किसान पारंपरिक फसलों से तो सालों साल से मुनाफा कमा कर रहे हैं, लेकिन अब कुछ ऐसी फसलें किसान उगा रहे हैं जो मार्केट में डिमांड में रहती हैं। जी हां, मार्केट में डिमांड में रहने वाली एक फसल मूंगफली की है।
आज के समय में पारंपरिक फसलों की तुलना में मूंगफली की खेती किसानों के लिए एक लाभदायक ऑप्शन बनती जा रही है।
कम लागत और अच्छी बाजार मांग के कारण किसान इस तिलहनी फसल से अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं। आज हम जानेंगे मूंगफली की खेती कैसे करें और कैसे इस फसल का उत्पादन कर किसान मालामाल बन सकते हैं।
मूंगफली की खेती के लिए गर्म और नम जलवायु को सबसे अच्छा और खास माना जाता है। मूंगफली की फसल के लिए 20°C से 30°C का तापमान सबसे अच्छा माना जाता है।
खेती के लिए मिट्टी का सवाल है, तो बलुई दोमट या हल्की दोमट मिट्टी, जिसमें जल निकासी की शानदार व्यवस्था हो वह सबसे अच्छी होती है।
खेत की अच्छी तैयारी मूंगफली की अच्छी फसल के लिए बहुत जरूरी होती है। इसके लिए, खेत की गहरी जुताई करके मिट्टी को भुरभुरा बनाएं फिर जुताई के बाद पाटा चलाकर खेत को समतल कर लें ताकि सिंचाई का पानी समान रूप से फैल सके। साथ ही बुवाई से पहले प्रति एकड़ 4-5 टन गोबर की खाद डालना अच्छा होगा।
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मूंगफली की कम समयावधि में पकने वाली और गुच्छेदार किस्में गर्मी में खेती के लिए सबसे अनुकूल मानी जाती हैं। हमेशा इसकी बुवाई से पहले बीजों का उपचार करें, ताकि फसल को रोगों और कीटों से बचाया जा सके।
मूंगफली की फसल की सबसे बड़ी खासियत यह होती है, कि इसकी खेती के लिए काफी ज्यादा मात्रा में पानी की आवश्यकता नहीं पड़ती है।
लेकिन, खूंटियां बनते समय (जब फलियां बनने लगती हैं) और फलियां भरते समय सिंचाई करना जरूरी होता है। खरपतवार नियंत्रण के लिए फसल की बुवाई के 15-20 दिन बाद हाथ से निराई करें।
खाद के लिए प्रति एकड़ 20-30 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40-50 किलोग्राम फॉस्फोरस और 30-40 किलोग्राम पोटाश का यूज कर सकते हैं।
यह कैलकुलेशन हम एक आंकलन के रूप में समझा रहे हैं, क्योंकि मुनाफा फसल का हमेशा कम ज्यादा हो सकता है।
मान लीजिए कि किसान को प्रति एकड़ 12 क्विंटल की औसत पैदावार मिलती है और वह उसे ₹6,000 प्रति क्विंटल के औसत भाव पर बेचता है।
कैलकुलेशन के अनुसार, एक किसान एक एकड़ में मूंगफली की खेती करके एक सीजन में लगभग ₹57,000 तक का शुद्ध मुनाफा कमा सकता है। अगर कोई किसान दो फसलें (खरीफ और जायद) मूंगफली की कर लेता है, तो फिर यह मुनाफा दोगुना भी हो सकता है। कुछ किसान तो प्रति एकड़ ₹30,000 से लेकर ₹50,000 तक की कमाई कर रहे हैं।
नोट-खबर केवल जानकारी के लिए है, खेती कैसे करनी है और करनी है कि नहीं ये किसान के ऊपर निर्भर करती है।
प्रश्न : मूंगफली की खेती के लिए सबसे उपयुक्त मौसम कौन सा है ?
उत्तर : मूंगफली की खेती खरीफ सीजन में, जून से जुलाई के बीच, मानसून की शुरुआत के साथ की जाती है।
प्रश्न : मूंगफली की औसत उपज प्रति हेक्टेयर कितनी होती है ?
उत्तर : औसतन 1,500 से 2,500 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर उपज मिल सकती है, जो खेती के तरीके और देखभाल पर निर्भर करती है।
प्रश्न : मूंगफली की खेती में अनुमानित लागत कितनी आती है ?
उत्तर : 1 हेक्टेयर खेती में लगभग ₹40,000 से ₹70,000 तक की लागत आती है।
प्रश्न : मूंगफली का थोक भाव मार्केट में कितना मिलता है ?
उत्तर : भाव गुणवत्ता और मांग पर निर्भर करते हुए ₹90 से ₹120 प्रति किलोग्राम तक मिल सकता है।
प्रश्न : मूंगफली की खेती से किसान कितना मुनाफा कमा सकते हैं ?
उत्तर : मूंगफली की खेती से औसतन किसान ₹95,000 से ₹2.3 लाख प्रति हेक्टेयर तक शुद्ध मुनाफा कमा सकते हैं।
खेती-किसानी के बदलते दौर में अब किसान परंपरागत फसलों के साथ-साथ ऐसी खेती की ओर भी रुख कर रहे हैं, जिससे उन्हें न सिर्फ आर्थिक फायदा हो, बल्कि खेत और बगीचों की खूबसूरती भी बढ़े।
इसी कड़ी में सफेद गुड़हल की खेती किसानों के लिए नई उम्मीद बनकर सामने आ रही है। विंध्य क्षेत्र में यह पौधा बहुत कम देखने को मिलता है, लेकिन इसकी मांग लगातार बढ़ रही है।
इसकी खासियत यह है कि यह सुंदरता बढ़ाने के साथ-साथ औषधीय गुणों से भरपूर है और आयुर्वेदिक दवाओं से लेकर घरेलू नुस्खों तक में इसका इस्तेमाल होता है।
मीडिया से बातचीत में जैव विविधता विशेषज्ञ चंदन सिंह ने बताया कि उनके बगीचे में गुड़हल की करीब 25 प्रजातियां हैं, जिनमें सफेद, पीला, लाल और गुलाबी रंग आदि के गुड़हल शामिल हैं।
इनमें सफेद गुड़हल सबसे खास है, क्योंकि विंध्य क्षेत्र में इसकी उपलब्धता बेहद कम है। उन्होंने कहा की इसकी कलम उत्तराखंड से मंगाई थी और अब धीरे-धीरे कई किसान इसे अपनाने लगे हैं।
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पूजा-पाठ और औषधीय महत्व
भारतीय परंपरा में सफेद गुड़हल का धार्मिक दृष्टि से विशेष महत्व है। शिव पूजा और दुर्गा पूजा जैसे धार्मिक अनुष्ठानों में इसे शुभ माना जाता है। वहीं औषधीय गुणों की वजह से यह आयुर्वेद में भी खूब उपयोगी है।
पुराने समय में बघेलखंड के लोग बालों को काला और मजबूत करने, त्वचा संबंधी बीमारियों को दूर करने और घाव भरने के लिए सफेद गुड़हल का काढ़ा या पेस्ट बनाकर इस्तेमाल करते थे। वहीं आज भी कई ग्रामीण इलाकों में ये परंपरा देखने को मिल जाती है।
बरसात के मौसम में सफेद गुड़हल की कलम लगाई जाती है और महज 6 महीने में यह पौधा तैयार हो जाता है। आसान देखभाल और तेज़ी से बढ़ने की क्षमता के कारण यह किसानों के लिए कम समय में बेहतर आय का जरिया बन सकता है।
वहीं इसकी मांग दवा उद्योग, पूजा-पाठ और घरेलू उपयोग में बनी रहने से बाजार में इसका दाम स्थिर रहता है। सफेद गुड़हल खेती से किसानों को दोहरा फायदा मिलता है।
एक ओर खेत और बगीचों की खूबसूरती बढ़ती है तो दूसरी ओर आयुर्वेद और मार्केट डिमांड से अतिरिक्त कमाई भी सुनिश्चित होती है।
प्रश्न : सफेद गुड़हल की लोकप्रियता किस क्षेत्र में बढ़ रही है ?
उत्तर : विंध्य क्षेत्र में सफेद गुड़हल की खेती की लोकप्रियता काफी तेजी से बढ़ रही है।
प्रश्न : भारत में सफेद गुड़हल की मांग किन वजहों से बढ़ी है ?
उत्तर : भारत में सफेद गुड़हल को धार्मिक और औषधीय कारणों से जाना जाता है।
प्रश्न : सफेद गुड़हल का पौधा कितने दिनों में तैयार हो जाता है ?
उत्तर : सफेद गुड़हल का पौधा 6 महीने में पककर तैयार हो जाता है।
आम जनता पर फिर से महंगाई की मार देखने को मिल रही है। टमाटर की कीमतों में एक बार फिर से जबरदस्त बढ़ोतरी से लोगों की रसोई का बजट खराब होता दिख रहा है।
अब ऐसे में टमाटर की खेती करने वाले कृषकों के लिए यह एक बेहद सुनहरा अवसर बनकर सामने आया है। पिछले महीने तक जो टमाटर 20 से 25 रुपये प्रति किलो के हिसाब से बिक रहा था। वह अब दिल्ली-एनसीआर और उत्तर भारत के बहुत सारे शहरों में 60 से 70 रुपये प्रति किलो तक पहुंच चुका है।
दिल्ली की आजादपुर मंडी के टमाटर व्यापारियों के अनुसार, पिछले एक हफ्ते में थोक में टमाटर की कीमत 35 रुपये प्रति किलो तक पहुंच गई है। वहीं बेंगलुरु से आने वाली टमाटर की खेप की कीमत भी करीब 40 रुपये प्रति किलो रहने की संभावना है।
केंद्रीय कृषि मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले सप्ताह टमाटर की औसत कीमत 32 रुपये प्रति किलो दर्ज की गई है।
बीते महीने यह कीमत 22 रुपये प्रति किलो थी, जबकि पिछले साल इसी समय 21 रुपये प्रति किलो थी। इस हिसाब से टमाटर की कीमत में पिछले एक साल में करीब 51.55% की बढ़ोतरी देखी गई है।
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जानकारी के लिए बतादें, कि बीते दो सालों में प्याज और आलू की खेती करने वाले किसानों को काफी नुकसान उठाना पड़ा है। वहीं, टमाटर उगाने वाले किसानों को काफी अच्छा और शानदार मुनाफा हांसिल हो रहा है। टमाटर की बढ़ती कीमतों से किसानों को उनकी मेहनत का उचित मूल्य प्राप्त हो रहा है।
कृषि विशेषज्ञों का मानना है, कि टमाटर की आपूर्ति में कमी आने से इसकी कीमत बढ़ी हैं। पहले राजस्थान और हरियाणा जैसे राज्यों से बड़ी मात्रा में टमाटर आ रहा था, लेकिन कीमतें कम होने के कारण कई किसानों ने टमाटर बेचना बंद कर दिया।
अब टमाटर की सप्लाई सिर्फ हिमाचल प्रदेश, हरियाणा के करनाल, उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों और कर्नाटक से हो रही है। इसके अलावा, जून की गर्मी और उमस के कारण टमाटर जल्दी खराब हो रहे हैं, जिससे उनकी उपलब्धता और भी कम हो गई है।
जैसा कि हमने उपरोक्त में जाना उसके अनुरूप वर्तमान में टमाटर की कीमतों में कोई राहत मिलने की उम्मीद नजर नहीं आ रही है।
गर्मी और बारिश के चलते टमाटर काफी शीघ्रता से खराब हो रहे हैं। जानकारों का कहना है, कि अगले एक-दो महीने तक टमाटर की कीमतें काफी ऊंची रहने वाली हैं। जब नई फसल बाजार में आएगी, तब जाकर कीमतों में कुछ राहत देखने को मिल सकती है।
अगर आप टमाटर खरीदने जा रहे हैं, तो ऐसे में आपको थोड़ा ज्यादा खर्च करना पड़ेगा। लेकिन, अगर आप किसान हैं और टमाटर की खेती करते हैं, तो यह समय आपके लिए काफी लाभदायक साबित हो सकता है। आगामी समय में कीमतें और भी ज्यादा बढ़ सकती हैं, इसलिए सभी को सजग रहने की आवश्यकता है।
प्रश्न : टमाटर की कीमतों में कितने प्रतिशत इजाफा हुआ है ?
उत्तर : टमाटर की कीमतों में लगभग 51% फीसद की बढ़ोतरी दर्ज की गई है।
प्रश्न : टमाटर की कीमतों में इजाफे से किसानों को लाभ या हानि।
उत्तर : टमाटर की बढ़ती कीमतों की वजह से किसानों को अधिक मुनाफा हांसिल हो रहा है।
प्रश्न : टमाटर की खेती करने को लेकर कृषि विशेषज्ञों का क्या कहना है ?
उत्तर : कृषि विशेषज्ञों के अनुसार टमाटर की खेती करना काफी फायदे का सौदा है।
गर्मियों की दस्तक के साथ ही बाजारों में फलों का राजा आम दिखाई देने लगता है। भारत में आम की सैकड़ों किस्में पाई जाती हैं, लेकिन कुछ प्रजातियां अपने खास स्वाद, खुशबू और रंग-रूप की वजह से लोगों के दिलों में अलग ही स्थान बना लेती हैं।
"गौरजीत आम",ऐसी ही एक अनमोल किस्म है जो पूर्वांचल के कुशीनगर के अलावा, शायद अन्य जिलों में भी पाया जाता है।
यह आम न केवल स्वाद में लाजवाब होता है, बल्कि पूरी तरह प्राकृतिक तरीके से पकने वाला फल है, जिसे खाने के बाद भी उसकी मिठास देर तक जबान और मन में बनी रहती है।
गौरजीत आम कुशीनगर की एक अनोखी और स्वादिष्ट किस्म है, जो प्राकृतिक रूप से पकती है और बाजार में जल्दी उपलब्ध होती है।
इसकी स्थानीय मांग बहुत अधिक है, परंतु पौधों की कमी, भ्रम और जागरूकता की कमी के कारण यह संकट में है। इसे बचाने के लिए वैज्ञानिक प्रयास जरूरी हैं।
गौरजीत आम की सबसे बड़ी खासियत यह है, कि यह पूरब का सबसे पहले तैयार होने वाला आम है, जो मई के अंतिम सप्ताह से लेकर जून के पहले सप्ताह तक पक कर तैयार हो जाता है। इसकी जबरदस्त डिमांड स्थानीय बाजार में होती है और इसकी बाग से ही बिक्री हो जाती है।
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गौरजीत आम कुशीनगर के अलावा भी यूपी के शायद कई अन्य जिलों में भी उगाया जाता है। हालांकि, अगर कुशीनगर की जलवायु और भौगोलिक स्थिति की बात करें, तो यहां गर्मियों में तापमान 40 डिग्री सेल्सियस से ऊपर चला जाता है और मौसम गर्म व आर्द्र रहता है।
वहीं, लगभग जून से सितंबर तक मानसून का प्रभाव रहता है, जिसमें अच्छी बारिश होती है। जबकि अक्टूबर से फरवरी तक सर्दियों का मौसम होता है, तब लगभग तापमान 10 से 25 डिग्री सेल्सियस के बीच रहता है।
गौरजीत आम का स्वाद जितना अनोखा है, उतनी ही इसकी विशेषताएं भी अद्वितीय हैं। यह आम हरे और हल्के लाल रंग का होता है और देखने में आकर्षक लगता है। इसका स्वाद मीठा और रसीला होता है।
इसके फल आंधी-तूफान की स्थिति में भी अन्य किस्मों की तुलना में टहनियों से बेहद कम टूटकर नीचे गिरते हैं। इस किस्म का फल जब कच्चा होता है तब भी अन्य किस्मों की तुलना बहुत कम खट्टा होता है।
गौरजीत आम को पकाने के लिए किसी रसायन की आवश्यकता नहीं होती, जो इसे पूरी तरह से प्राकृतिक और स्वास्थ्यवर्धक बनाता है। इसके अलावा इसकी स्टोरेज क्षमता भी शानदार है। यह आम पकने के बाद भी फ्रिज में 10 से 15 दिनों तक खराब नहीं होता है।
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गौरजीत आम की सबसे बड़ी खूबी यह है कि जब अन्य किस्मों के आम तैयार नहीं होते, तब गौरजीत बाजार में छा जाता है। यही वजह है कि इसकी कीमत भी बेहतर मिलती है।
एक किलो गौरजीत आम की कीमत 150 रुपये से लेकर 250 रुपये तक होती है, जो इसे किसानों के लिए भी फायदेमंद बनाता है। आमतौर पर इसकी बिक्री बाग से हो जाती है, जिससे बागवानों को बाजार तक जाने की जरूरत नहीं पड़ती है।
प्रश्न : गौरजीत आम की खेती के लिए कृषि विज्ञान केंद्र की क्या भूमिका होनी चाहिए ?
उत्तर : कृषि वैज्ञानिकों को चाहिए कि वे सीधे किसानों के बागों तक पहुंचकर उनको सही जानकारी दें और इस किस्म की कलमी पौधों की जिले में उपलब्धता सुनिश्चित करें।
प्रश्न : गौरजीत आम की खेती के लिए स्थानीय प्रशासन और मीडिया की क्या भूमिका होनी चाहिए ?
उत्तर : गौरजीत किस्म के प्रचार-प्रसार के लिए स्थानीय प्रशासन और मीडिया को भी जागरूकता अभियान चलाना चाहिए, ताकि लोग इसकी खासियत को जानें और इसकी खेती को बढ़ावा मिले।
प्रश्न : गौरजीत आम की खेती के लिए सबसे जरूरी चीज क्या है ?
उत्तर : गौरजीत आम की खेती के लिए सबसे जरूरी चीज़ों में से एक सही जलवायु और मृदा का चयन है। इसके अलावा, अच्छी गुणवत्ता वाले पौधे, उचित सिंचाई, खाद और उर्वरकों का प्रबंधन और रोगों और कीटों से बचाव भी आवश्यक है।
फसल चक्र यानि की क्राप रोटेशन अलग-अलग तरह की फसलों को तय समय में तय क्रम के आधार पर बोने की विधि को ही फसल चक्र कहा जाता है। चारे की फसलों जैसे ज्वार, बाजरा, नेपियर, बरबटी आदि की कटाई की जाती है।
सूरजमुखी की फसल खाली खेतों में लगाते हैं। अगस्त महीने के आखरी दिनों में रामतिल की फसल लगाते हैं। गन्ने एवं मूंगफली की निदाई करते हैं और गुड़ाई करते हैं। उसके बाद उस पर मिट्टी चढ़ायी जाती है।
धान की फसल में उर्वरक की काफी ज्यादा मात्रा पाई जाती है। धान, ज्वार, अरहर, मूंग, उड़द, मक्का, सोयाबीन इत्यादि फसलों के खरपतवार निकाली जाती हैं, गुड़ाई की जाती है।
मूंगफली में फूल लगने शुरु हो जाने के बाद मिट्टी चढ़ाते हैं। इस महीने में अगर मक्के की फसल तैयार हो गई है तो भुट्टे तोड़ लेते हैं। और फिर खेत को रबी की फसल के लिये तैयार करते हैं।
आम के नये बगीचे लगता हैं। अमरुद के नये बगीचे इस समय लगाते हैं। पपीता में खाद देते हैं। भिण्डी और बरबटी की तुड़ाई करते हैं। सभी फसलों को कीटनाशक, फंफूदीनाशक दवाईयों द्वारा कीड़ो, बीमारियों से बचाते हैं।
अगस्त माह जिसे आप श्रावण-भाद्रपद भी कहते है, बरसात की झडी लगा देता है तथा चारों तरफ हरियाली से भर देता है। खुशी के साथ-साथ मच्छरों से मलेरिया व डेंगू का प्रकोप तथा पशुओं में खुरपका-मुहपका रोग भी फैलने लगता है। फसलों में भी कीटों तथा बिमारियों का प्रकोप बढ़ जाता है।
अगस्त में गन्ने को बांधे तांकि फसल गिरने से बचे तथा पौध संरक्षण पर पूरा ध्यान दें। क्योंकि इस माह काफी कीट व बीमारियां लगने का भय रहता है।
अगोला बेधक, पायरिल्ला, गुरदासपुर बोरर तथा जडबेधक कीटों का पिछले महीनों में बताये तरीकों से रोकथाम करें । रत्ता रोग फफूंद के कारण लगता है।
पत्ते पीले पड़ जाते हैं, गन्ना पिचक जाता हैं तथा उस पर काले दाग पड जाते हैं तथा गन्ना बीच से लाल हो जाता है जिससे सफेद आडी पट्टियां दिखाई देती हैं तथा गन्ने से शराब की सी बू आती है।
रोकथाम के लिए रोगी पौधों को निकाल कर जला दें । बीमारी वाली फसल जल्दी काट लें । बीमारी वाले खेत से मोठी फसला न लें तथा 1 साल तक गळ्यान न बोर्ये ।
रोगरोधी किस्म सी। ओ। एस-७६७ लगायें। सोका रोग भी फफूंद के कारण होता है तथा इसमें पत्ते सूख जाते हैं , गन्ने हल्के व खोखले हो जाते हैं। रोकथाम के लिए बिजाई स्वस्थ्य पोरियों से करें तथा रोगी खेत में कम से कम तीन साल तक अलग फसल चक्र अपनाऍ ।
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वर्षां का पानी मक्का के खेत में खडा नहीं रहना चाहिए। इसका निकास लगातार होते रहना चाहिए । खरपतवार खेत से बराबर निकालते रहें।
देर से बुआई वाली फसल में पौधे घुटनों की ऊंचाई पर आ गये होंगे वहां नत्रजन की दूसरी किस्त एक बोरा यूरिया लगाएँ। जहां अगस्त में मक्का की फसल में झंडे आने लग गये है वहां नत्रजन की तीसरी किस्त एक बोरा यूरिया पौधों के आसपास डालें।
मक्का में लगने वाले कीटों का उपचार पिछले माह में बताया जा चुका है। बीमारियों में बीज गलन, पीथियम तना गलन, जीवाणु तना गलन, पत्ता अंगमारी तथा डाऊनी मिल्डयु है। इन रोगों के सामूहिक रोकथाम के लिए जून माह में बताया जा चुका है । रोगी पौधों को खेत से निकाल कर नष्ट कर दें।
मूंग, उडद, लोबिया, अरहर, सोयाबीन - इस प्रकार की दलहनी फसलों में फूल आने पर मिट्टी में हल्की नमी बनाये रखें इससे फूल झडेगें नही तथा अधिक फलियां लगेगी व दाने भी मोटे तथा स्वस्थ्य होंगे परंतु खेतों में वर्षा का पानी खडा नहीं होना चाहिए तथा जलनिकास अच्छा होना चाहिए।
इन दलहनी फसलों में फलीछेदक कीड़े का प्रकोप भी इसी महीने आता है। इसके लिए जब ७०% प्रतिशत फलियां आ जाएं तो ६०० मि.ली. एण्डोसल्फान ३५ ईसी या ३०० मि.ली.। मोनोक्रटोफास ३६ एस एल को ३०० लीटर पानी में घोलकर छिडके। जरूरत पडने पर १७ दिन बाद फिर छिडकाव कर सकते हैं ।
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यदि मूंगफली में फूल आने की अवस्था है तो सिंचाई अवश्य करें तथा दूसरी सिंचाई फल लगने पर जरूरी है इससे मूंगफली की सूइयां जमीन में आसानी से घुस जाती है।
मूंगफली फसल बोने के ४० दिन बाद इनडोल ऐसिटिक एसिड ०.७ ग्राम को एल्कोहल (७ मि. ली. ) में घोलें तथा १०० लीटर पानी में मिलाकर फसल पर छिडकें फिर 1 सप्ताह बाद ६ मि. ली. इथरल (४० प्रतिशत) १०० लीटर पानी में घोलकर छिडकने से मूगफली की पैदावार १७ से २७ प्रतिशत तक बढ़ जाती है। मूंगफली तथा तिल में कीडों तथा बीमारियों की रोकथाम जुलाई माह में बता चुके हैं।
किसान भाई जून-जुलाई में लगाई फसलों से कुछ चारा पशुओं के लिए प्राप्त कर सकते हैं ।
फूल आने के एक सप्ताह बाद फल उतार लें नहीं तो फल रेशेदार होने से कम कीमत मिलती है । खेत में नमी बनाये रखें तथा २० कि.ग्रा. यूरिया छिडके।
कीडों में फलीछेदक को फूल आने से पहले ५०० मि.ली. मैलाथियान ७० ई सी का छिडकाव करें । इसके बाद ७ दिन तक फल न उतारें। रोगों की रोकथाम स्वथ्य बीजोपचार से ही संभव है।
बैंगन व टमाटर की पौध जुलाई अन्त में अगर नहीं लगाई तो अगस्त में रोपाई कर दें । विधि जुलाई माह में बता चुके है । अगस्त माह में खरपतवार नियंत्रण तथा खेत में उचित नमी बनाये रखें तथा अतिरिक्त पानी का निकास करते रहें । १/२ बोरा यूरिया रोपाई के ३ सप्ताह बाद दें ।
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खीरा तथा अन्य सब्जियों में फल छेदक कीडों का हमला होने का खतरा बना रहता है। किसान भाइयों को दवाईयों का छिडकाव समय-समय पर करते रहना चाहिए। परंतु दवाई छिडकने के एक सप्ताह बाद ही फल तोड़े तथा पानी से सब्जी अच्छी तरह धोये। इस फसल में १/२ बोरा यूरिया छिटकें इससे फल अच्छे लगेगें।
पत्तागोभी व फूलगोभी की अगेती फसल के लिए अगस्त में नर्सरी लगाएं। पत्तागोभी की गोल्डन एकड तथा पूसा मुक्ता व फूलगोभी की पूसा सिंथेटिक, पूसा सुभद्रा तथा पूसा हिमज्योति किस्में चुनें। २७० ग्राम बीज को 1 ग्राम केप्टान से उपचारित कर 1 फुट चौडे व सुविधानुसार लम्बे व ऊचीं नर्सरी शैया में लगाएं।
बीच में अच्छी चौडी नालियां रखें। नर्सरी में सड़ी-गली खाद अच्छी मात्रा में मिला दें। नर्सरी में बीज लगाने के बाद उचित नमी बनाये रखें तथा धूप से भी बचाएं। पौध की रोपाई सितम्बर में करें।
गाजर - मूली की अगेती फसल के लिए अगस्त में बोवाई करें। गाजर की पूसा केसर तथा पूसा मेघाली किस्मों को २-२.७ कि. ग्रा. बीज को १-१.७ फुट दूर लाइनों में आधा इंच गहरा लगाएं।
मूली की पूसा देशी किस्म का ३-४ कि. ग्रा. बीज 1 फुट लाइनों में तथा ६ इंच दूरी पौधों में रखकर लगायें। बोने से पहले खेतों में आधा बोरा यूरिया 1 बोरा सिंगल सुपर फास्फेट तथा आधा बोरा मयूरेट आफ पोटाश डालें। मूली व गाजर में बहुत पानी की जरूरत पडती है तथा हर ४-५ दिन में फसलों को पानी चाहिए।
नींबू व लीची में गुट्टी बाधने के लिए अगस्त उचित समय है। बरसात में बागों में जल निकास तथा खरपतवार नियंत्रण पर ज्यादा ध्यान दें तथा बीमारी फैलने की स्थिति में तुरंत उपचार करें।
अगस्त माह के अंत तक पपीते की पौध भी गड़ढ़ों में लगाई जा सकती है। इसके लिए गड्ढ़े, अच्छी मिट्टी व देशी खाद से उपर तक भर लें तथा दीमक से बचाब के लिए २० मि.ली. क्लोरपाइरीफास डालें।
ग्रीष्म ऋतु के फलों का समय पूरा हो गया है। इन्हें घीरे-धीरे निकाल दें तथा क्यारियों को खुदाई कर दें। मिट्टी को रोगरहित बनाने के लिए दवाईयां डालें। सर्दियों के फूलों की बीजाई की तैयारी शुरू कर दें।
प्रश्न : अगस्त माह में क्या-क्या कृषि कार्य किये जाते हैं ?
उत्तर : अगस्त का महीना खरीफ फसलों (जैसे धान, मक्का, बाजरा, सोयाबीन, मूंगफली, आदि) की देखभाल और रबी फसलों की तैयारी के लिए महत्वपूर्ण होता है।
प्रश्न : अगस्त माह में कीटों का कितना खतरा होता है ?
उत्तर : अगस्त माह में खासकर खरीफ की फसलों में कीटों का खतरा बढ़ जाता है। क्योंकि बारिश और नमी के कारण कीटों और बीमारियों को पनपने का अनुकूल माहौल मिल जाता है।
प्रश्न : अगस्त माह में कीटों से बचाव के क्या उपाय हैं ?
उत्तर : अगस्त महीने में फसलों को कीटों से बचाने के लिए, किसानों को समय पर फसल चक्रण, रोगरोधी किस्मों का उपयोग, बीजोपचार और उचित कीटनाशकों का प्रयोग करना चाहिए।
भारत में धान की खेती या चावल की खेती एक प्रमुख फसल है। यह खरीफ (मानसून) के मौसम में उगाई जाती है और इसके लिए बेहतरीन जलधारण क्षमता वाली मिट्टी, जैसे कि चिकनी या मटियार दोमट मिट्टी सबसे अच्छी मानी जाती है।
सिंचाई की शानदार व्यवस्था और प्रबंधन के साथ ज्यादातर मिट्टी में धान की खेती कर अच्छी-खासी उपज प्राप्त की जा सकती है।
भारत के अंदर धान एक प्रमुख खाद्य फसलों में से एक है। धान में कई कीटों से हानि का खतरा होता है। कुछ सामान्य कीट जो धान की फसलों को हानि पहुंचा सकते हैं, उनमें स्टेम बोरर, लीफ फोल्डर, ब्राउन प्लांट हॉपर और चावल के कीड़े शम्मिलित हैं।
इन कीटों से फसलीय सुरक्षा के लिए किसान सांस्कृतिक प्रथाओं, जैविक नियंत्रण और रासायनिक नियंत्रण जैसे विभिन्न तरीकों का उपयोग कर सकते हैं।
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देहात मैक्सियन (थियामेथोक्सम 1% + क्लोरेंट्रानिलिप्रोल 0.5% जीआर) दवा को प्रति एकड़ खेत में 2400 ग्राम प्रति एकड़ उपयोग करें। इसको पानी में मिलाकर धान की फसल पर एक समान रूप से छिड़काव करें।
देहात कारटैप एस.पी (कारटैप हाइड्रोक्लोराइड 50% SP) दवा को प्रति एकड़ धान के खेत में 7.5 से 10 किग्रा प्रति एकड़ इस्तेमाल करें।
क्लोरपाइरीफॉस 50% + साइपरमेथ्रिन 5% E.C (देहात सी स्क्वायर): 250-400 मिलीलीटर प्रति एकड़ खेत में छिड़काव करें। अलांटो (थियाक्लोप्रिड 21.7% SC ) दवा प्रति एकड़ धान के खेत में 200 मिली प्रति एकड़ घोलकर बराबर रूप से स्प्रे करें।
गंधी बग खेत में दुर्गंध पैदा करता है। शिशु एवं वयस्क कीट दानों में दूधिया अवस्था में दूध चूसते हैं। बालियों में दाने नहीं बन पाते और वे पोचे रह जाते हैं।
दानों पर किए गए छेदों के चारों ओर काले या भूरे रंग के धब्बे दिखाई देते हैं। गंधी बग कीट से प्रभावित अनाज भुरभुरा हो जाता है। प्रभावित दानों में छेद के साथ काले रंग के धब्बे हो जाते हैं।
गंधी बग के प्रकोप के लिए खरपतवार, गर्म मौसम, और लगातार बारिश अनुकूल रहते हैं। यह कीट आमतौर पर वर्षा आधारित और ऊपरी भूमि वाले धान में ज्यादा पाए जाते हैं।
एसीफेट 75 एस.पी दवा को 266 से 400 ग्राम प्रति एकड़ पानी में मिलाकर छिड़काव करें। नीम का तेल 10,000 पी.पी.एम 200 मिलीलीटर प्रति एकड़ खेत में स्प्रे करें। थियामेथोक्सम 25% W.G (देहात एसीयर): 40-80 ग्राम प्रति एकड़ खेत में छिड़काव करें।
वोलियाम फ्लेक्सी (क्लोरेंट्रानिलिप्रोल 8.8% + थियामेथोक्सम 17.5% w/w एससी) दवा को 240 मिलीलीटर प्रति एकड़ खेत में अच्छी तरह मिला कर छिड़काव करें।
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पौधों की कोमल पत्तियों का रस चूसकर पौधों को कमजोर कर देते हैं। पत्तियां ऊपर या नीचे की तरफ मुड़ने लगती है। पौधों के विकास में बाधा आती है।
थियामेथोक्सम 25% W.G (देहात एसियर): 200 लीटर पानी में 100 ग्राम दवा को मिलाकर छिड़काव करें। एसिटामिप्रिड 20% एसपी (टाटा माणिक): प्रति एकड़ खेत में 200 लीटर पानी में 80 ग्राम दवा को मिलाकर छिड़काव करें।
थियामेथोक्सम 12.6% + लैम्ब्डा साइहलोथ्रिन 9.5% ZC (देहात एंटोकिल): 80 मिलीलीटर को 200 लीटर पानी में घोलकर प्रति एकड़ की दर से प्रयोग करें।
क्लोरपाइरीफॉस 50% + साइपरमेथ्रिन 5% EC (देहात सी-स्क्वायर): 200 लीटर पानी में 300 मिलीलीटर घोल बनाकर प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करें।
पौधों की पत्तियों को खाते हैं, जिससे पत्तियों पर सफेद रंग की धारियां बन जाती हैं और पत्तियां सूखने लगती हैं।
प्रभावित पत्तियों और तनों को नष्ट कर दें। मेढ़ों से खरपतवार निकाल कर नष्ट कर दें। नाइट्रोजन युक्त उर्वरक का अधिक प्रयोग न करें। तफाबान (क्लोरोपाइरीफॉस 20% ईसी) दवा को धान में 600 से 750 मि.ली प्रति एकड़ छिड़काव करें।
कैल्डन 50 SP (कारटैप हाइड्रोक्लोराइड 50% SP) दवा को प्रति एकड़ धान के खेत में 7.5 से 10 किग्रा प्रति एकड़ इस्तेमाल करें।
प्रश्न : धान को हानि पहुँचाने वाले प्रमुख कीट कौन-कौन से हैं ?
उत्तर : धान की फसल में स्टेम बोरर, पत्ती फोल्डर, ब्राउन प्लांट हॉपर, जो पौधों का रस चूसते हैं, जिससे पत्तियां पीली होकर सूख जाती हैं।
प्रश्न : धान का मुख्य रोग क्या है ?
उत्तर : धान का मुख्य रोग ब्लास्ट रोग है।
प्रश्न : धान की प्रमुख किस्में कौन कौन सी है ?
उत्तर : धान की कुछ प्रमुख किस्मों में बासमती, पूसा बासमती 1121, पूसा बासमती 1509, जया, रत्ना, आई.आर. 36, पंकज, जगन्नाथ और स्वर्ण शामिल हैं।
भारत के अंदर हर घर में काली मिर्च का प्रयोग जरूर होता है। काली मिर्च को मसालों की रानी माना जाता है। भारतीय रसोई में सब्जी सूखी हो या रसेदार या फिर नमकीन से लेकर सूप आदि तक ज्यादातर व्यंजन में काली मिर्च का प्रयोग किया जाता है।
भोजन में काली मिर्च का इस्तेमाल केवल स्वाद के लिए नहीं किया जाता है। यह स्वास्थ्य के लिए भी काफी लाभदायक है। काली मिर्च एक अच्छी औषधि भी है।
काफी लंबे समय से आयुर्वेद में इसका औषधीय प्रयोग होता रहा है। वास्तव में काली मिर्च के औषधीय गुणों के कारण ही इसे भोजन में शामिल किया जाता है। काली मिर्च का प्रयोग रोगों को ठीक करने के लिए भी किया जाता है।
काली मिर्च एक औषधीय मसाला है। लेकिन इसको काली मिर्च भी कहते हैं। यह दिखने में थोड़ी छोटी, गोल और काले रंग की होती है। काली मिर्च का स्वाद काफी तीखा होता है।
इसकी लता बहुत समय तक जीवित रहने वाली होती है। यह पान के जैसे पत्तों वाली, बहुत तेजी से फैलने वाली और कोमल लता होती है। इसकी लता मजबूत सहारे से लिपट कर ऊपर बढ़ती है। काली मिर्च को प्रमाथी द्रव्यों में प्रधान माना गया है।
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काली मिर्च का भोजन में प्रयोग करने से भी बहुत सारे स्वास्थ्य लाभ मिलते हैं। उदाहरण के लिए ठंड के दिनों में बनाए जाने वाले सभी पकवानों में काली मिर्च का उपयोग किया जाता है, ताकि ठंड और गले की बीमारियों से रक्षा हो सके।
काली मिर्च नपुंसकता, रजोरोध यानी मासिक धर्म के न आने, चर्म रोग, बुखार तथा कुष्ठ रोग आदि में लाभकारी है। आँखों के लिए यह विशेष हितकारी होती है। जोड़ों का दर्द, गठिया, लकवा एवं खुजली आदि में काली मिर्च में पकाए तेल की मालिश करने से बहुत लाभ होता है।
प्रश्न : काली मिर्च से वर्ष में कितनी बार उपज हांसिल कर सकते हैं ?
उत्तर : एक वर्ष में इसकी लगभग दो उपज प्राप्त होती हैं। पहली उपज अगस्त-सितम्बर में और दूसरी मार्च-अप्रैल में।
प्रश्न : काली मिर्च प्रमुख रूप से कितने प्रकार की होती है ?
उत्तर : बाजारों में दो प्रकार की मिर्च बिकती है पहली सफेद मिर्च और दूसरी काली मरिच।
प्रश्न : काली मिर्च से प्रमुख फायदे क्या होते हैं ?
उत्तर : काली मिर्च से पाचन में सुधार, वजन घटाने में मदद, सर्दी-जुकाम से राहत और मस्तिष्क स्वास्थ्य को बढ़ावा देने जैसे लाभ प्रदान करती है।
ट्रैक्टर कृषि क्षेत्र में उपयोग होने वाला महत्वपूर्ण कृषि यंत्र है। यह एक कम गति वाला वाहन है। किसान आमतौर पर भारी भार ढोने और खेतों में हल जैसी मशीनों को खींचने के लिए ट्रैक्टर का उपयोग करते हैं। भारी भार क्षमता के कारण इनका उपयोग अक्सर खनन कार्यों और निर्माण में किया जाता है।
किसान साथियों ट्रैक्टरचॉइस के इस लेख में आज हम जानेंगे दुनिया के पहले ट्रैक्टर और भारत के पहले ट्रैक्टर के बारे में आपको जानकारी प्रदान करेंगे।
हालांकि, आजकल ट्रैक्टर का इस्तेमाल आधुनिक कृषि में प्रमुख उपकरण के तौर पर किया जाता है। इसकी मदद से कठिन काम भी काफी आसानी से किया जा सकता है।
इसके अलावा ट्रैक्टर कृषि उपकरण खींचने का काम भी करता है, जिसमें सामान लदी ट्राली आदि शामिल है।
सभी ट्रैक्टर की बनावट में तीन भाग होते हैं एक इंजन और उसके साधन, पावर ट्रांसमिटिंग सिस्टम, चेजिस। ट्रैक्टर दो प्रकार के होते हैं। इसमें से एक चक्र ट्रैक्टर और दूसरा ट्रैक ट्रैक्टर है।
चक्र टैक्टर का इस्तेमाल कृषि से जुड़े कार्यों में किया जाता है। ये ट्रैक्टर तीन या चार पहिए वाला होता। ट्रैक टैक्टर भारी कामों के लिए उपयोग किया जाता है, जिसमें बांध और औद्योगिक के कार्य शामिल हैं। कृषि क्षेत्र में इसका कम उपयोग किया जाता है।
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सबसे पहले शक्ति-चालित कृषि उपकरण 19वीं शताब्दी के आरम्भ में आए थे। इनके पहिओं पर एक भाप का इंजन हुआ करता था। यह बेल्ट की मदद से कृषि उपकरण को चलाता था।
पहले भाप इंजन का आविष्कार 1812 में रिचर्ड ट्रेविथिक ने किया था, जिसे बार्न इंजन के तौर पर जाना जाता था। इसका इस्तेमाल मकई निकालने के लिए किया जाता था।
1903 में दो अमरीकी चार्ल्स डब्ल्यू. हार्ट और चार्ल्स एच. पार्र ने दो-सिलेंडर वाले ईंधन से चलने वाले इंजन का उपयोग करते हुए सफलतापूर्वक पहला ट्रैक्टर बनाया था, जिसका इस्तेमाल भी काफी हुआ। इसके बाद 1916-1922 के बीच लगभग 100 से अधिक कंपनियां कृषि ट्रैक्टर का उत्पादन कर रही थी।
जॉन डीयर ने पहला स्टील हल 1837 में बनाया और 1927 तक पहले ट्रैक्टर और स्टील के हल का तालमेल तैयार किया। इसका इस्तेमाल उत्पादकता को बढ़ाने और खेतों को तीन पंक्तियों में जोतने के लिए किया गया। 1930 ट्रैक्टरों में स्टील के पहिये होते थे।
लेकिन, बाद में रबर के पहिये लगाये गए और इसके बाद जॉन डीयर ट्रैक्टर के मॉडल ‘आर’ को पेश किया गया था। इसकी शक्ति 40 हॉर्सपावर से भी ज्यादा थी। ये पहला डीजल ट्रैक्टर भी था। इसी के साथ जॉन डीयर किसानों को ट्रैक्टर की पेशकश करने वाले पहले निर्माता बन गए।
विश्वभर में भारत को कृषि प्रधान देश के रूप में भी जाना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि भारत में ट्रैक्टर की शुरुआत स्वतंत्रता के बाद ‘हरित क्रांति’ से हुई थी।
जहां ट्रैक्टर का इस्तेमाल काफी तेजी से हुआ था। भारत ने ट्रैक्टरों का निर्माण 1950 और 1960 के दशक में शूरू किया था।
प्रश्न : दुनिया का सबसे पहला ट्रैक्टर कब और कहाँ बना था ?
उत्तर : 1892 में जॉन फ्रोलिक ने एक ऐसा ट्रैक्टर बनाया जो भाप इंजन से चलता था और उसे "फ्रोलिक का ट्रैक्टर" कहा जाता था।
प्रश्न : ट्रैक्टर के कितने भाग होते हैं ?
उत्तर : सभी ट्रैक्टर की बनावट में एक इंजन और उसके साधन, पावर ट्रांसमिटिंग सिस्टम और चेजिस तीन भाग होते हैं।
प्रश्न : भारत के अंदर सबसे पहला ट्रैक्टर कब बना था ?
उत्तर : भारत ने ट्रैक्टरों का निर्माण 1950 और 1960 के दशक में शूरू किया था।
समय के साथ कृषि क्षेत्र में भी काफी बदलाव आया है। रोटावेटर फसल की बुवाई से पहले खेत को तैयार करने के काम आता है। इस कृषि यंत्र का इस्तेमाल खास तौर से खेत में फसलों के बीज की बुवाई के लिए किया जाता है।
ये खेतों से फसलों के अवशेष हटाने में भी मददगार साबित होता है। इससे मिट्टी में बीजों तक उर्वरक आसानी से पहुंच जाता है।
इसका इस्तेमाल खेत की जुताई के लिए भी किया जाता है। इसकी मदद से किसान 125 मिमी-1500 मिमी की गहराई तक खेत की जुताई कर सकते हैं।
किसानों का समय बचता है और लागत भी कम आती है। रोटावेटर अन्य जुताई के यंत्रों की अपेक्षा कम समय में काम पूरा कर लेता है। रोटावेटर अन्य कृषि यंत्रों की अपेक्षा 15 से 35 प्रतिशत तक ईंधन की बचत करता है।
यह मिट्टी को तुरंत तैयार कर देता है, जिससे पिछली फसल की मिट्टी की नमी का फिर से उपयोग हो सकता है। रोटावेटर की सबसे खास बात यह भी है, कि इसे किसी भी तरह की मिट्टी में चलाया जा सकता है, चाहे मिट्टी दोमट, चिकनी, बलुई, बलुई दोमट, चिकनी दोमट आदि क्यों न हो।
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भारत की केंद्र और राज्य सरकारें किसानों को आत्मनिर्भर बनाने के सपने को साकार करने की दिशा में सरकार किसानों और खेती-बाड़ी से जुड़े विभिन्न कार्यों को बढ़ावा दे रही है।
ऐसी स्थिति में सरकार किसानों को रोटावेटर प्रदान करने के लिए भी अच्छा खासा अनुदान मुहैया कराती है। केंद्र सरकार स्माम योजना के तहत किसानों को कृषि मशीनों पर 40 से 80% प्रतिशत तक अनुदान देती है।
सरकार के इस अनुदान का लाभ देश के समस्त राज्यों के किसान उठा सकते हैं। इस योजना का लाभ लेने के लिए आपको सबसे पहले सरकार के द्वारा जारी की गई इसकी ऑफिसियल वेबसाइट पर जाना होगा।
यहां जाकर आपको स्माम योजना के लिए पंजीकरण करना होगा। केंद्र सरकार के अलावा राज्य सरकारें अपने अपने स्तर पर कृषि उपकरण उपलब्ध करवाने के लिए सब्सिडी योजनाएं चलाती है। इसका लाभ लेने के लिए किसान भाई अपने जिले के कृषि अधिकारी या कृषि विज्ञान केंद्र से पूरी जानकारी ले सकते हैं।
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उत्तर प्रदेश की योगी सरकार अपने राज्य के सभी किसानों को रोटावेटर खरीदने पर 50% प्रतिशत तक का अनुदान प्रदान करती है। इसका लाभ लेने के लिए राज्य के किसान यूपी सरकार की ऑफिशियल वेबसाइट upagriculture.com पर जाकर अधिक जानकारी ले सकते हैं।
भारतीय बाजारों में रोटावेटर की कीमत 50000 से शुरू होकर 2 लाख रुपये तक होती है। रोटावेटर की कीमत इसकी तकनीकी और इसकी आधुनिकता पर निर्भर करती है।
प्रश्न : रोटावेटर क्या है ?
उत्तर : रोटावेटर एक खास तरह का कृषि यंत्र है, जिसे ट्रैक्टर के साथ जोड़कर चलाया जाता है।
प्रश्न : रोटावेटर की मदद से किसान कितनी गहरी जुताई कर सकते हैं ?
उत्तर : रोटावेटर की मदद से किसान 125 मिमी-1500 मिमी की गहराई तक खेत की जुताई कर सकते हैं।
प्रश्न : रोटावेटर की बाजार में कितनी कीमत है ?
उत्तर : रोटावेटर की कीमत 50000 हजार से 2 लाख रूपए के बीच होती है।
काला चावल चावल की एक किस्म है जिसका रंग गहरा काला होता है और पकने पर यह आमतौर पर गहरे बैंगनी रंग का हो जाता है।
इसका गहरा बैंगनी रंग मुख्य रूप से इसमें मौजूद एंथोसायनिन की वजह से होता है, जो अन्य रंगीन अनाजों की तुलना में वजन के हिसाब से ज़्यादा होता है। यह दलिया, मिठाई, पारंपरिक चीनी काले चावल के केक, ब्रेड और नूडल्स बनाने के लिए उपयुक्त है।
काला चावल अपने उच्च पोषण मूल्य के लिए जाना जाता है और यह आयरन, विटामिन ई, एंटीऑक्सीडेंट, कैल्शियम, मैग्नीशियम और जिंक का स्रोत है। इसके अलावा, काले चावल को प्राचीन चीन में निषिद्ध चावल के रूप में जाना जाता था।
निषिद्ध इसलिए नहीं कि यह अपने काले रंग के कारण जहरीला लगता था, बल्कि इसलिए कि इसका पोषण मूल्य बहुत अधिक था, जिसका मतलब था कि इसे केवल सम्राट और अन्य रईस ही खा सकते थे।
काला चावल, जिसे "निषिद्ध चावल" भी कहा जाता है, एक खास प्रकार का चावल है जिसका रंग गहरा बैंगनी-काला होता है। यह अपनी अनूठी रंगत और स्वास्थ्य लाभों के लिए जाना जाता है।
कुछ कहानियों के मुताबिक, इसे "निषिद्ध चावल" इसलिए कहा जाता था, क्योंकि प्राचीन चीन में यह केवल सम्राटों और शाही परिवार के सदस्यों के लिए आरक्षित था, जो इसे अपने स्वास्थ्य और लंबी उम्र के लिए खाते थे।
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काला चावल, विशेष रूप से काला नमक चावल, का एक समृद्ध इतिहास है जो गौतम बुद्ध के समय से जुड़ा है। कहा जाता है कि गौतम बुद्ध ने अपने अनुयायियों को यह चावल उपहार में दिया था। यह चावल सिद्धार्थनगर जिले के तराई क्षेत्र में उगाया जाता है और इसे "बुद्ध का महाप्रसाद" माना जाता है।
काला चावल एंटीऑक्सीडेंट से भरपूर होता है, खासकर एंथोसायनिन, जो इसे गहरा रंग देता है। यह चावल हृदय स्वास्थ्य, कैंसर से बचाव और पाचन में सुधार जैसे कई स्वास्थ्य लाभों से जुड़ा है। इसलिए काले चावल की का उत्पादन किसानों की आय और सेहत दोनों के लिए काफी उत्तम और फायदेमंद विकल्प है।
वर्तमान में काला चावल दुनिया भर में काफी लोकप्रिय हो रहा है। यह ना सिर्फ इसके स्वास्थ्य लाभों की वजह, बल्कि इसके अनोखे स्वाद और बनावट की वजह से भी। यह ना केवल पारंपरिक व्यंजनों में इस्तेमाल किया जाता है, बल्कि आधुनिक व्यंजनों में भी एक लोकप्रिय घटक बन गया है।
काला चावल की खेती विशेष रूप से छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश के कई हिस्सों में की जाती है। किसानों को पारंपरिक चावल के मुकाबले में काले चावल की खेती से ज्यादा मुनाफा अर्जित होता है, क्योंकि काले चावल की कीमत काफी ज्यादा होती है।
प्रश्न : काला चावल अपनी किस विशेषता की वजह से जाना जाता है ?
उत्तर : काला चावल अपनी भरपूर एंटीऑक्सीडेंट मात्रा की वजह से जानी जाती है।
प्रश्न : काला चावल को निषिद्ध चावल क्यों कहा जाता है ?
उत्तर : काले चावल का नाम निषिद्ध चावल प्राचीन चीन में इसका केवल सम्राटों और शाही परिवार के सदस्यों द्वारा सेवन किये जाने की वजह से था।
प्रश्न : काले चावल की खेती से कितना मुनाफा अर्जित किया जा सकता है ?
उत्तर : काले चावल की खेती से सामान्य चावल की तुलना में अधिक मुनाफा हांसिल किया जा सकता है।
भारत धान उत्पादन में चीन के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है। भारत में धान खरीफ सीजन की सबसे प्रमुख फसल है। धान की खेती मानसून के दौरान काफी बड़े पैमाने पर की जाती है।
धान की फसल का उत्पादन सिंचित और अर्ध-सिंचित दोनों क्षेत्रों में किया जाता है। जहां एक तरफ किसान पारंपरिक किस्मों पर निर्भर रहते हैं, वहीं अब समय आ गया है कि वे उन्नत किस्मों की तरफ रुख करें। जो कम समय में ज्यादा उपज और शानदार लाभ देती हैं।
भारत के अंदर बड़े पैमाने पर धान की खेती पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, बिहार, तमिलनाडु और झारखंड शामिल हैं।
इन राज्यों में लाखों किसान हर वर्ष बारिश के मौसम में धान की बुवाई करते हैं और यह फसल उनकी आजीविका का मुख्य स्रोत मानी जाती है।
अगर किसान धान की खेती से अच्छा मुनाफा कमाना चाहते हैं, तो उन्हें बेहतर क्वालिटी वाली उन्नत किस्मों को चुनना चाहिए। आइए जानते हैं धान की कुछ प्रमुख फसलों की खेती के बारे में।
धान की टॉप 5 मुनाफेदार किस्में निम्नलिखित हैं:-
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प्रश्न : भारत के किस राज्य की सबसे ज्यादा भूमि पर धान की खेती होती है ?
उत्तर : भारत के झारखंड में लगभग 71% प्रतिशत भूमि पर धान की खेती की जाती है।
प्रश्न : अनामिका किस्म का उत्पादन किन राज्यों में किया जाता है ?
उत्तर : अनामिका किस्म का उत्पादन बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिशा और असम जैसे राज्यों में बड़े पैमाने पर किया जाता है।
प्रश्न : सीएसआर-10 (CSR-10) किस्म से कितनी उपज हांसिल हो सकती है ?
उत्तर : सीएसआर-10 (CSR-10) किस्म की उत्पादन क्षमता 50–55 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है।
किसान साथियों, आज हम आपको अपने इस लेख में एक फल के बारे में जानकारी देंगे जो कि भारत के करीब हर व्यक्ति के भोजन की थाली में सलाद के रूप में परोसा जाता है। दरअसल, हम बात कर रहे हैं भारत के अंदर बड़े पैमाने पर उगाए और उपभोग किए जाने वाले खीरा की।
अगर हम खीरा के वानस्पतिक नाम की बात करें तो इसका वानस्पतिक नाम कुकुमिस स्टीव्स है। एक तरह से खीरा हर भारतीय रसोई की शान है।
खीरा का सेवन करने से कई सारे स्वास्थ्य लाभ भी होते हैं। खीरे के अंदर 96% पानी की मात्रा पाई जाती है, जो गर्मी के मौसम में सेहत के लिए लाभकारी सिद्ध होता है।
खीरे की खेती कई तरह की मिट्टी में की जा सकती है।
- खीरे की फसल जैविक तत्वों से युक्त और समुचित जल निकास वाली दोमट मिट्टी में अच्छी उपज देती है। खीरे की खेती के लिए मिट्टी का pH 6-7 होना चाहिए।
-खीरे की खेती के लिए, अच्छी तरह से तैयार और खरपतवार रहित खेत की आवश्यकता होती है।
-बिजाई से पहले मिट्टी को अच्छी तरह से भुरभुरा बनाने के लिए 3-4 बार खेत की गहरी जोताई करें।
-गाय के गोबर को मिट्टी में मिलादें इससे खेत की उपजाऊ शक्ति में वृद्धि होगी।
-खीरे की खेती के लिए 2.5 मीटर चौड़े और 60 सैं.मी. की दूरी पर नर्सरी बैड तैयार करलें।
-यह किस्म केवल ग्रीनहाउस के लिए अनुकूल है।
-पंजाब खीरा किस्म का पौधा शीघ्रता से बढ़ने वाला होता है।
-यह प्रति नोड 1-2 फल पैदा करता है और फूल पार्थेनोकार्पिक होते हैं।
- खीरा के फल गहरे हरे, बीज रहित, स्वाद कम कड़वा, मध्यम आकार (125 ग्राम), 13-15 सेंटीमीटर लंबे होते हैं।
- इस किस्म के खीरा को छीलने की जरूरत ही नहीं पड़ती है।
- इस किस्म के फल की तुड़ाई सितंबर और जनवरी महीने में होती है।
- खीरा की इस किस्म को तुड़ाई के लिए तैयार होने में 45-60 दिनों का समय लग सकता है।
-सितंबर महीने में बोयी फसल की औसतन पैदावार 304 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
-जनवरी महीने में बोयी फसल की उपज 370 क्विंटल प्रति एकड़ तक होती है।
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-पंजाब नवीन किस्म की सतह खुरदरी और पत्तियां गहरे हरे रंग की होती हैं।
- पंजाब नवीन किस्म का खीरा पकने पर फल नर्म सतह के साथ बेलनाकार और फीके हरे रंग का हो जाता है।
-पंजाब नवीन किस्म का फल कुरकुरा, कड़वेपन रहित और बीज रहित होता है।
-पंजाब नवीन किस्म में विटामिन सी की उच्च मात्रा पायी जाती है और सूखे पदार्थ की मात्रा ज्यादा होती है।
-पंजाब नवीन किस्म 68 दिनों में पककर तैयार हो जाती है।
-पंजाब नवीन फल स्वादिष्ट, रंग और रूप आकर्षित, आकार और बनावट बढिया होती है।
-पंजाब नवीन किस्म से औसतन उपज 70 क्विंटल प्रति एकड़ तक मिल जाती है।
-खीरा की पूसा उदय किस्म भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आई.ऐ.आर.आई) के द्वारा विकसित की गई है।
-पूसा उदय किस्म के फलों की लंबाई 15 सैं.मी. और रंग फीका हरा होता है।
-एक एकड़ जमीन में 1.45 किलोग्राम बीजों का इस्तेमाल करें।
-पूसा उदय किस्म 50-55 दिनों में पककर तैयार हो जाती है।
-पूसा उदय किस्म की औसतन उपज 65 क्विंटल प्रति एकड़ तक होती है।
-पूसा बरखा किस्म खरीफ के मौसम के लिए तैयार की गई है।
-पूसा बरखा किस्म उच्च मात्रा वाली नमी, तापमान और पत्तों के धब्बे रोग के लिए प्रतिरोधी है।
-पूसा बरखा किस्म की औसतन उपज 78 क्विंटल प्रति एकड़ तक होती है।
-खीरा की बिजाई का सबसे सही समय फरवरी से मार्च का महीना होता है।
-खीरा की बिजाई के लिए 2.5 मीटर चौड़े बैड पर हर जगह दो बीज बोयें।