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काली मिर्च के औषधीय लाभ क्या हैं ?
काली मिर्च के औषधीय लाभ क्या हैं ?

भारत के अंदर हर घर में काली मिर्च का प्रयोग जरूर होता है। काली मिर्च को मसालों की रानी माना जाता है। भारतीय रसोई में सब्जी सूखी हो या रसेदार या फिर नमकीन से लेकर सूप आदि तक ज्यादातर व्यंजन में काली मिर्च का प्रयोग किया जाता है। 

भोजन में काली मिर्च का इस्तेमाल केवल स्वाद के लिए नहीं किया जाता है। यह स्वास्थ्य के लिए भी काफी लाभदायक है। काली मिर्च एक अच्छी औषधि भी है। 

काफी लंबे समय से आयुर्वेद में इसका औषधीय प्रयोग होता रहा है। वास्तव में काली मिर्च के औषधीय गुणों के कारण ही इसे भोजन में शामिल किया जाता है। काली मिर्च का प्रयोग रोगों को ठीक करने के लिए भी किया जाता है।

काली मिर्च क्या है ?

काली मिर्च एक औषधीय मसाला है। लेकिन इसको काली मिर्च भी कहते हैं। यह दिखने में थोड़ी छोटी, गोल और काले रंग की होती है। काली मिर्च का स्वाद काफी तीखा होता है। 

इसकी लता बहुत समय तक जीवित रहने वाली होती है। यह पान के जैसे पत्तों वाली, बहुत तेजी से फैलने वाली और कोमल लता होती है। इसकी लता मजबूत सहारे से लिपट कर ऊपर बढ़ती है। काली मिर्च को प्रमाथी द्रव्यों में प्रधान माना गया है। 

काली मिर्च के क्या लाभ है ?

  • काली मिर्च के काफी अधिक औषधीय लाभ हैं, जो कि निम्नलिखित हैं :- 
  • यह वात और कफ को नष्ट करती है और कफ तथा वायु को निकालती है। 
  • यह भूख बढ़ाती है, भोजन को पचाती है, लीवर को स्वस्थ बनाती है और दर्द तथा पेट के कीड़ों को खत्म करती है। 
  • यह पेशाब बढ़ाती है और दमे को नष्ट करती है। 
  • तीखा और गरम होने के कारण यह मुँह में लार पैदा करती है और शरीर के समस्त स्रोतों से मलों को बाहर निकाल कर स्रोतों को शुद्ध करती है। 

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भोजन में इस्तेमाल करने से होने वाले लाभ 

काली मिर्च का भोजन में प्रयोग करने से भी बहुत सारे स्वास्थ्य लाभ मिलते हैं। उदाहरण के लिए ठंड के दिनों में बनाए जाने वाले सभी पकवानों में काली मिर्च का उपयोग किया जाता है, ताकि ठंड और गले की बीमारियों से रक्षा हो सके। 

काली मिर्च नपुंसकता, रजोरोध यानी मासिक धर्म के न आने, चर्म रोग, बुखार तथा कुष्ठ रोग आदि में लाभकारी है। आँखों के लिए यह विशेष हितकारी होती है। जोड़ों का दर्द, गठिया, लकवा एवं खुजली आदि में काली मिर्च में पकाए तेल की मालिश करने से बहुत लाभ होता है।

 

प्रश्न : काली मिर्च से वर्ष में कितनी बार उपज हांसिल कर सकते हैं ?

उत्तर : एक वर्ष में इसकी लगभग दो उपज प्राप्त होती हैं। पहली उपज अगस्त-सितम्बर में और दूसरी मार्च-अप्रैल में। 

प्रश्न : काली मिर्च प्रमुख रूप से कितने प्रकार की होती है ?

उत्तर : बाजारों में दो प्रकार की मिर्च बिकती है पहली सफेद मिर्च और दूसरी काली मरिच। 

प्रश्न : काली मिर्च से प्रमुख फायदे क्या होते हैं ? 

उत्तर : काली मिर्च से पाचन में सुधार, वजन घटाने में मदद, सर्दी-जुकाम से राहत और मस्तिष्क स्वास्थ्य को बढ़ावा देने जैसे लाभ प्रदान करती है।

ट्रैक्टर के इतिहास से जुड़ी बेहद रोचक जानकारी
ट्रैक्टर के इतिहास से जुड़ी बेहद रोचक जानकारी

ट्रैक्टर कृषि क्षेत्र में उपयोग होने वाला महत्वपूर्ण कृषि यंत्र है। यह एक कम गति वाला वाहन है। किसान आमतौर पर भारी भार ढोने और खेतों में हल जैसी मशीनों को खींचने के लिए ट्रैक्टर का उपयोग करते हैं। भारी भार क्षमता के कारण इनका उपयोग अक्सर खनन कार्यों और निर्माण में किया जाता है।

किसान साथियों ट्रैक्टरचॉइस के इस लेख में आज हम जानेंगे दुनिया के पहले ट्रैक्टर और भारत के पहले ट्रैक्टर के बारे में आपको जानकारी प्रदान करेंगे। 

हालांकि, आजकल ट्रैक्टर का इस्तेमाल आधुनिक कृषि में प्रमुख उपकरण के तौर पर किया जाता है। इसकी मदद से कठिन काम भी काफी आसानी से किया जा सकता है। 

इसके अलावा ट्रैक्टर कृषि उपकरण खींचने का काम भी करता है, जिसमें सामान लदी ट्राली आदि शामिल है। 

ट्रैक्टर कितने प्रकार का होता है ?

सभी ट्रैक्टर की बनावट में तीन भाग होते हैं एक इंजन और उसके साधन, पावर ट्रांसमिटिंग सिस्टम, चेजिस। ट्रैक्टर दो प्रकार के होते हैं। इसमें से एक चक्र ट्रैक्टर और दूसरा ट्रैक ट्रैक्टर है। 

चक्र टैक्टर का इस्तेमाल कृषि से जुड़े कार्यों में किया जाता है। ये ट्रैक्टर तीन या चार पहिए वाला होता। ट्रैक टैक्टर भारी कामों के लिए उपयोग किया जाता है, जिसमें बांध और औद्योगिक के कार्य शामिल हैं। कृषि क्षेत्र में इसका कम उपयोग किया जाता है। 

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सबसे पहला ट्रैक्टर कब बना था ?

सबसे पहले शक्ति-चालित कृषि उपकरण 19वीं शताब्दी के आरम्भ में आए थे। इनके पहिओं पर एक भाप का इंजन हुआ करता था। यह बेल्ट की मदद से कृषि उपकरण को चलाता था। 

पहले भाप इंजन का आविष्कार 1812 में रिचर्ड ट्रेविथिक ने किया था, जिसे बार्न इंजन के तौर पर जाना जाता था। इसका इस्तेमाल मकई निकालने के लिए किया जाता था। 

1903 में दो अमरीकी चार्ल्स डब्ल्यू. हार्ट और चार्ल्स एच. पार्र ने दो-सिलेंडर वाले ईंधन से चलने वाले इंजन का उपयोग करते हुए सफलतापूर्वक पहला ट्रैक्टर बनाया था, जिसका इस्तेमाल भी काफी हुआ। इसके बाद 1916-1922 के बीच लगभग 100 से अधिक कंपनियां कृषि ट्रैक्टर का उत्पादन कर रही थी। 

जॉन डीयर

जॉन डीयर ने पहला स्टील हल 1837 में बनाया और 1927 तक पहले ट्रैक्टर और स्टील के हल का तालमेल तैयार किया। इसका इस्तेमाल उत्पादकता को बढ़ाने और खेतों को तीन पंक्तियों में जोतने के लिए किया गया। 1930 ट्रैक्टरों में स्टील के पहिये होते थे। 

लेकिन, बाद में रबर के पहिये लगाये गए और इसके बाद जॉन डीयर ट्रैक्टर के मॉडल ‘आर’ को पेश किया गया था। इसकी शक्ति 40 हॉर्सपावर से भी ज्यादा थी। ये पहला डीजल ट्रैक्टर भी था। इसी के साथ जॉन डीयर किसानों को ट्रैक्टर की पेशकश करने वाले पहले निर्माता बन गए।

भारत में पहला ट्रैक्टर

विश्वभर में भारत को कृषि प्रधान देश के रूप में भी जाना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि भारत में ट्रैक्टर की शुरुआत स्वतंत्रता के बाद ‘हरित क्रांति’ से हुई थी। 

जहां ट्रैक्टर का इस्तेमाल काफी तेजी से हुआ था। भारत ने ट्रैक्टरों का निर्माण 1950 और 1960 के दशक में शूरू किया था।



प्रश्न : दुनिया का सबसे पहला ट्रैक्टर कब और कहाँ बना था ?

उत्तर : 1892 में जॉन फ्रोलिक ने एक ऐसा ट्रैक्टर बनाया जो भाप इंजन से चलता था और उसे "फ्रोलिक का ट्रैक्टर" कहा जाता था। 

प्रश्न : ट्रैक्टर के कितने भाग होते हैं ?

उत्तर : सभी ट्रैक्टर की बनावट में एक इंजन और उसके साधन, पावर ट्रांसमिटिंग सिस्टम और चेजिस तीन भाग होते हैं।

प्रश्न : भारत के अंदर सबसे पहला ट्रैक्टर कब बना था ? 

उत्तर : भारत ने ट्रैक्टरों का निर्माण 1950 और 1960 के दशक में शूरू किया था।

रोटावेटर का उपयोग, लाभ और अनुदान की जानकारी
रोटावेटर का उपयोग, लाभ और अनुदान की जानकारी

समय के साथ कृषि क्षेत्र में भी काफी बदलाव आया है। रोटावेटर फसल की बुवाई से पहले खेत को तैयार करने के काम आता है। इस कृषि यंत्र का इस्तेमाल खास तौर से खेत में फसलों के बीज की बुवाई के लिए किया जाता है। 

ये खेतों से फसलों के अवशेष हटाने में भी मददगार साबित होता है। इससे मिट्टी में बीजों तक उर्वरक आसानी से पहुंच जाता है। 

इसका इस्तेमाल खेत की जुताई के लिए भी किया जाता है। इसकी मदद से किसान 125 मिमी-1500 मिमी की गहराई तक खेत की जुताई कर सकते हैं। 

रोटावेटर के उपयोग से किसानों को क्या फायदा होता है?

किसानों का समय बचता है और लागत भी कम आती है। रोटावेटर अन्य जुताई के यंत्रों की अपेक्षा कम समय में काम पूरा कर लेता है। रोटावेटर अन्य कृषि यंत्रों की अपेक्षा 15 से 35 प्रतिशत तक ईंधन की बचत करता है। 

यह मिट्टी को तुरंत तैयार कर देता है, जिससे पिछली फसल की मिट्टी की नमी का फिर से उपयोग हो सकता है। रोटावेटर की सबसे खास बात यह भी है, कि इसे किसी भी तरह की मिट्टी में चलाया जा सकता है, चाहे मिट्टी दोमट, चिकनी, बलुई, बलुई दोमट, चिकनी दोमट आदि क्यों न हो। 

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सरकार रोटावेटर पर कितनी आर्थिक मदद मुहैय्या कराती है ?

भारत की केंद्र और राज्य सरकारें किसानों को आत्मनिर्भर बनाने के सपने को साकार करने की दिशा में सरकार किसानों और खेती-बाड़ी से जुड़े विभिन्न कार्यों को बढ़ावा दे रही है। 

ऐसी स्थिति में सरकार किसानों को रोटावेटर प्रदान करने के लिए भी अच्छा खासा अनुदान मुहैया कराती है। केंद्र सरकार स्माम योजना के तहत किसानों को कृषि मशीनों पर 40 से 80% प्रतिशत तक अनुदान देती है। 

सरकार के इस अनुदान का लाभ देश के समस्त राज्यों के किसान उठा सकते हैं। इस योजना का लाभ लेने के लिए आपको सबसे पहले सरकार के द्वारा जारी की गई इसकी ऑफिसियल वेबसाइट पर जाना होगा। 

यहां जाकर आपको स्माम योजना के लिए पंजीकरण करना होगा। केंद्र सरकार के अलावा राज्य सरकारें अपने अपने स्तर पर कृषि उपकरण उपलब्ध करवाने के लिए सब्सिडी योजनाएं चलाती है। इसका लाभ लेने के लिए किसान भाई अपने जिले के कृषि अधिकारी या कृषि विज्ञान केंद्र से पूरी जानकारी ले सकते हैं। 

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रोटावेटर खरीदने पर 50% प्रतिशत तक की छूट

उत्तर प्रदेश की योगी सरकार अपने राज्य के सभी किसानों को रोटावेटर खरीदने पर 50% प्रतिशत तक का अनुदान प्रदान करती है। इसका लाभ लेने के लिए राज्य के किसान यूपी सरकार की ऑफिशियल वेबसाइट upagriculture.com पर जाकर अधिक जानकारी ले सकते हैं। 

रोटावेटर की कीमत 

भारतीय बाजारों में रोटावेटर की कीमत 50000 से शुरू होकर 2 लाख रुपये तक होती है। रोटावेटर की कीमत इसकी तकनीकी और इसकी आधुनिकता पर निर्भर करती है।

 

प्रश्न : रोटावेटर क्या है ?

उत्तर : रोटावेटर एक खास तरह का कृषि यंत्र है, जिसे ट्रैक्टर के साथ जोड़कर चलाया जाता है। 

प्रश्न : रोटावेटर की मदद से किसान कितनी गहरी जुताई कर सकते हैं ?

उत्तर : रोटावेटर की मदद से किसान 125 मिमी-1500 मिमी की गहराई तक खेत की जुताई कर सकते हैं। 

प्रश्न : रोटावेटर की बाजार में कितनी कीमत है ?

उत्तर : रोटावेटर की कीमत 50000 हजार से 2 लाख रूपए के बीच होती है।

काला चावल क्या है और इसकी क्या कहानी है ?
काला चावल क्या है और इसकी क्या कहानी है ?

काला चावल चावल की एक किस्म है जिसका रंग गहरा काला होता है और पकने पर यह आमतौर पर गहरे बैंगनी रंग का हो जाता है। 

इसका गहरा बैंगनी रंग मुख्य रूप से इसमें मौजूद एंथोसायनिन की वजह से होता है, जो अन्य रंगीन अनाजों की तुलना में वजन के हिसाब से ज़्यादा होता है। यह दलिया, मिठाई, पारंपरिक चीनी काले चावल के केक, ब्रेड और नूडल्स बनाने के लिए उपयुक्त है। 

काला चावल अपने उच्च पोषण मूल्य के लिए जाना जाता है और यह आयरन, विटामिन ई, एंटीऑक्सीडेंट, कैल्शियम, मैग्नीशियम और जिंक का स्रोत है। इसके अलावा, काले चावल को प्राचीन चीन में निषिद्ध चावल के रूप में जाना जाता था।

निषिद्ध इसलिए नहीं कि यह अपने काले रंग के कारण जहरीला लगता था, बल्कि इसलिए कि इसका पोषण मूल्य बहुत अधिक था, जिसका मतलब था कि इसे केवल सम्राट और अन्य रईस ही खा सकते थे। 

काले चावल को निषिद्ध चावल क्यों कहा जाता है ?

काला चावल, जिसे "निषिद्ध चावल" भी कहा जाता है, एक खास प्रकार का चावल है जिसका रंग गहरा बैंगनी-काला होता है। यह अपनी अनूठी रंगत और स्वास्थ्य लाभों के लिए जाना जाता है। 

कुछ कहानियों के मुताबिक, इसे "निषिद्ध चावल" इसलिए कहा जाता था, क्योंकि प्राचीन चीन में यह केवल सम्राटों और शाही परिवार के सदस्यों के लिए आरक्षित था, जो इसे अपने स्वास्थ्य और लंबी उम्र के लिए खाते थे। 

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काला चावल की कहानी

काला चावल, विशेष रूप से काला नमक चावल, का एक समृद्ध इतिहास है जो गौतम बुद्ध के समय से जुड़ा है। कहा जाता है कि गौतम बुद्ध ने अपने अनुयायियों को यह चावल उपहार में दिया था। यह चावल सिद्धार्थनगर जिले के तराई क्षेत्र में उगाया जाता है और इसे "बुद्ध का महाप्रसाद" माना जाता है। 

काला चावल के फायदे

काला चावल एंटीऑक्सीडेंट से भरपूर होता है, खासकर एंथोसायनिन, जो इसे गहरा रंग देता है। यह चावल हृदय स्वास्थ्य, कैंसर से बचाव और पाचन में सुधार जैसे कई स्वास्थ्य लाभों से जुड़ा है। इसलिए काले चावल की का उत्पादन किसानों की आय और सेहत दोनों के लिए काफी उत्तम और फायदेमंद विकल्प है।  

आज का काला चावल 

वर्तमान में काला चावल दुनिया भर में काफी लोकप्रिय हो रहा है। यह ना सिर्फ इसके स्वास्थ्य लाभों की वजह, बल्कि इसके अनोखे स्वाद और बनावट की वजह से भी। यह ना केवल पारंपरिक व्यंजनों में इस्तेमाल किया जाता है, बल्कि आधुनिक व्यंजनों में भी एक लोकप्रिय घटक बन गया है। 

काला चावल की खेती

काला चावल की खेती विशेष रूप से छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश के कई हिस्सों में की जाती है। किसानों को पारंपरिक चावल के मुकाबले में काले चावल की खेती से ज्यादा मुनाफा अर्जित होता है, क्योंकि काले चावल की कीमत काफी ज्यादा होती है। 



प्रश्न : काला चावल अपनी किस विशेषता की वजह से जाना जाता है ? 

उत्तर : काला चावल अपनी भरपूर एंटीऑक्सीडेंट मात्रा की वजह से जानी जाती है। 

प्रश्न : काला चावल को निषिद्ध चावल क्यों कहा जाता है ? 

उत्तर : काले चावल का नाम निषिद्ध चावल प्राचीन चीन में इसका केवल सम्राटों और शाही परिवार के सदस्यों द्वारा सेवन किये जाने की वजह से था। 

प्रश्न : काले चावल की खेती से कितना मुनाफा अर्जित किया जा सकता है ?

उत्तर : काले चावल की खेती से सामान्य चावल की तुलना में अधिक मुनाफा हांसिल किया जा सकता है।

धान की इन टॉप 5 किस्मों की खेती से होगा तगड़ा मुनाफा
धान की इन टॉप 5 किस्मों की खेती से होगा तगड़ा मुनाफा

भारत धान उत्पादन में चीन के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है। भारत में धान खरीफ सीजन की सबसे प्रमुख फसल है। धान की खेती मानसून के दौरान काफी बड़े पैमाने पर की जाती है। 

धान की फसल का उत्पादन सिंचित और अर्ध-सिंचित दोनों क्षेत्रों में किया जाता है। जहां एक तरफ किसान पारंपरिक किस्मों पर निर्भर रहते हैं, वहीं अब समय आ गया है कि वे उन्नत किस्मों की तरफ रुख करें। जो कम समय में ज्यादा उपज और शानदार लाभ देती हैं। 

भारत के अंदर बड़े पैमाने पर धान की खेती पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, बिहार, तमिलनाडु और झारखंड शामिल हैं। 

इन राज्यों में लाखों किसान हर वर्ष बारिश के मौसम में धान की बुवाई करते हैं और यह फसल उनकी आजीविका का मुख्य स्रोत मानी जाती है। 

अगर किसान धान की खेती से अच्छा मुनाफा कमाना चाहते हैं, तो उन्हें बेहतर क्वालिटी वाली उन्नत किस्मों को चुनना चाहिए। आइए जानते हैं धान की कुछ प्रमुख फसलों की खेती के बारे में। 

धान की टॉप 5 मुनाफेदार किस्में

धान की टॉप 5 मुनाफेदार किस्में निम्नलिखित हैं:-

सीएसआर-10 (CSR-10)

सीएसआर-10 (CSR-10) की निम्नलिखित विशेषताएं हैं :-

  • सीएसआर-10 (CSR-10) किस्म की उत्पादन क्षमता 50–55 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। 
  • सीएसआर-10 (CSR-10) किस्म को पककर कटाई के लिए तैयार होने में लगभग 120–125 दिन लगते हैं। 
  • सीएसआर-10 (CSR-10) किस्म का उत्पादन पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, गोवा, ओडिशा, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक जैसे राज्यों में होता है। 
  • सीएसआर-10 (CSR-10) किस्म छोटे सफेद दाने, बोनी किस्म, खारे पानी वाले क्षेत्रों के लिए उपयुक्त और जलभराव सहनशील है। 

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एनडीआर-359 (NDR-359)

एनडीआर-359 (NDR-359) किस्म की विशेषताएं निम्नलिखित हैं :-

  • एनडीआर-359 (NDR-359) किस्म की उत्पादन क्षमता 50–55 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। 
  • एनडीआर-359 (NDR-359) किस्म को तैयार होने 115–120 दिन का समय लगता है। 
  • एनडीआर-359 (NDR-359) किस्म के पौधे की ऊंचाई लगभग 95 सेमी तक होती है। 
  • एनडीआर-359 (NDR-359) किस्म उत्तर प्रदेश, बिहार और ओडिशा जैसे राज्यों में ज्यादा उगाई जाती है। 
  • एनडीआर-359 (NDR-359) किस्म जल्दी पकने वाली किस्म, बीएलबी, बीएस और एलबी जैसे रोगों से सुरक्षित, कम समय में अच्छी उपज देती है। 

अनामिका (Anamika)

अनामिका (Anamika) किस्म की विशेषताएं निम्नलिखित हैं :- 

  • अनामिका (Anamika) किस्म की उत्पादन क्षमता 50–55 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। 
  • अनामिका (Anamika) किस्म को तैयार होने में लगभग 130–135 दिन का समय लगता है। 
  • अनामिका (Anamika) किस्म की खेती बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिशा और असम जैसे राज्यों में की जाती है। 
  • अनामिका (Anamika) किस्म लंबे और मोटे दाने, स्वादिष्ट चावल, पूर्वी भारत में सबसे अधिक पसंद की जाने वाली किस्म है। 

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डब्लू.जी.एल.-32100 (WGL-32100)

डब्लू.जी.एल.-32100 (WGL-32100) की निम्नलिखित विशेषताएं हैं :-

  • डब्लू.जी.एल.-32100 (WGL-32100) किस्म की उत्पादन क्षमता 55–60 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक है। 
  • डब्लू.जी.एल.-32100 (WGL-32100) किस्म की फसल की तैयार होने में लगभग 125–130 दिन का समय लगता है।  
  • डब्लू.जी.एल.-32100 (WGL-32100) किस्म की छोटे और पतले दाने, पौधों की लंबाई कम, मध्यम अवधि में पकने वाली और उच्च उत्पादक किस्म है। 

आईआर-36 (IR-36)

आईआर-36 (IR-36) किस्म की विशेषताएं निम्नलिखित हैं:-

  • आईआर-36 (IR-36) किस्म की उत्पादन क्षमता 40–45 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक है। 
  • आईआर-36 (IR-36) किस्म को कटाई के लिए तैयार होने में लगभग 115–120 दिन का समय लगता है।  
  • आईआर-36 (IR-36) सूखा सहनशील, कम वर्षा वाले इलाकों में उपयुक्त, जल्दी पकने वाली और कीट-प्रतिरोधी किस्म है। 

 

प्रश्न : भारत के किस राज्य की सबसे ज्यादा भूमि पर धान की खेती होती है ?

उत्तर : भारत के झारखंड में लगभग 71% प्रतिशत भूमि पर धान की खेती की जाती है। 

प्रश्न : अनामिका किस्म का उत्पादन किन राज्यों में किया जाता है ?

उत्तर : अनामिका किस्म का उत्पादन बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिशा और असम जैसे राज्यों में बड़े पैमाने पर किया जाता है।

प्रश्न : सीएसआर-10 (CSR-10) किस्म से कितनी उपज हांसिल हो सकती है ?

उत्तर : सीएसआर-10 (CSR-10) किस्म की उत्पादन क्षमता 50–55 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। 

 खीरा की खेती से जुड़ी विस्तृत जानकारी
खीरा की खेती से जुड़ी विस्तृत जानकारी

किसान साथियों, आज हम आपको अपने इस लेख में एक फल के बारे में जानकारी देंगे जो कि भारत के करीब हर व्यक्ति के भोजन की थाली में सलाद के रूप में परोसा जाता है। दरअसल, हम बात कर रहे हैं भारत के अंदर बड़े पैमाने पर उगाए और उपभोग किए जाने वाले खीरा की। 

अगर हम खीरा के वानस्पतिक नाम की बात करें तो इसका वानस्पतिक नाम कुकुमिस स्टीव्स है। एक तरह से खीरा हर भारतीय रसोई की शान है। 

खीरा का सेवन करने से कई सारे स्वास्थ्य लाभ भी होते हैं। खीरे के अंदर 96% पानी की मात्रा पाई जाती है, जो गर्मी के मौसम में सेहत के लिए लाभकारी सिद्ध होता है। 

खीरा की खेती के लिए कैसी मिट्टी होनी चाहिए ? 

खीरे की खेती कई तरह की मिट्टी में की जा सकती है। 

- खीरे की फसल जैविक तत्वों से युक्त और समुचित जल निकास वाली दोमट मिट्टी में अच्छी उपज देती है। खीरे की खेती के लिए मिट्टी का pH 6-7 होना चाहिए।

जमीन की तैयारी

-खीरे की खेती के लिए, अच्छी तरह से तैयार और खरपतवार रहित खेत की आवश्यकता होती है। 

-बिजाई से पहले मिट्टी को अच्छी तरह से भुरभुरा बनाने के लिए 3-4 बार खेत की गहरी जोताई करें। 

-गाय के गोबर को मिट्टी में मिलादें इससे खेत की उपजाऊ शक्ति में वृद्धि होगी। 

-खीरे की खेती के लिए 2.5 मीटर चौड़े और 60 सैं.मी. की दूरी पर नर्सरी बैड तैयार करलें। 

खीरा की प्रमुख किस्में व उपज 

पंजाब खीरा - 1 (2018)

-यह किस्म केवल ग्रीनहाउस के लिए अनुकूल है। 

-पंजाब खीरा किस्म का पौधा शीघ्रता से बढ़ने वाला होता है।

-यह प्रति नोड 1-2 फल पैदा करता है और फूल पार्थेनोकार्पिक होते हैं।

- खीरा के फल गहरे हरे, बीज रहित, स्वाद कम कड़वा, मध्यम आकार (125 ग्राम), 13-15 सेंटीमीटर लंबे होते हैं।

- इस किस्म के खीरा को छीलने की जरूरत ही नहीं पड़ती है। 

- इस किस्म के फल की तुड़ाई सितंबर और जनवरी महीने में होती है। 

- खीरा की इस किस्म को तुड़ाई के लिए तैयार होने में 45-60 दिनों का समय लग सकता है। 

-सितंबर महीने में बोयी फसल की औसतन पैदावार 304 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। 

-जनवरी महीने में बोयी फसल की उपज 370 क्विंटल प्रति एकड़ तक होती है।

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पंजाब नवीन (2008) 

-पंजाब नवीन किस्म की सतह खुरदरी और पत्तियां गहरे हरे रंग की होती हैं। 

- पंजाब नवीन किस्म का खीरा पकने पर फल नर्म सतह के साथ बेलनाकार और फीके हरे रंग का हो जाता है।

-पंजाब नवीन किस्म का फल कुरकुरा, कड़वेपन रहित और बीज रहित होता है। 

-पंजाब नवीन किस्म में विटामिन सी की उच्च मात्रा पायी जाती है और सूखे पदार्थ की मात्रा ज्यादा होती है। 

-पंजाब नवीन किस्म 68 दिनों में पककर तैयार हो जाती है।

-पंजाब नवीन फल स्वादिष्ट, रंग और रूप आकर्षित, आकार और बनावट बढिया होती है। 

-पंजाब नवीन किस्म से औसतन उपज 70 क्विंटल प्रति एकड़ तक मिल जाती है।

अन्य राज्य की किस्में

पूसा उदय

-खीरा की पूसा उदय किस्म भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आई.ऐ.आर.आई) के द्वारा विकसित की गई है। 

-पूसा उदय किस्म के फलों की लंबाई 15 सैं.मी. और रंग फीका हरा होता है। 

-एक एकड़ जमीन में 1.45 किलोग्राम बीजों का इस्तेमाल करें। 

-पूसा उदय किस्म 50-55 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। 

-पूसा उदय किस्म की औसतन उपज 65 क्विंटल प्रति एकड़ तक होती है।

पूसा बरखा 

-पूसा बरखा किस्म खरीफ के मौसम के लिए तैयार की गई है। 

-पूसा बरखा किस्म उच्च मात्रा वाली नमी, तापमान और पत्तों के धब्बे रोग के लिए प्रतिरोधी है। 

-पूसा बरखा किस्म की औसतन उपज 78 क्विंटल प्रति एकड़ तक होती है।

खीरा की बिजाई का समय 

-खीरा की बिजाई का सबसे सही समय फरवरी से मार्च का महीना होता है। 

-खीरा की बिजाई के लिए 2.5 मीटर चौड़े बैड पर हर जगह दो बीज बोयें।

अर्जुन की खेती और छाल के अद्भुत स्वास्थ्य लाभ
अर्जुन की खेती और छाल के अद्भुत स्वास्थ्य लाभ

अर्जुन की खेती आयुर्वेदिक और होम्योपैथी दोनों ही नजरिए से काफी महत्वपूर्ण मानी जाती है। अर्जुन का पेड़ खास तौर पर नदियों के किनारे ज्यादा पाया जाता है। 

अर्जुन की छाल का उपयोग कई सारी स्वास्थ्य समस्याओं को दूर करने के लिए किया जाता है। अर्जुन एक ओषधीय वृक्ष है।  

अर्जुन की खेती के लिए मृदा एवं जलवायु

मिट्टी

अर्जुन को कई तरह की मिट्टी में आसानी से उगाया जा सकता है। परंतु, अर्जुन की खेती के लिए दोमट मिट्टी सबसे अच्छी होती है। 

अगर हम मिट्टी के pH स्तर की बात करें तो वह करीब 6.5 से 7.5 के बीच होना चाहिए। अर्जुन की गहरी जड़ें होती हैं, इस वजह से बेहतर जल निकासी वाली मिट्टी इसके बेहतर विकास के लिए फायदेमंद होता है।

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जलवायु

अर्जुन की खेती के लिए उपोष्णकटिबंधीय और उष्णकटिबंधीय जलवायु अत्यधिक अनुकूल मानी जाती है। यह पेड़ 10°C से 45°C तक का तापमान सहन कर सकता है और 800-1200 मिमी वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में अच्छी वृद्धि करता है।

अर्जुन की खेती में भूमि की तैयारी

अर्जुन की खेती करने के लिए खेत की गहरी जुताई करके मिट्टी को भुरभुरी करने से पौधों की जड़ों को फैलने में आसानी होगी। 

खेत की अंतिम जुताई के बाद मृदा में पोषक तत्वों की आपूर्ति के लिए सड़ी हुई गोबर की खाद डालनी चाहिए। इसके बाद, खेत में पाटा लगाकर खेत को एकसार करलें।

अर्जुन के पेड़ लगाने का तरीका 

अर्जुन के बीज से रोपाई के लिए इसके बीजों को पानी में भिगोकर नर्सरी में बोएं। पौधों को नर्सरी में तैयार होने के बाद खेत में रोपें। अर्जुन के बीज की सीधे बिजाई के लिए कलम विधि सबसे सबसे अच्छी होती है।

मानसून का मौसम अर्जुन के पौधों की रोपाई के लिए सबसे अच्छा माना जाता है। अर्जुन की रोपाई करते वक्त पौधों के बीच 5×5 मीटर का फासला होना चाहिए। एक हेक्टेयर खेत में करीब 400-450 पौधे लगाए जा सकते हैं।

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अर्जुन के पेड़ की सिंचाई 

अर्जुन की खेती में प्रारम्भ के कुछ महीनों तक प्रतिदिन सिंचाई की जरूरत होती है। लेकिन, कुछ माह बाद अर्जुन का पेड़ सूखा भी सहन कर लेता है।

अर्जुन के लिए खाद 

अर्जुन के पेड़ में जरूरत के हिसाब से समय-समय पर कृषि विशेषज्ञों की सलाहनुसार खाद का उपयोग करें।

अर्जुन के खेत में खरपतवार नियंत्रण 

अर्जुन की खेती के दौरान खरपतवारों को हटाने के लिए समय-समय पर निराई-गुड़ाई करें। 

अर्जुन के पेड़ का बेहतर विकास करने के लिए आपको इसकी नियमित रूप से छंटाई करनी चाहिए।

अर्जुन की छाल के स्वास्थ्य लाभ 

अर्जुन की छाल के निम्नलिखित लाभ     

अर्जुन की छाल का सेवन करने से हृदय संबंधित रोगों से लाभ मिलता है। इस बात को अगर हम वैज्ञानिक रूप से समझें तो अर्जुन की छाल में 

फाइटोकेमिकल्स, खासतौर पर टैनिन होता है, जो कार्डियोप्रोटेक्टिव प्रभाव दिखाता है। यह धमनियों को चौड़ा कर रक्तचाप को कंट्रोल करता है और कोलेस्ट्रॉल को कम करने में सहयोगी होता है। इस प्रकार से यह हृदय स्वास्थ्य के लिए बेहद लाभकारी है। 

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पेचिश से लेकर जोड़ों तक की समस्या 

अर्जुन की छाल का इस्तेमाल आयुर्वेद में दस्त और पेचिश जैसी पाचन संबंधी दिक्कतों से निजात मिलेगी। यह पाचन तंत्र की सूजन को भी कम करने में सहयोगी है। 

अर्जुन का उपयोग करने से डायबिटीज, सूजन, हृदय रोग और गठिया आदि कई बीमारियों को दूर करने में सहयोगी है। साथ ही, अर्जुन जोड़ों की समस्या को भी दूर करने में मददगार है।

अर्जुन की छाल का कैसे सेवन करें ?

अर्जुन की छाल 10-10 मिलीग्राम सुबह और शाम में आप इस्तेमाल कर सकते हैं। अर्जुन की छाल का इस्तेमाल चाय या फिर दूध के साथ कर सकते हैं। अगर आप ऐसे नहीं लेते हैं, तो आप इसका पाउडर बनाकर रखलें और फिर गर्म पानी के साथ इसको लें।

निष्कर्ष -

अर्जुन की छाल का सेवन करने से विभिन्न प्रकार के स्वास्थ्य संबंधी फायदे होते हैं। अर्जुन की इन्ही खूबियों की वजह से बाजार में इसकी निरंतर मांग बढ़ रही है। इसलिए इसकी खेती करना स्वास्थ्य और आय दोनों के लिए लाभकारी है।

परिश्रम और अनोखे कार्य के लिए मिला इन दो किसानों को पद्म पुरस्कार
परिश्रम और अनोखे कार्य के लिए मिला इन दो किसानों को पद्म पुरस्कार

भारत एक कृषि प्रधान देश है और यहां खेती किसानी में अपनी अलग पहचान बनाने वाले कई किसान हैं। 

लेकिन, आज हम आपको दो ऐसे किसानों के बारे में बताएंगे, जिन्होंने अपनी मेहनत के बल पर पद्म पुरस्कार 2025 के विजेताओं की सूची में अपना नाम दर्ज कराया है। 

जी हाँ, हम बात कर रहे हैं पद्म पुरस्कार विजेता "नोकलाक के फल मसीहा" एल हैंगथिंग और "सेब सम्राट" हरिमन शर्मा के बारे में हैं, जिनका नाम पद्मश्री विजेताओं की सूची में शामिल हुआ है।

पद्म पुरस्कार क्या है ?

भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मानों में से एक पद्म पुरस्कार मुख्यतः पद्म विभूषण, पद्म भूषण और पद्मश्री तीन रूप में दिया जाता है। 

पद्म पुरस्कार सामाजिक कार्य, सार्वजनिक मामले, विज्ञान, कला, इंजीनियरिंग, व्यापार, उद्योग, साहित्य, शिक्षा, खेल, सिविल सेवा और चिकित्सा जैसे क्षेत्रों में उत्तम कार्य के लिए दिया जाता है। 

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पद्म पुरस्कार विजेता एल हैंगथिंग कौन हैं ?

  • एल हैंगथिंग नागालैंड के नोकलाक जिले के एक प्रगतिशील किसान हैं, जिन्हें "नोकलाक का फल मसीहा" कहा जाता है। 
  • वे पिछले 30 वर्षों से अपने क्षेत्र में गैर-स्थानीय फलों की खेती कर रहे हैं और यह ज्ञान 40 गांवों के 200 से अधिक किसानों तक पहुँचाया है।
  • एल हैंगथिंग बचपन में फेंके गए फलों के बीज इकट्ठा करके अपने खेत में इस्तेमाल करते थे, जिससे उनका फलों के प्रति प्रेम शुरू हुआ। 
  • एल हैंगथिंग द्वारा बताई गई खेती की नई तकनीकों को 400 से भी ज्यादा परिवारों ने अपनाया है। 
  • किसानों को लीची और संतरे जैसे गैर-स्थानीय फलों की खेती से अच्छी आमदनी हुई है। 
  • एल हैंगथिंग के इस सराहनीय कार्य से 40 गांवों के हजारों किसानों की आर्थिक शक्ति बढ़ी है। 

पद्म पुरस्कार विजेता हरिमन शर्मा कौन हैं ?

  • प्रगतिशील किसान हरिमन शर्मा तहसील घुमारवी, जनपद बिलासपुर (हिमाचल प्रदेश) के मूल निवासी हैं। 
  • हरिमन शर्मा ने 2005 में एक नई सेब की किस्म तैयार की थी, जिसको निचले इलाकों में भी उगा सकते हैं। 
  • बर्फीली पहाड़ियों पर उगने वाला सेब निचले हिमाचल प्रदेश के गर्म इलाकों में उगने लगा जो कि बड़ी बात है।

विकसित की गई किस्म 

  • हरिमन शर्मा द्वारा विकसित की गई इस नई किस्म का नाम HRMN 99 है। 
  • HRMN 99 किस्म को 40 से 46 डिग्री तापमान वाले क्षेत्रों में भी उगा सकते हैं। 
  • HRMN 99 किस्म को अपने नाम से पेटेंट भी कराया है। 
  • HRMN 99 किस्म का सेब आकार, गुणवत्ता और स्वाद में सामान्य सेबों की तरह ही होता है। 
  • HRMN 99 किस्म निचले इलाकों यानी मैदानी इलाकों में भी सफलतापूर्वक उगाई जा सकती है। 
ग्वार की खेती कैसे करें? जानिए पूरी प्रक्रिया
ग्वार की खेती कैसे करें? जानिए पूरी प्रक्रिया

किसान साथियों, ग्वार की सब्जी का सेवन भारतभर के अंदर बड़े पैमाने पर किया जाता है। ग्वार का स्वाद और इसके अंदर मौजूद पोषक तत्व इसको काफी लोकप्रिय सब्जी बनाते हैं। 

आपने कभी ना कभी ग्वार की सब्जी का सेवन जरूर किया होगा। क्योंकि ग्वार की फसल का उत्पादन और सेवन हजारों साल से चला आ रहा है। 

ग्वार के अंदर सूखा से लड़ने की भी क्षमता होती है। इसलिए इसका उत्पादन सिंचित और असिंचित दोनों इलाकों में किया जाता है। 

ग्वार का उत्पादन ऐसे इलाकों में भी होता है, जहां सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था नहीं है। ग्वार का इस्तेमाल कई तरीके से किया जाता है। जैसे - सब्जी, हरा चारा, हरी खाद और हरी फलियों का सब्जी के रूप में उपयोग किया जाता है। 

ग्वार की खेती के लिए कैसी मिट्टी होनी चाहिए ?

  • ग्वार की खेती आम तौर पर हर प्रकार की मिट्टी में उगाई जाती है। 
  • अगर हम बेहतरीन उपज की बात करें तो समतल चिकनी उपजाऊ मिट्टी है।  
  • बेहतर जल निकासी वाली जमीन सबसे अच्छी होती है।

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ग्वार की खेती के लिए जलवायु कैसी होनी चाहिए। ?

  • ग्वार की अच्छी उपज पाने के लिए नम एवं गर्म जलवायु सही रहती है और इसकी खेती वर्षा ऋतु में भी की जा सकती है।
  • ग्वार की अच्छी उपज के लिए 25-30° ब् तापमान सही रहता है।
  • ग्वार की फसल वृद्धि के समय 500 से 600 मि.मी. के आसपास बारिश होनी जरूरी है।

भूमि की तैयारी

  • ग्वार की फसल के लिए खेत तैयार करने के लिए 2-3 बार गहरी जुताई करना बेहद जरूरी है। 

बुबाई का समय

  • ग्वार की फसल से अच्छी उपज पाने के लिए जुलाई के पहले सप्ताह में बुवाई करना उत्तम होता है। 

ग्वार की प्रमुख किस्में और उपज

ग्वार की सुपर एक्स -7 किस्म    

  • सुपर एक्स -7 किस्म के पौधो की ऊंचाई 90 से 100 सेंटीमीटर तक होती है। 
  • सुपर एक्स -7  किस्म को सिंचित और असिंचित दोनों इलाकों में उगा सकते हैं। 
  • सुपर एक्स -7 किस्म को पकने में 80 से 100 दिन लगते हैं। 
  • सुपर एक्स -7 किस्म से ओसत उत्पादन 6 से 8 क्विंटल / एकड़ होता है। 
  • सुपर एक्स -7 किस्म का बीज ब्लाईट, जड़ गलन जैसें रोगों के प्रति सहनशील होता है। 

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टाइगर ग्वार सीड्स    

  • टाइगर ग्वार सीड्स ज्यादा शाखाओं एवं ज्यादा फैलाव वाली ग्वार किस्म है, इसके दाने गोल, चमकीले और वजनदार होते हैं। 
  • टाइगर ग्वार सीड्स जड़ गलन, झुलसा, ब्लाईट जैसे रोगों के लिए प्रतिरोधी है। 
  • टाइगर ग्वार सीड्स को पककर तैयार होने में 100 से 110 दिन का समय लग जाता है। 
  • इस किस्म से अधिकतम उत्पादन 7 से 10 क्विंटल / एकड़ तक हांसिल किया गया है। 
  • यह किस्म समस्त प्रकार की मृदा में उपयुक्त मानी गई है।

ग्वार की एच जी -365 किस्म     

  • ग्वार की एच जी -365 किस्म विभिन्न शाखाओं के साथ फैली हुई शानदार प्रजाति है। 
  • यह 60 से 70 दिनों के समयांतराल पर शीघ्रता से पकने वाली किस्म है। 
  • एच जी -365 किस्म की उपज की बात करें तो 18-20 क्विंटल / हेक्टेयर तक होती है। 

ग्वार की कोहिनूर 51 किस्म

  • ग्वार की कोहिनूर 51 किस्म का फल अन्य किस्मों से लंबे और हरे रंग के होते हैं। 
  • कोहिनूर 51 किस्म की फसल 48-58 दिन के समयांतराल में पककर तैयार हो जाती है।
  • कोहिनूर 51 किस्म को पककर तैयार होने में 90 से 100 दिन का वक्त लगता है। 
  • कोहिनूर 51 किस्म की ग्वार को किसी भी सीजन में उगाया जा सकता है। 

ग्वार की अर्का संपूर्ण किस्म

  • ग्वार अर्का संपूर्ण किस्म को भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान, बैंगलोर ने किया है। 
  • ग्वार अर्का संपूर्ण किस्म के पौधों पर रतुआ एवं चूर्णिल फफूंद का रोग लग जाता है। 
  • ग्वार की यह किस्म 50 से 60 दिन के समयांतराल पर पककर तैयार हो जाती है।  
  • ग्वार की अर्का संपूर्ण किस्म से औसत उपज 8 से 10 टन के आसपास होती है।

बीज की मात्रा 

  • ग्वार के बीज का उत्पादन के लिए 15 से 20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज की मात्रा देनी चाहिए।
  • ग्वार की सब्जी का उत्पादन करने के लिए 15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज की मात्रा होनी चाहिए।
  • चारा एवं हरी खाद का उत्पादन करने के लिए 40 से 45 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज की मात्रा होनी चाहिए।

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बीजोपचार

ग्वार की बुवाई से पहले बीज को कार्बेन्डाजिम + केप्टान (1+2) 3 ग्राम दवा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए। 

बुवाई की विधि

  • ग्वार की बुवाई के लिए रेज्ड बेड मेथड सबसे अच्छा होता है। 
  • ग्वार की जल्दी पकने वाली किस्मों की बुवाई  30ग10 से.मी. का फासला होना चाहिए। 
  • ग्वार की मध्यम समयावधि में पकने वाली किस्मों के लिए 40ग10 सेमी. का फासला होना चाहिए।

सिंचाई 

फसल मे फूल आने और फलियाँ बनने के दौरान वर्षा ना होने पर सिंचाई करने से पैदावार में बढ़ोतरी की जा सकती हैं।

ग्वार की फसल जल जमाव वाले खेत में नहीं उगाई जा सकती है। इसलिए खेत में समुचित जल निकास की व्यवस्था होनी चाहिए।

खरपतवार नियंत्रण

  • ग्वार की फसल में खरपतवार को काबू करने के लिए पहली निदाई-गुडाई 20-25 दिन पर करें। 
  • ग्वार की फसल में दूसरी निंदाई-गुडाई पहली निदाई-गुड़ाई के 20-25 दिन बाद करनी चाहिए। 

ग्वार फसल के लिए हानिकारक कीट 

ग्वार की फसल को नुकसान पहुँचाने वाले मुख्य हानिकारक कीटों में एफिड, लीफ हॉपर, सफेद मक्खी, पत्ती छेदक और फली छेदक शामिल है।

ग्वार की कटाई कब करनी चाहिए ? 

सब्जी के लिए कटाई 

ग्वार की सब्जी बनाने के उद्देश्य से लम्बी, मुलायम और अधपकी फलियाँ तोड़ी जाती हैं।

चारा के लिए कटाई 

चारा फसल को फूल आने और 50% प्रतिशत फली बनने की स्थिति में काट लेना ही चाहिए। 

बीज के लिए कटाई  

  • ग्वार के पौधों की पत्तियों के सूखने और फलियों के सूखकर सफेद पड़ने पर कटाई की जाती है। 
  • कटाई के बाद फसल को धूप में सुखाकर मजदूर या थ्रेशर मशीन द्वारा उसकी थ्रेशिंग (मडाई) करें। 
  • ग्वार के दानों को धूप में अच्छी तरह सुखा कर भण्डारण कर सकते हैं।

कटाई के बाद 

ग्वार की कटाई के बाद आप फसल को मंडियों में बेचकर अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं। 

ग्वार का वर्तमान में भाव 4,800 रुपये से 5,100 रुपए के आसपास है। 

निष्कर्ष -

ग्वार का उत्पादन कई उद्देश्यों के लिए होने की वजह से इसकी निरंतर मांग और कीमत भी अच्छी मिलती है। ग्वार का उत्पादन करना बड़े लाभ का सौदा है।

जायद सीजन में तरबूज की खेती से जुड़ी विस्तृत जानकारी
जायद सीजन में तरबूज की खेती से जुड़ी विस्तृत जानकारी

तरबूज को प्रत्येक भारतवासी जानता है, क्योंकि गर्मियों के समय भारतभर में तरबूज के फल का सेवन किया जाता है। अगर हम तरबूज को गर्मी का बादशाह फल भी कहा जाए तो गलत नहीं होगा। 

बहुत सारे चिकित्सक भी तरबूज का गर्मियों में सेवन करना सेहत के लिए फायदेमंद बताते हैं। 

अपनी अनेकों खूबियों के साथ साथ इसका स्वाद मीठा और दिलचस्प होने की वजह से तरबूज लोगों के बीच बहुत ही लोकप्रिय और पसंदीदा फल है। 

तरबूज कद्दूवर्गीय श्रेणी के अंतर्गत आने वाली फसल है। आप गर्मियों के दिनों में पोषक तत्वों से भरपूर तरबूज के फल से फ्रूट डिश, जूस और शरबत आदि बना सकते हैं। 

तरबूज के स्वास्थ्य लाभ 

ताजगी देने वाले इस तरबूज के फल में भरपूर पानी होने की वजह से गर्मियों में तरबूज खाने से धूप में भी शरीर हाइड्रेट और तरोताजा महसूस होता है। आइए जानते हैं, तरबूज के सेवन से कुछ प्रमुख फायदों के बारे में।

  • तरबूज में उपलब्ध पोटेशियम हृदय को स्वस्थ और रक्तचाप को संतुलित करने में मदद करता है। 
  • तरबूज एक लो-कैलोरी फल है, जो सिर्फ 16 किलो कैलोरी ऊर्जा प्रदान करता है। 
  • तरबूज में प्रोटीन और वसा होने से मोटापा कम होता है। साथ ही, इसमें विटामिन 'ए', विटामिन 'सी' और आयरन भी होता है। 

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तरबूज की खेती के लिए मिट्टी और जलवायु

तरबूज की उन्नत खेती के लिए मध्यम काली, रेतीली दोमट मृदा सबसे अच्छी होती है। क्योंकि इसमें भरपूर मात्रा में कार्बनिक पदार्थ और उचित जल क्षमता होती है। तरबूज की खेती के लिए गर्म जलवायु की आवश्यकता होती है। 

तरबूज के लिए खेत की तैयारी 

तरबूज की खेती के लिए जमीन तैयार करने के लिए खेत की 2-3 बार जोताई कर लेनी चाहिए। 

भूमि की तैयारी के बाद 60 सें.मी. चौड़ाई और 15-20 सें.मी. ऊंचाई वाली क्यारियां (रेज्ड बेड) बनाई जाती हैं। आप खेत की क्यारियों में 6 फीट का अंतर रख सकते हैं। 

तरबूज की उन्नत किस्में 

तरबूज की प्रमुख उन्नत किस्में निम्नलिखित हैं 

पूसा बेदाना 

पूसा बेदाना किस्म को भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान नई दिल्ली द्वारा तैयार की गई है। 

इस किस्म की सबसे बड़ी खासियत यह है, कि इसके फलों में बीज नहीं पाए जाते हैं। पूसा बेदाना किस्म के फल ज्यादा मीठे होते हैं। पूसा बेदाना को तैयार होने में 85 से 90 दिन लग जाते हैं।

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डब्ल्यू 19  

डब्ल्यू 19 किस्म ज्यादा गर्मी को भी झेल सकती है। तरबूज की खेती शुष्क इलाकों में भी की जा सकती है। 

इसके फलों पर हल्के हरे रंग की धारियां बन जाती हैं एवं इसका गुदा गहरे गुलाबी रंग का एवं खोज होता है। तरबूज के फल बेहतरीन गुणवत्ता से युक्त और मीठे होते हैं। डब्ल्यू 19  किस्म को तैयार होने में 75 से 80 दिन लग जाते हैं।

काशी पितांबर 

काशी पितांबर किस्म के छिलके पीले रंग के और अंदर का रंग गुलाबी होता है। काशी पितांबर किस्म के तरबूज का औसतन वजन 2.5 से 3.5 किलोग्राम तक होता है। इस किस्म से करीब 160 से 180 क्विंटल प्रति एकड़ फल हांसिल हो जाते हैं।

अलका आकाश 

अलका आकाश एक संकर किस्म है। इसका फल अंडाकार और अंदर से गुलाबी होता है। तरबूज उत्पादक किसान प्रति एकड़ जमीन से 36 से 40 टन फल हांसिल कर सकते हैं।

दुर्गापुर मीठा  

दुर्गापुर मीठा किस्म के फलों पर धारियां होती है। यह खाने में बहुत ही ज्यादा स्वादिष्ट लगते हैं।

इस किस्म के एक तरबूज फल का वजन 6 से 8 किलोग्राम तक होता है। तरबूज की अन्य किस्में भी हैं ,जैसे शुगर बेबी, अर्का मानिक और अर्का ज्योति इत्यादि। 

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तरबूज की बिजाई 

तरबूज की बेहतरीन किस्मों के लिए 2.5-3 कि.ग्रा. और संकर किस्मों के लिए 750-875 ग्राम प्रति हेक्टेयर बीज की मात्रा से बिजाई करनी चाहिए। 

तरबूज की बुवाई के पहले बीज को कार्बेन्डाजिम फफूंदनाशक 1 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल में लगभग तीन घंटे तक डुबोकर उपचारित कर सकते हैं। 

बीज उपचार के बाद बीजों को जूट बैग में 12 घंटे तक छाया में रखने के बाद खेत में बिजाई कर सकते हैं। 

तरबूज की सिंचाई

तरबूज की बिजाई के बाद एक हफ्ते तक मिट्टी और जलवायु के अनुरूप सिंचाई करें। तरबूज की फसल को पर्याप्त मात्रा में पानी नहीं मिलने पर नुकसान होता है। 

हालांकि, शुरुआत में पानी की खास जरूरत नहीं पड़ती है। लेकिन, तरबूज के विकास के समय पानी की बहुत जरूरत होती है। इसलिए आम तौर पर तरबूज की सिंचाई 5-6 दिन के बाद की जाती है। 

तरबूज की कटाई 

तरबूज की फसल को पककर तैयार होने में आम तौर पर तकरीबन 90 से 100 दिन का समय लग जाता है। लेकिन, फसल की कटाई का समय बोई गई किस्म के आधार पर तय होता है।

कटाई के बाद 

तरबूज की कटाई के बाद किसान इसको आसानी से मंडियों में अच्छी खासी कीमत पर बेचकर काफी शानदार आय अर्जित कर सकते हैं। 

तरबूज की खेती करने से स्वास्थ्य लाभ तो होता ही है। लेकिन, किसानों की आर्थिक स्थिति भी काफी मजबूत होती है।  

निष्कर्ष -

गर्मियों में तरबूज की बाजार में अच्छी-खासी मांग होने की वजह से इसकी कीमत भी अच्छी मिलती है। इसलिए किसान जायद में तरबूज की खेती से अच्छी आमदनी कमा सकते हैं।  

अशोक का पेड़ कैसा और कितने प्रकार का होता है ?
अशोक का पेड़ कैसा और कितने प्रकार का होता है ?

भारत एक कृषि समृद्ध देश होने की वजह से कई औषधीय पेड़ों का भी उत्पादन करता है, जो कि हमारे जीवन में अहम भूमिका निभाते हैं। 

ये ना सिर्फ पर्यावरण को शुद्ध रखने में सहयोगी हैं, बल्कि हमारे स्वास्थ्य की देखभाल करने में भी काफी अहम भूमिका निभाते हैं। इसकी मुख्य वजह इन पेड़ों में पाए जाने वाले पौष्टिक तत्व होते हैं। 

ऐसा ही एक पेड़ अशोक का पेड़ है, जो अपने पौष्टिक तत्वों की वजह से कई बीमारियों का इलाज करने की क्षमता रखता है। ट्रैक्टरचॉइस के इस लेख में आज हम अशोक के पेड़ से जुड़ी जरूरी बातों पर चर्चा करेंगे। 

अशोक का पेड़ किसे कहते हैं ?

जानकारी के लिए बतादें, कि औषधीय लाभों से परिपूर्ण अशोक का पेड़ 25 से 30 फिट तक ऊंचा होता है। इसका तना भूरे रंग का होता है और पत्तियां 9 इंच लम्बी गोल व नोंकदार होती हैं। 

इस पेड़ का वैज्ञानिक नाम सरका इंडिका है जो लेगुमिनोसे परिवार और कोसलपिनिया उपपरिवार का हिस्सा है। यह पेड़ पूरे भारत में पाया जाता है। 

अशोक का पौराणिक महत्व 

हिन्दू धर्म के अनुसार भी इस पेड़ का बहुत महत्व है। इसके पीछे की वजह इसका नाम है, दरअसल, अशोक शब्द का संस्कृत संस्कृत में 'अशोक' शब्द का अर्थ है 'कोई शोक नहीं' से इसे शोक को हरने वाला पेड़ माना जाता है। 

लोगों का मानना है कि यह पेड़ जिस जगह पर भी उगता है, वहाँ पर सभी कार्य पूर्णतः निर्बाध रूप से सम्पन्न होते चले जाते हैं।

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अशोक के पेड़ के प्रकार

अशोक के पेड़ निम्नलिखित दो प्रकार के होते हैं:-

पहला घरों की सजावट में उपयोग होने वाला और दूसरा आयुर्वेदिक दवाइयों में इस्तेमाल किया जाता है।

असली अशोक का पेड़ 

असली अशोक के वृक्ष को लैटिन भाषा में 'जोनेसिया अशोका' कहते हैं। आम के पेड़ की तरह ही इसका पेड़ भी छायादार होता है। 

असली अशोक के पेड़ की पत्तियों की लम्बाई 8 से 9 इंच होती है, जबकि इसकी चौड़ाई दो से ढाई इंच होती है। इसके पत्तों का रंग शुरुआत में ताम्बे की तरह होता है, इसलिए इसे ताम्रपल्लव भी कहा जाता है। 

वसंत ऋतु में इसमें नारंगी रंग के फूल होते हैं, जो बाद में सुनहरे लाल रंग के हो जाते हैं, इसी वजह से इन्हे हेमपुष्पा नाम से भी जाना जाता है।

नकली अशोक का पेड़ 

नकली अशोक के पेड़ और असली अशोक के पेड़ में कई अंतर हैं। इसके पत्ते आम के पत्तों की तरह होते हैं। इसके फूल सफ़ेद, पीले रंग के और फल लाल रंग के होते हैं। यह देवदार जाति का पेड़ होता है। हालांकि इस पेड़ में औषधीय गुण नहीं पाए जाते हैं।

अशोक के पेड़ में कौन-से पौषण तत्व ?

अशोक के पेड़ में विभिन्न प्रकार के पौष्टिक तत्व विघमान होते हैं, जो हमारी विभिन्न रोगों से सुरक्षा करने में मददगार होते हैं। अशोक के पेड़ में भरपूर मात्रा में टैनिन, फ्लेवोनोइड्स और ग्लाइकोसाइड्स पाए जाते हैं, जो पूरी तरह से गर्भाशय टॉनिक के रूप में कार्य करते हैं। 

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अशोक का पेड़ कौन-से रोगों से बचाव करता है ?  

अशोक के पेड़ की जड़ें और बीज मुँहासे, सोरायसिस और जिल्द की सूजन सहित त्वचा की स्थिति का इलाज करते हैं। इसमें कार्बन और आयरन के कार्बोनिक यौगिक भी होते हैं जबकि पेड़ की छाल में केटोस्टेरॉल होता है।


प्रश्न: अशोक के पेड़ में मुख्य रूप से कौन-से पोषक तत्व पाए जाते हैं ?

उत्तर: अशोक के पेड़ में मुख्य रूप से टैनिन, फ्लेवोनोइड्स और ग्लाइकोसाइड्स पाए जाते हैं। 

प्रश्न: असली अशोक के वृक्ष को लैटिन भाषा में क्या कहते हैं ?

उत्तर: असली अशोक के वृक्ष को लैटिन भाषा में 'जोनेसिया अशोका' कहते हैं।

प्रश्न: अशोक के पेड़ को दूसरे किस नाम से जाना जाता है ?

उत्तर: अशोक के पेड़ को हेमपुष्पा नाम से भी जाना जाता है।  

2 अब देश ही नहीं दुनिया चखेगी बिहार के मर्चा चावल का स्वाद
2 अब देश ही नहीं दुनिया चखेगी बिहार के मर्चा चावल का स्वाद

बिहार की धरती एक बार फिर अपनी अनोखी खुशबू से देश-दुनिया का ध्यान अपनी तरफ खींच रही है। विशेषतौर पर मर्चा चावल जो कि बिहार के किसानों के द्वारा उगाया जा रहा है।

बतादें, कि इस चावल की महक ना सिर्फ भोजन को लज्जतदार बनाती है, बल्कि अब यह वैश्विक बाजार में अपनी अलग पहचान भी बना रही है। 

'विकसित कृषि संकल्प अभियान' के अंतर्गत पूर्वी चंपारण के पीपराकोठी में जब केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने किसानों से संवाद किया, तो कई अहम जानकारियाँ सामने आईं। 

किसानों ने बताया कि इस खास चावल का वर्तमान में प्रति हेक्टेयर उत्पादन 25 से 30 क्विंटल है, जबकि अन्य आम धान की किस्में 40 से 50 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उत्पादन देती हैं। 

देश-विदेश में इस मर्चा चावल को खरीदने के लिए किसानों के पास फोन आते हैं। आइए जाने कि केंद्रीय कृषि मंत्री ने किसानों से मर्चा चावल को लेकर क्या आश्वासन दिया। 

बिहार मर्चा चावल को लेकर कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान का एक्स पर पोस्ट  

बिहार का मर्चा चावल दुनियाभर में अपनी सुगंध बिखेर रहा है। 'विकसित कृषि संकल्प अभियान' के अंतर्गत जब पूर्वी चंपारण के पीपराकोठी में किसानों से चर्चा की तो उन्होंने बताया कि अभी मर्चा चावल का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 25 से 30 क्विंटल है।

किसानों की मांग है कि इसका बेहतर बीज तैयार हो जिससे उत्पादन और आमदनी बढ़ सके। मैंने तत्काल ICAR के वैज्ञानिकों को इस दिशा में शोध हेतु निर्देशित किया है। 

किसानों के बीच वैज्ञानिकों के पहुंचने का उद्देश्य यही है कि उनकी जरूरतों के अनुरूप शोध हो।

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किसानों की मांग – बेहतर बीज, ज़्यादा आमदनी

किसानों ने साफ कहा कि अगर मर्चा चावल का बेहतर बीज (ब्रीडर सीड) तैयार हो जाए, तो न केवल उत्पादन बढ़ेगा, बल्कि उनकी आमदनी में भी इज़ाफा होगा। 

इसकी मांग को गंभीरता से लेते हुए केंद्रीय कृषि मंत्री ने ICAR (भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद) को निर्देशित किया है कि इस दिशा में तत्काल अनुसंधान शुरू किया जाए। 

बिहार के मर्चा चावल को लेकर किसानों ने क्या कहा है ? 

बिहार के किसानों ने मर्चा चावल की सबसे बड़ी खासियत के बारे में बताते हुए इसकी तेज और प्राकृतिक सुगंध की जानकारी दी। यह पकते ही पूरे घर को महका देती है। 

इस चावल की इन्हीं खासियतों के चलते सरकार के द्वारा बिहार के इस मर्चा चावल को जीआई टैग भी दिया गया है। स्थानीय किसान आनंद कुमार ने बताया, "हमारे दादा-बाबा से लेकर अब तक हम इसी चावल की खेती कर रहे हैं. विदेशों तक से फोन आते हैं कि मर्चा चावल अमेरिका ले जाना है।"


प्रश्न : मर्चा चावल मूल रूप से किस राज्य की किस्म है ?

उत्तर : मर्चा चावल बिहार की उन्नत और सुगंधित चावल की किस्म है। 

प्रश्न : क्या मर्चा चावल को जीआई टैग मिल चुका है ?

उत्तर : बिहार के मर्चा चावल की खूबियों के चलते सरकार ने इसको जीआई टैग भी प्रदान कर दिया है। 

प्रश्न : मर्चा चावल की सबसे बड़ी खूबी क्या है ?

उत्तर : मर्चा चावल की सबसे बड़ी खूबी इसकी सुगंध और स्वाद है।