मूंगफली तिलहनी फसलों के रुप में उगाये जाने वाली प्रमुख फसल है। मूंगफली की खेती मुख्य रुप से रेतीली एवं दोमट भूमियों में सफलता पूर्वक की जाती है।
मूंगफली के दानों से 40-45% तेल प्राप्त होता है जो कि प्रोटिन का मुख्य स्त्रोत है। मूंगफली की फलियों का प्रयोग वनस्पति तेल एवं खलियों आदि के रुप में भी किया जाता है।
मूंगफली की फसल में रोग नियंत्रण का भी बहुत महत्त्व है इसलिए फसल में रोग नियंत्रण करना बहुत आवश्यक है। हमारे इस लेख में हम आपको मूंगफली के प्रमुख रोग और उनके नियंत्रण करने के उपाय के बारे में बताने वाले हैं।
इस रोग के लक्षण पौधे उगने के 10 से 18 दिनों बाद पत्तियों की सतह पर धब्बे के रूप में दिखाई देते हैं। इस रोग के धब्बे 1 से 10 mm के गोलाकार या अनिमियत आकर के हलके पीले रंग के होते हैं। बाद में ये धब्बे लाल भूरे या काळा रंग के हो जाते हैं। इन धब्बों की निचली सतह नारंगी रंग की दिखाई देती है।
रोग के लक्षण पौधे उगने के 28 से 35 दिनों बाद पत्तियों की सतह पर धब्बे के रूप में दिखाई देते हैं। इस रोग के लक्षण भी पत्तियों की निचली सतह पर दिखाई देते हैं।
रोग के धब्बे 1.5 से 5 mm के होते हैं। इस रोग के धब्बों का रंग पहले पीला होता है, बाद में ये धब्बे पत्तियों की दोनों सतह पर काले रंग के हो जाते हैं। निचली सतह पर ये धब्बे कॉर्बन की तरह काले नजर आते हैं।
ये भी पढ़ें: धान के प्रमुख रोग और उनका प्रबंधन
सर्व प्रथम रोग के लक्षण पत्तियों की निचली सतह पर उतकक्षयी स्फोट के रुप में दिखाइ पड़ते हैं। पत्तियों के प्रभावित भाग की बाह्य त्वचा फट जाती है। ये स्फोट पर्णवृन्त एवं वायवीय भाग पर भी देखे जा सकते हैं।
रोग उग्र होने पर पत्तीयां झुलसकर गिर जाती हैं। फलियों के दाने चपटे व विकृत हो जाते हैं। इस रोग के कारण मूंगफली की पैदावार में कमी हो जाती है, बीजों में तेल की मात्रा भी घट जाती है।
ये भी पढ़ें: मल्टी फार्मिंग - खेती की इस तकनीक को अपना कर किसान बन सकते हैं मालामाल
इस रोग के कारण संक्रमण होने पर पौधे पीले पड़ने लगते हैं मिट्टी की सतह से लगे पौधे के तने का भाग सूखने लगता है। जड़ों के पास मकड़ी के जाले जैसी सफेद रचना दिखाई पड़ती है। प्रभावित फलियों में दाने सिकुडे हुये या पूरी तरह से सड़ जाते हैं, फलियों के छिलके भी सड़ जाते हैं।।