं ? 

इस कम्पोस्ट खाद का रंग काला या गहरा भूरा होता है और इस में 30-50 फीसदी तक नमी की मात्रा होनी चाहिए। 

इसकी गंध मिट्टी जैसी आनी चाहिए और इसमें दूसरी किसी तरह की गंध जैसे-तेज खट्टी, अमोनिया या सड़ी हुई बदबू नहीं आनी चाहिए। 

तैयार कम्पोस्ट खाद का पीएच मान 5 से 8 के बीच में होना चाहिए। इस में 35-45 फीसदी तक जैव पदार्थ की मात्रा होनी चाहिए। इसमें 30-35:1 तक कार्बन:नाइट्रोजन का अनुपात अच्छा माना गया है।

बिजली उत्पादन

बिजली उत्पादन के लिए भी धान के पुआल का उपयोग किया जाता है। इससे बिजली उत्पादन संयंत्र की आपूर्ति बिजली बनाने के लिए की जा सकती है। 

बायोमास आधारित बिजली संयंत्रों को प्रोत्साहन देने के लिए सरकार विभिन्न प्रोत्साहन योजनाएं चला रही है।

पंजाब में बायोमास आधारित बिजली संयंत्रों द्वारा 62.5 मेगावाट बिजली उत्पादन के लिए तकरीबन 0.48 मिलियन टन धान के पुआल का उपयोग किया जा रहा है। इससे विभिन्न राज्य उद्योग ऊर्जा के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन रहे हैं।

बायोगैस उत्पादन

धान के पुआल से भरपूर मात्रा में बायोगैस तैयार की जा सकती है। धान के पुआल को औक्सीजन की गैरमौजूदगी में सूक्ष्म जीवों के साथ विघटित करने से बायोगैस बनती है। 

यह बायोगैस वाहनों में सीएनजी के स्थान पर उपयोग में लाई जा सकती है। सरकार की तरफ से बायोगैस उत्पादन पर विभिन्न अनुदान की योजना चल रही है।

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