किसान साथियों, आज हम आपको अपने इस लेख में एक फल के बारे में जानकारी देंगे जो कि भारत के करीब हर व्यक्ति के भोजन की थाली में सलाद के रूप में परोसा जाता है। दरअसल, हम बात कर रहे हैं भारत के अंदर बड़े पैमाने पर उगाए और उपभोग किए जाने वाले खीरा की।
अगर हम खीरा के वानस्पतिक नाम की बात करें तो इसका वानस्पतिक नाम कुकुमिस स्टीव्स है। एक तरह से खीरा हर भारतीय रसोई की शान है।
खीरा का सेवन करने से कई सारे स्वास्थ्य लाभ भी होते हैं। खीरे के अंदर 96% पानी की मात्रा पाई जाती है, जो गर्मी के मौसम में सेहत के लिए लाभकारी सिद्ध होता है।
खीरे की खेती कई तरह की मिट्टी में की जा सकती है।
- खीरे की फसल जैविक तत्वों से युक्त और समुचित जल निकास वाली दोमट मिट्टी में अच्छी उपज देती है। खीरे की खेती के लिए मिट्टी का pH 6-7 होना चाहिए।
-खीरे की खेती के लिए, अच्छी तरह से तैयार और खरपतवार रहित खेत की आवश्यकता होती है।
-बिजाई से पहले मिट्टी को अच्छी तरह से भुरभुरा बनाने के लिए 3-4 बार खेत की गहरी जोताई करें।
-गाय के गोबर को मिट्टी में मिलादें इससे खेत की उपजाऊ शक्ति में वृद्धि होगी।
-खीरे की खेती के लिए 2.5 मीटर चौड़े और 60 सैं.मी. की दूरी पर नर्सरी बैड तैयार करलें।
-यह किस्म केवल ग्रीनहाउस के लिए अनुकूल है।
-पंजाब खीरा किस्म का पौधा शीघ्रता से बढ़ने वाला होता है।
-यह प्रति नोड 1-2 फल पैदा करता है और फूल पार्थेनोकार्पिक होते हैं।
- खीरा के फल गहरे हरे, बीज रहित, स्वाद कम कड़वा, मध्यम आकार (125 ग्राम), 13-15 सेंटीमीटर लंबे होते हैं।
- इस किस्म के खीरा को छीलने की जरूरत ही नहीं पड़ती है।
- इस किस्म के फल की तुड़ाई सितंबर और जनवरी महीने में होती है।
- खीरा की इस किस्म को तुड़ाई के लिए तैयार होने में 45-60 दिनों का समय लग सकता है।
-सितंबर महीने में बोयी फसल की औसतन पैदावार 304 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
-जनवरी महीने में बोयी फसल की उपज 370 क्विंटल प्रति एकड़ तक होती है।
ये भी पढ़ें: ग्वार की खेती कैसे करें? जानिए पूरी प्रक्रिया
-पंजाब नवीन किस्म की सतह खुरदरी और पत्तियां गहरे हरे रंग की होती हैं।
- पंजाब नवीन किस्म का खीरा पकने पर फल नर्म सतह के साथ बेलनाकार और फीके हरे रंग का हो जाता है।
-पंजाब नवीन किस्म का फल कुरकुरा, कड़वेपन रहित और बीज रहित होता है।
-पंजाब नवीन किस्म में विटामिन सी की उच्च मात्रा पायी जाती है और सूखे पदार्थ की मात्रा ज्यादा होती है।
-पंजाब नवीन किस्म 68 दिनों में पककर तैयार हो जाती है।
-पंजाब नवीन फल स्वादिष्ट, रंग और रूप आकर्षित, आकार और बनावट बढिया होती है।
-पंजाब नवीन किस्म से औसतन उपज 70 क्विंटल प्रति एकड़ तक मिल जाती है।
-खीरा की पूसा उदय किस्म भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आई.ऐ.आर.आई) के द्वारा विकसित की गई है।
-पूसा उदय किस्म के फलों की लंबाई 15 सैं.मी. और रंग फीका हरा होता है।
-एक एकड़ जमीन में 1.45 किलोग्राम बीजों का इस्तेमाल करें।
-पूसा उदय किस्म 50-55 दिनों में पककर तैयार हो जाती है।
-पूसा उदय किस्म की औसतन उपज 65 क्विंटल प्रति एकड़ तक होती है।
-पूसा बरखा किस्म खरीफ के मौसम के लिए तैयार की गई है।
-पूसा बरखा किस्म उच्च मात्रा वाली नमी, तापमान और पत्तों के धब्बे रोग के लिए प्रतिरोधी है।
-पूसा बरखा किस्म की औसतन उपज 78 क्विंटल प्रति एकड़ तक होती है।
-खीरा की बिजाई का सबसे सही समय फरवरी से मार्च का महीना होता है।
-खीरा की बिजाई के लिए 2.5 मीटर चौड़े बैड पर हर जगह दो बीज बोयें।
अर्जुन की खेती आयुर्वेदिक और होम्योपैथी दोनों ही नजरिए से काफी महत्वपूर्ण मानी जाती है। अर्जुन का पेड़ खास तौर पर नदियों के किनारे ज्यादा पाया जाता है।
अर्जुन की छाल का उपयोग कई सारी स्वास्थ्य समस्याओं को दूर करने के लिए किया जाता है। अर्जुन एक ओषधीय वृक्ष है।
अर्जुन को कई तरह की मिट्टी में आसानी से उगाया जा सकता है। परंतु, अर्जुन की खेती के लिए दोमट मिट्टी सबसे अच्छी होती है।
अगर हम मिट्टी के pH स्तर की बात करें तो वह करीब 6.5 से 7.5 के बीच होना चाहिए। अर्जुन की गहरी जड़ें होती हैं, इस वजह से बेहतर जल निकासी वाली मिट्टी इसके बेहतर विकास के लिए फायदेमंद होता है।
ये भी पढ़ें: हरी सब्जियों के सेवन से होने वाले फायदे और नुकसान
अर्जुन की खेती के लिए उपोष्णकटिबंधीय और उष्णकटिबंधीय जलवायु अत्यधिक अनुकूल मानी जाती है। यह पेड़ 10°C से 45°C तक का तापमान सहन कर सकता है और 800-1200 मिमी वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में अच्छी वृद्धि करता है।
अर्जुन की खेती करने के लिए खेत की गहरी जुताई करके मिट्टी को भुरभुरी करने से पौधों की जड़ों को फैलने में आसानी होगी।
खेत की अंतिम जुताई के बाद मृदा में पोषक तत्वों की आपूर्ति के लिए सड़ी हुई गोबर की खाद डालनी चाहिए। इसके बाद, खेत में पाटा लगाकर खेत को एकसार करलें।
अर्जुन के बीज से रोपाई के लिए इसके बीजों को पानी में भिगोकर नर्सरी में बोएं। पौधों को नर्सरी में तैयार होने के बाद खेत में रोपें। अर्जुन के बीज की सीधे बिजाई के लिए कलम विधि सबसे सबसे अच्छी होती है।
मानसून का मौसम अर्जुन के पौधों की रोपाई के लिए सबसे अच्छा माना जाता है। अर्जुन की रोपाई करते वक्त पौधों के बीच 5×5 मीटर का फासला होना चाहिए। एक हेक्टेयर खेत में करीब 400-450 पौधे लगाए जा सकते हैं।
ये भी पढ़ें: एलोवेरा से होने वाले फायदे और नुकसान
अर्जुन की खेती में प्रारम्भ के कुछ महीनों तक प्रतिदिन सिंचाई की जरूरत होती है। लेकिन, कुछ माह बाद अर्जुन का पेड़ सूखा भी सहन कर लेता है।
अर्जुन के पेड़ में जरूरत के हिसाब से समय-समय पर कृषि विशेषज्ञों की सलाहनुसार खाद का उपयोग करें।
अर्जुन की खेती के दौरान खरपतवारों को हटाने के लिए समय-समय पर निराई-गुड़ाई करें।
अर्जुन के पेड़ का बेहतर विकास करने के लिए आपको इसकी नियमित रूप से छंटाई करनी चाहिए।
अर्जुन की छाल का सेवन करने से हृदय संबंधित रोगों से लाभ मिलता है। इस बात को अगर हम वैज्ञानिक रूप से समझें तो अर्जुन की छाल में
फाइटोकेमिकल्स, खासतौर पर टैनिन होता है, जो कार्डियोप्रोटेक्टिव प्रभाव दिखाता है। यह धमनियों को चौड़ा कर रक्तचाप को कंट्रोल करता है और कोलेस्ट्रॉल को कम करने में सहयोगी होता है। इस प्रकार से यह हृदय स्वास्थ्य के लिए बेहद लाभकारी है।
ये भी पढ़ें: घर में ऑरिगेनो की खेती
अर्जुन की छाल का इस्तेमाल आयुर्वेद में दस्त और पेचिश जैसी पाचन संबंधी दिक्कतों से निजात मिलेगी। यह पाचन तंत्र की सूजन को भी कम करने में सहयोगी है।
अर्जुन का उपयोग करने से डायबिटीज, सूजन, हृदय रोग और गठिया आदि कई बीमारियों को दूर करने में सहयोगी है। साथ ही, अर्जुन जोड़ों की समस्या को भी दूर करने में मददगार है।
अर्जुन की छाल 10-10 मिलीग्राम सुबह और शाम में आप इस्तेमाल कर सकते हैं। अर्जुन की छाल का इस्तेमाल चाय या फिर दूध के साथ कर सकते हैं। अगर आप ऐसे नहीं लेते हैं, तो आप इसका पाउडर बनाकर रखलें और फिर गर्म पानी के साथ इसको लें।
अर्जुन की छाल का सेवन करने से विभिन्न प्रकार के स्वास्थ्य संबंधी फायदे होते हैं। अर्जुन की इन्ही खूबियों की वजह से बाजार में इसकी निरंतर मांग बढ़ रही है। इसलिए इसकी खेती करना स्वास्थ्य और आय दोनों के लिए लाभकारी है।
भारत एक कृषि प्रधान देश है और यहां खेती किसानी में अपनी अलग पहचान बनाने वाले कई किसान हैं।
लेकिन, आज हम आपको दो ऐसे किसानों के बारे में बताएंगे, जिन्होंने अपनी मेहनत के बल पर पद्म पुरस्कार 2025 के विजेताओं की सूची में अपना नाम दर्ज कराया है।
जी हाँ, हम बात कर रहे हैं पद्म पुरस्कार विजेता "नोकलाक के फल मसीहा" एल हैंगथिंग और "सेब सम्राट" हरिमन शर्मा के बारे में हैं, जिनका नाम पद्मश्री विजेताओं की सूची में शामिल हुआ है।
भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मानों में से एक पद्म पुरस्कार मुख्यतः पद्म विभूषण, पद्म भूषण और पद्मश्री तीन रूप में दिया जाता है।
पद्म पुरस्कार सामाजिक कार्य, सार्वजनिक मामले, विज्ञान, कला, इंजीनियरिंग, व्यापार, उद्योग, साहित्य, शिक्षा, खेल, सिविल सेवा और चिकित्सा जैसे क्षेत्रों में उत्तम कार्य के लिए दिया जाता है।
ये भी पढ़ें: सूरजमुखी की खेती से जुड़ी सम्पूर्ण जानकारी
किसान साथियों, ग्वार की सब्जी का सेवन भारतभर के अंदर बड़े पैमाने पर किया जाता है। ग्वार का स्वाद और इसके अंदर मौजूद पोषक तत्व इसको काफी लोकप्रिय सब्जी बनाते हैं।
आपने कभी ना कभी ग्वार की सब्जी का सेवन जरूर किया होगा। क्योंकि ग्वार की फसल का उत्पादन और सेवन हजारों साल से चला आ रहा है।
ग्वार के अंदर सूखा से लड़ने की भी क्षमता होती है। इसलिए इसका उत्पादन सिंचित और असिंचित दोनों इलाकों में किया जाता है।
ग्वार का उत्पादन ऐसे इलाकों में भी होता है, जहां सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था नहीं है। ग्वार का इस्तेमाल कई तरीके से किया जाता है। जैसे - सब्जी, हरा चारा, हरी खाद और हरी फलियों का सब्जी के रूप में उपयोग किया जाता है।
ये भी पढ़ें: लुंगडू की सब्जी से होने वाले विभिन्न स्वास्थ्य लाभ और आर्थिक मुनाफा
ग्वार की सुपर एक्स -7 किस्म
ये भी पढ़ें: ड्रैगन फ्रूट की बुवाई, भूमि, किस्में, लागत और मुनाफा से संबंधित विस्तृत जानकारी
ये भी पढ़ें: बासमती धान की सीधी बुवाई और उन्नत किस्मों से संबंधित आवश्यक जानकारी के बारे में जाने
ग्वार की बुवाई से पहले बीज को कार्बेन्डाजिम + केप्टान (1+2) 3 ग्राम दवा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए।
फसल मे फूल आने और फलियाँ बनने के दौरान वर्षा ना होने पर सिंचाई करने से पैदावार में बढ़ोतरी की जा सकती हैं।
ग्वार की फसल जल जमाव वाले खेत में नहीं उगाई जा सकती है। इसलिए खेत में समुचित जल निकास की व्यवस्था होनी चाहिए।
ग्वार की फसल को नुकसान पहुँचाने वाले मुख्य हानिकारक कीटों में एफिड, लीफ हॉपर, सफेद मक्खी, पत्ती छेदक और फली छेदक शामिल है।
ग्वार की सब्जी बनाने के उद्देश्य से लम्बी, मुलायम और अधपकी फलियाँ तोड़ी जाती हैं।
चारा फसल को फूल आने और 50% प्रतिशत फली बनने की स्थिति में काट लेना ही चाहिए।
ग्वार की कटाई के बाद आप फसल को मंडियों में बेचकर अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं।
ग्वार का वर्तमान में भाव 4,800 रुपये से 5,100 रुपए के आसपास है।
ग्वार का उत्पादन कई उद्देश्यों के लिए होने की वजह से इसकी निरंतर मांग और कीमत भी अच्छी मिलती है। ग्वार का उत्पादन करना बड़े लाभ का सौदा है।
तरबूज को प्रत्येक भारतवासी जानता है, क्योंकि गर्मियों के समय भारतभर में तरबूज के फल का सेवन किया जाता है। अगर हम तरबूज को गर्मी का बादशाह फल भी कहा जाए तो गलत नहीं होगा।
बहुत सारे चिकित्सक भी तरबूज का गर्मियों में सेवन करना सेहत के लिए फायदेमंद बताते हैं।
अपनी अनेकों खूबियों के साथ साथ इसका स्वाद मीठा और दिलचस्प होने की वजह से तरबूज लोगों के बीच बहुत ही लोकप्रिय और पसंदीदा फल है।
तरबूज कद्दूवर्गीय श्रेणी के अंतर्गत आने वाली फसल है। आप गर्मियों के दिनों में पोषक तत्वों से भरपूर तरबूज के फल से फ्रूट डिश, जूस और शरबत आदि बना सकते हैं।
ताजगी देने वाले इस तरबूज के फल में भरपूर पानी होने की वजह से गर्मियों में तरबूज खाने से धूप में भी शरीर हाइड्रेट और तरोताजा महसूस होता है। आइए जानते हैं, तरबूज के सेवन से कुछ प्रमुख फायदों के बारे में।
ये भी पढ़े: खुबानी की खेती से जुड़ी विस्तृत जानकारी
तरबूज की उन्नत खेती के लिए मध्यम काली, रेतीली दोमट मृदा सबसे अच्छी होती है। क्योंकि इसमें भरपूर मात्रा में कार्बनिक पदार्थ और उचित जल क्षमता होती है। तरबूज की खेती के लिए गर्म जलवायु की आवश्यकता होती है।
तरबूज की खेती के लिए जमीन तैयार करने के लिए खेत की 2-3 बार जोताई कर लेनी चाहिए।
भूमि की तैयारी के बाद 60 सें.मी. चौड़ाई और 15-20 सें.मी. ऊंचाई वाली क्यारियां (रेज्ड बेड) बनाई जाती हैं। आप खेत की क्यारियों में 6 फीट का अंतर रख सकते हैं।
तरबूज की प्रमुख उन्नत किस्में निम्नलिखित हैं
पूसा बेदाना किस्म को भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान नई दिल्ली द्वारा तैयार की गई है।
इस किस्म की सबसे बड़ी खासियत यह है, कि इसके फलों में बीज नहीं पाए जाते हैं। पूसा बेदाना किस्म के फल ज्यादा मीठे होते हैं। पूसा बेदाना को तैयार होने में 85 से 90 दिन लग जाते हैं।
ये भी पढ़े: अमरूद की खेती को लाभकारी बनाने में मददगार जानकारी
डब्ल्यू 19 किस्म ज्यादा गर्मी को भी झेल सकती है। तरबूज की खेती शुष्क इलाकों में भी की जा सकती है।
इसके फलों पर हल्के हरे रंग की धारियां बन जाती हैं एवं इसका गुदा गहरे गुलाबी रंग का एवं खोज होता है। तरबूज के फल बेहतरीन गुणवत्ता से युक्त और मीठे होते हैं। डब्ल्यू 19 किस्म को तैयार होने में 75 से 80 दिन लग जाते हैं।
काशी पितांबर किस्म के छिलके पीले रंग के और अंदर का रंग गुलाबी होता है। काशी पितांबर किस्म के तरबूज का औसतन वजन 2.5 से 3.5 किलोग्राम तक होता है। इस किस्म से करीब 160 से 180 क्विंटल प्रति एकड़ फल हांसिल हो जाते हैं।
अलका आकाश एक संकर किस्म है। इसका फल अंडाकार और अंदर से गुलाबी होता है। तरबूज उत्पादक किसान प्रति एकड़ जमीन से 36 से 40 टन फल हांसिल कर सकते हैं।
दुर्गापुर मीठा किस्म के फलों पर धारियां होती है। यह खाने में बहुत ही ज्यादा स्वादिष्ट लगते हैं।
इस किस्म के एक तरबूज फल का वजन 6 से 8 किलोग्राम तक होता है। तरबूज की अन्य किस्में भी हैं ,जैसे शुगर बेबी, अर्का मानिक और अर्का ज्योति इत्यादि।
ये भी पढ़े: कीवी का सेवन करने से मिलने वाले अद्भुत लाभ जानकर आपको आश्चर्य होगा
तरबूज की बेहतरीन किस्मों के लिए 2.5-3 कि.ग्रा. और संकर किस्मों के लिए 750-875 ग्राम प्रति हेक्टेयर बीज की मात्रा से बिजाई करनी चाहिए।
तरबूज की बुवाई के पहले बीज को कार्बेन्डाजिम फफूंदनाशक 1 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल में लगभग तीन घंटे तक डुबोकर उपचारित कर सकते हैं।
बीज उपचार के बाद बीजों को जूट बैग में 12 घंटे तक छाया में रखने के बाद खेत में बिजाई कर सकते हैं।
तरबूज की बिजाई के बाद एक हफ्ते तक मिट्टी और जलवायु के अनुरूप सिंचाई करें। तरबूज की फसल को पर्याप्त मात्रा में पानी नहीं मिलने पर नुकसान होता है।
हालांकि, शुरुआत में पानी की खास जरूरत नहीं पड़ती है। लेकिन, तरबूज के विकास के समय पानी की बहुत जरूरत होती है। इसलिए आम तौर पर तरबूज की सिंचाई 5-6 दिन के बाद की जाती है।
तरबूज की फसल को पककर तैयार होने में आम तौर पर तकरीबन 90 से 100 दिन का समय लग जाता है। लेकिन, फसल की कटाई का समय बोई गई किस्म के आधार पर तय होता है।
तरबूज की कटाई के बाद किसान इसको आसानी से मंडियों में अच्छी खासी कीमत पर बेचकर काफी शानदार आय अर्जित कर सकते हैं।
तरबूज की खेती करने से स्वास्थ्य लाभ तो होता ही है। लेकिन, किसानों की आर्थिक स्थिति भी काफी मजबूत होती है।
गर्मियों में तरबूज की बाजार में अच्छी-खासी मांग होने की वजह से इसकी कीमत भी अच्छी मिलती है। इसलिए किसान जायद में तरबूज की खेती से अच्छी आमदनी कमा सकते हैं।
भारत एक कृषि समृद्ध देश होने की वजह से कई औषधीय पेड़ों का भी उत्पादन करता है, जो कि हमारे जीवन में अहम भूमिका निभाते हैं।
ये ना सिर्फ पर्यावरण को शुद्ध रखने में सहयोगी हैं, बल्कि हमारे स्वास्थ्य की देखभाल करने में भी काफी अहम भूमिका निभाते हैं। इसकी मुख्य वजह इन पेड़ों में पाए जाने वाले पौष्टिक तत्व होते हैं।
ऐसा ही एक पेड़ अशोक का पेड़ है, जो अपने पौष्टिक तत्वों की वजह से कई बीमारियों का इलाज करने की क्षमता रखता है। ट्रैक्टरचॉइस के इस लेख में आज हम अशोक के पेड़ से जुड़ी जरूरी बातों पर चर्चा करेंगे।
जानकारी के लिए बतादें, कि औषधीय लाभों से परिपूर्ण अशोक का पेड़ 25 से 30 फिट तक ऊंचा होता है। इसका तना भूरे रंग का होता है और पत्तियां 9 इंच लम्बी गोल व नोंकदार होती हैं।
इस पेड़ का वैज्ञानिक नाम सरका इंडिका है जो लेगुमिनोसे परिवार और कोसलपिनिया उपपरिवार का हिस्सा है। यह पेड़ पूरे भारत में पाया जाता है।
हिन्दू धर्म के अनुसार भी इस पेड़ का बहुत महत्व है। इसके पीछे की वजह इसका नाम है, दरअसल, अशोक शब्द का संस्कृत संस्कृत में 'अशोक' शब्द का अर्थ है 'कोई शोक नहीं' से इसे शोक को हरने वाला पेड़ माना जाता है।
लोगों का मानना है कि यह पेड़ जिस जगह पर भी उगता है, वहाँ पर सभी कार्य पूर्णतः निर्बाध रूप से सम्पन्न होते चले जाते हैं।
ये भी पढ़े: बबूल: औषधीय गुण, फायदे और खेती की जानकारी
पहला घरों की सजावट में उपयोग होने वाला और दूसरा आयुर्वेदिक दवाइयों में इस्तेमाल किया जाता है।
असली अशोक के वृक्ष को लैटिन भाषा में 'जोनेसिया अशोका' कहते हैं। आम के पेड़ की तरह ही इसका पेड़ भी छायादार होता है।
असली अशोक के पेड़ की पत्तियों की लम्बाई 8 से 9 इंच होती है, जबकि इसकी चौड़ाई दो से ढाई इंच होती है। इसके पत्तों का रंग शुरुआत में ताम्बे की तरह होता है, इसलिए इसे ताम्रपल्लव भी कहा जाता है।
वसंत ऋतु में इसमें नारंगी रंग के फूल होते हैं, जो बाद में सुनहरे लाल रंग के हो जाते हैं, इसी वजह से इन्हे हेमपुष्पा नाम से भी जाना जाता है।
नकली अशोक के पेड़ और असली अशोक के पेड़ में कई अंतर हैं। इसके पत्ते आम के पत्तों की तरह होते हैं। इसके फूल सफ़ेद, पीले रंग के और फल लाल रंग के होते हैं। यह देवदार जाति का पेड़ होता है। हालांकि इस पेड़ में औषधीय गुण नहीं पाए जाते हैं।
अशोक के पेड़ में विभिन्न प्रकार के पौष्टिक तत्व विघमान होते हैं, जो हमारी विभिन्न रोगों से सुरक्षा करने में मददगार होते हैं। अशोक के पेड़ में भरपूर मात्रा में टैनिन, फ्लेवोनोइड्स और ग्लाइकोसाइड्स पाए जाते हैं, जो पूरी तरह से गर्भाशय टॉनिक के रूप में कार्य करते हैं।
ये भी पढ़े: Ashwagandha Farming: अश्वगंधा की खेती करके आप भी कर सकते है मोटी कमाई, जानिए क्या है तरीका?
अशोक के पेड़ की जड़ें और बीज मुँहासे, सोरायसिस और जिल्द की सूजन सहित त्वचा की स्थिति का इलाज करते हैं। इसमें कार्बन और आयरन के कार्बोनिक यौगिक भी होते हैं जबकि पेड़ की छाल में केटोस्टेरॉल होता है।
प्रश्न: अशोक के पेड़ में मुख्य रूप से कौन-से पोषक तत्व पाए जाते हैं ?
उत्तर: अशोक के पेड़ में मुख्य रूप से टैनिन, फ्लेवोनोइड्स और ग्लाइकोसाइड्स पाए जाते हैं।
प्रश्न: असली अशोक के वृक्ष को लैटिन भाषा में क्या कहते हैं ?
उत्तर: असली अशोक के वृक्ष को लैटिन भाषा में 'जोनेसिया अशोका' कहते हैं।
प्रश्न: अशोक के पेड़ को दूसरे किस नाम से जाना जाता है ?
उत्तर: अशोक के पेड़ को हेमपुष्पा नाम से भी जाना जाता है।
बिहार की धरती एक बार फिर अपनी अनोखी खुशबू से देश-दुनिया का ध्यान अपनी तरफ खींच रही है। विशेषतौर पर मर्चा चावल जो कि बिहार के किसानों के द्वारा उगाया जा रहा है।
बतादें, कि इस चावल की महक ना सिर्फ भोजन को लज्जतदार बनाती है, बल्कि अब यह वैश्विक बाजार में अपनी अलग पहचान भी बना रही है।
'विकसित कृषि संकल्प अभियान' के अंतर्गत पूर्वी चंपारण के पीपराकोठी में जब केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने किसानों से संवाद किया, तो कई अहम जानकारियाँ सामने आईं।
किसानों ने बताया कि इस खास चावल का वर्तमान में प्रति हेक्टेयर उत्पादन 25 से 30 क्विंटल है, जबकि अन्य आम धान की किस्में 40 से 50 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उत्पादन देती हैं।
देश-विदेश में इस मर्चा चावल को खरीदने के लिए किसानों के पास फोन आते हैं। आइए जाने कि केंद्रीय कृषि मंत्री ने किसानों से मर्चा चावल को लेकर क्या आश्वासन दिया।
बिहार का मर्चा चावल दुनियाभर में अपनी सुगंध बिखेर रहा है। 'विकसित कृषि संकल्प अभियान' के अंतर्गत जब पूर्वी चंपारण के पीपराकोठी में किसानों से चर्चा की तो उन्होंने बताया कि अभी मर्चा चावल का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 25 से 30 क्विंटल है।
किसानों की मांग है कि इसका बेहतर बीज तैयार हो जिससे उत्पादन और आमदनी बढ़ सके। मैंने तत्काल ICAR के वैज्ञानिकों को इस दिशा में शोध हेतु निर्देशित किया है।
किसानों के बीच वैज्ञानिकों के पहुंचने का उद्देश्य यही है कि उनकी जरूरतों के अनुरूप शोध हो।
ये भी पढ़ें: ICAR द्वारा विकसित नई जीनोम किस्मों की महत्वपूर्ण जानकारी
किसानों ने साफ कहा कि अगर मर्चा चावल का बेहतर बीज (ब्रीडर सीड) तैयार हो जाए, तो न केवल उत्पादन बढ़ेगा, बल्कि उनकी आमदनी में भी इज़ाफा होगा।
इसकी मांग को गंभीरता से लेते हुए केंद्रीय कृषि मंत्री ने ICAR (भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद) को निर्देशित किया है कि इस दिशा में तत्काल अनुसंधान शुरू किया जाए।
बिहार के किसानों ने मर्चा चावल की सबसे बड़ी खासियत के बारे में बताते हुए इसकी तेज और प्राकृतिक सुगंध की जानकारी दी। यह पकते ही पूरे घर को महका देती है।
इस चावल की इन्हीं खासियतों के चलते सरकार के द्वारा बिहार के इस मर्चा चावल को जीआई टैग भी दिया गया है। स्थानीय किसान आनंद कुमार ने बताया, "हमारे दादा-बाबा से लेकर अब तक हम इसी चावल की खेती कर रहे हैं. विदेशों तक से फोन आते हैं कि मर्चा चावल अमेरिका ले जाना है।"
प्रश्न : मर्चा चावल मूल रूप से किस राज्य की किस्म है ?
उत्तर : मर्चा चावल बिहार की उन्नत और सुगंधित चावल की किस्म है।
प्रश्न : क्या मर्चा चावल को जीआई टैग मिल चुका है ?
उत्तर : बिहार के मर्चा चावल की खूबियों के चलते सरकार ने इसको जीआई टैग भी प्रदान कर दिया है।
प्रश्न : मर्चा चावल की सबसे बड़ी खूबी क्या है ?
उत्तर : मर्चा चावल की सबसे बड़ी खूबी इसकी सुगंध और स्वाद है।
भारत भर के गांवों में किसानों को उन्नत खेती की जानकारी मुहैया कराई जा रही है। ये जानकारी कृषि वैज्ञानिकों द्वारा दी जा रही है और इसके लिए वैज्ञानिकों की टीम गांवो में पहुंचकर किसानों से सीधा संवाद कर रही है।
गौरतलब है कि बीते दिनों ही सरकार द्वारा विकसित कृषि संकल्प अभियान की शुरूआत की गई है। यह अभियान 12 जून तक चलेगा और इस दौरान 16 हजार वैज्ञानिकों की टीमें किसानों के पास पहुंचकर उन्नत खेती की जानकारी दे रही है।
उल्लेखनीय है, कि बीते दिनों केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने उड़ीसा के जगन्नाथ पुरी से राष्ट्रव्यापी विकसित कृषि संकल्प अभियान का शुभारंभ किया। इस अवसर पर केंद्रीय कृषि मंत्री ने सभी किसान भाई-बहनों से अभियान से जुड़ने की अपील की है।
12 जून तक चलने वाले इस अभियान में वैज्ञानिकों की टीमें गांव-गांव जाकर किसानों से सीधा संवाद करेंगे। 15 दिवसीय अभियान के दौरान कृषि मंत्री लगभग 20 राज्यों की यात्रा कर किसानों और वैज्ञानिकों के साथ संवाद में शामिल होकर उत्साह बढ़ायेंगे।
केंद्रीय कृषि मंत्री ने कहा कि इस अभियान के माध्यम से विभिन्न क्षेत्रों की आवश्यकता के अनुसार आगे के कृषि अनुसंधान का मार्ग तय किया जाएगा। कृषि मंत्री ने किसान भाइयों-बहनों से अपील करते हुए कहा कि 12 जून तक चलने वाले इस अभियान को सफल बनाने में कोई कसर मत छोड़ना।
उन्होंने किसानों से कहा कि वैज्ञानिक आपके गांव आ रहे हैं, आप समय निकालिए और उनके साथ बैठिए, खेती में नए प्रयोग सीखिए और उत्पादन बढ़ाइए। विकसित कृषि संकल्प अभियान का मतलब है की वैज्ञानिक लैब से निकलकर खेत में किसानों के बीच जाएं और गाँव में किसानों से साथ बैठे।
ये भी पढ़ें: हल्दी की जैविक खेती से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण जानकारी
16 हजार वैज्ञानिकों की 2170 टीमें बनाई गई हैं, जो गांव-गांव जाकर किसानों से संवाद कर रही है। इस अभियान के माध्यम से वैज्ञानिक देश के 700 जिलों के लगभग 1.5 करोड़ किसानों तक पहुंचेगी और उन्हें नई कृषि तकनीकों के अनुप्रयोग के बारे में जागरूक करेगी। हरेक टीम एक दिन में दो गांव में जाएगी।
15 दिनों तक अभियान के दौरान क्षेत्र की जलवायु, पानी मिट्टी के पोषक तत्वों व अन्य बातों को ध्यान में रखते हुए किसानों को सिखाया जाएगा कि उन्हें कौन सी फसल उगानी चाहिए ? कौन सी किस्म का उपयोग करना चाहिए ? उर्वरकों का उपयोग कैसे करना चाहिए ? आदि। साथ ही प्राकृतिक खेती और दलहन व तिलहन की खेती के बारे में किसानों से चर्चा की जाएगी।
प्रश्न : सरकार ने क्यों कृषि वैज्ञानिकों को किसानों के खेत पर जाने का निर्देश दिया है ?
उत्तर : किसानों को आधुनिक और तकनीकी कृषि संबंधित जानकारी देने के लिए सरकार ने यह निर्देश प्रदान किये हैं।
प्रश्न : सरकार ने कितने वैज्ञानिकों की टीम गठित की है ?
उत्तर : सरकार की तरफ से 16 हजार वैज्ञानिकों की 2170 टीमें बनाई गई हैं, जो गांव-गांव जाकर किसानों से संवाद कर रही है।
प्रश्न : वैज्ञानिक किसानों को क्या प्रशिक्षण प्रदान करेंगे ?
उत्तर : वैज्ञानिक किसानों को फसलों की किस्म, उर्वरक और प्राकृतिक खेती से जुड़ा प्रशिक्षण देंगे।
बारिश का मौसम किसानों और पशुपालकों के लिए विभिन्न प्रकार की चुनौतियां लेकर आता है। इस मौसम में न केवल फसल बल्कि पशुओं की सेहत पर भी खास ध्यान देना बेहद जरूरी होता है।
बारिश के कारण वातावरण में नमी बढ़ जाती है, जिससे बीमारियां फैलने का खतरा ज्यादा रहता है। ऐसे में अगर पशुओं की सही देखभाल न की जाए तो वे बीमार हो सकते हैं, जिससे किसान को आर्थिक नुकसान भी उठाना पड़ सकता है।
बारिश के मौसम में पशुशाला में पानी जमा न होने दें। किचड़ और गंदगी से बचाव करें क्योंकि कीचड़ में बैक्टीरिया पनपते हैं, जो पशुओं के पैरों और खुरों में संक्रमण पैदा करते हैं।
पशुशाला को समय-समय पर साफ करना चाहिए और यदि संभव हो तो उसे थोड़ा ऊंचा और ड्रेनेज वाला बनाएं ताकि पानी जमा न हो।
ये भी पढ़ें: भारत की टॉप 10 गाय की नस्लें
बरसात शुरू होने से पहले अपने पशुओं का टीकाकरण कराना बहुत जरूरी है। खासकर एफएमडी (फुट एंड माउथ डिजीज) जैसे संक्रामक रोगों से बचाव के लिए हर छह महीने में टीकाकरण अवश्य कराएं। इससे जानवर बीमारियों से सुरक्षित रहते हैं और उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है।
बारिश के मौसम में पशुओं के खुर और पैरों की बीमारियां काफी आम बात होती हैं। इन्हें बचाने के लिए एक प्रतिशत पोटैशियम परमैगनेट के घोल से खुर और पैर धोते रहें। यह घोल बैक्टीरिया को मारता है और संक्रमण से बचाव करता है।
पशुओं की जीभ पर बोरिक एसिड ग्लिसरीन का पेस्ट लगाना फायदेमंद होता है। यह घाव और जख्म को ठीक करने में मदद करता है और सूजन कम करता है। इस उपाय से पशुओं का मुंह स्वस्थ रहता है और वे आसानी से खाना खा पाते हैं।
ये भी पढ़ें: जानें गंगातीरी गाय की नस्ल के बारे में सम्पूर्ण जानकारी
बारिश के दौरान पशुओं को साफ और ताजा पानी पिलाएं। उनके खाने में पोषक तत्वों की कमी ना होने दें। हरी घास, चारे के साथ-साथ खुराक में विटामिन और मिनरल सप्लीमेंट भी दें, ताकि उनकी प्रतिरोधक क्षमता मजबूत रहे।
जानवरों को ज्यादा देर तक बारिश में गीला न रहने दें। गीली त्वचा और बालियों में संक्रमण हो सकता है, जिससे वह बीमार हो सकते हैं। पशुशाला में उन्हें सुखाने और गर्म रखने का पूरा इंतजाम करें।
प्रश्न : बारिश के मौसम में पशुओं को कौन-सी बीमारियां लगती हैं ?
उत्तर : बारिश के मौसम में सबसे ज्यादा खुर और मुंह की बीमारियां पशुओं में होती हैं। गाय, भैंस, भेड़ और बकरी में यह बीमारियां आम होती हैं।
प्रश्न : बारिश में पशुओं को बैक्टीरिया का खतरा क्यों रहता है ?
उत्तर : बारिश की नमी और कीचड़ में रहने की वजह से बैक्टीरिया और जीवाणुओं का प्रकोप बढ़ जाता है, जो जानवरों की सेहत को प्रभावित करता है।
प्रश्न : बारिश में पशुओं को कैसा चारा खिलाना चाहिए ?
उत्तर : बारिश के मौसम में पशुओं को सुपाच्य और संतुलित आहार प्रदान करना चाहिए। इसमें 60% फीसद हरा चारा और 40% फीसद सूखा चारा शम्मिलित होना चाहिए। साथ ही, दाना, नमक और खनिज मिश्रण भी खिलाना चाहिए।
जिमीकंद का सेवन करने से रोग प्रतिरोधक क्षमता काफी बढ़ती है और इससे कई अन्य स्वास्थ्य लाभ भी होते हैं। जिमीकंद को अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है।
जिमीकंद के अंदर काफी महत्वपूर्ण पोषक तत्व मौजूद होते हैं। जैसे - फाइबर, विटामिन सी, विटामिन बी6, विटामिन बी1, फोलिक एसिड, पोटैशियम, आयरन, मैग्नीशियम, कैल्शियम, फॉस्फोरस, एंटीऑक्सीडेंट, बीटा कैरोटीन, प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, जिंक, वसा और ऊर्जा आदि पोषक तत्व मौजूद होते हैं।
जिमीकंद का सेवन करने से विभिन्न प्रकार के स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होते हैं। जिमीकंद का सेवन करने से आप अपनी स्मृति शक्ति को अच्छा कर सकते हैं। साथ ही, जिमीकंद का सेवन करने से खून की भी कमी दूर हो जाती है।
ये भी पढ़ें: रुद्राक्ष या ब्लूबेरी बीड्स से जुड़ी कुछ खास जानकारी
जिमीकंद का समुचित मात्रा से अधिक सेवन करने से आपको बचना चाहिए। इसके साथ ही कुछ संवेदनशील लोगों को भी इसके सेवन से बचना चाहिए।
गर्भवती महिलाओं को इसका सेवन नहीं करना चाहिए। इसके साथ ही जिन लोगों को स्किन रिलेटेड प्रॉब्लम होती है, वे भी इसका सेवन करने से बचें। इसके सेवन से होने वाले नुकसान।
जिमीकंद का बहुत अत्यधिक मात्रा में सेवन करने से बचना चाहिए। अगर आपको त्वचा रोग है, तो बिना डॉक्टर की सलाह के इसका सेवन न करें।
गर्भवती होने और स्तनपान कराने पर भी इसका सेवन न करें। इसके साथ ही इसे बहुत थोड़ी मात्रा में ही खाएं और खाने से पहले एक बार डॉक्टर की सलाह जरूर लें।
प्रश्न : जिमीकंद का सेवन कितने प्रकार से किया जा सकता है ?
उत्तर : जिमीकंद का सब्जी, चटनी और स्नैक्स आदि के रूप में सेवन किया जा सकता है।
प्रश्न : जिमीकंद में कितने प्रकार के पोषक तत्व मौजूद होते हैं ?
उत्तर : जिमीकंद में फाइबर, विटामिन सी, विटामिन बी6, विटामिन बी1, फोलिक एसिड, पोटैशियम, आयरन, मैग्नीशियम, कैल्शियम, फॉस्फोरस, एंटीऑक्सीडेंट, बीटा कैरोटीन, प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, जिंक, वसा और ऊर्जा आदि पोषक तत्व मौजूद होते हैं।
प्रश्न : जिमीकंद का सेवन स्वास्थ्य के लिए अच्छा या बुरा होता है ?
उत्तर : संतुलित मात्रा में जिमीकंद का सेवन करना स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होते है। लेकिन, अधिक मात्रा में इसका सेवन स्वास्थ्य को काफी नुकसान भी पहुंचा सकता है।
ब्लूबेरी एक खट्टा-मीठा और नीले रंग का रसदार फल है। ब्लूबेरी को भारत में कई जगह नीलबदरी के नाम से भी जाना जाता है। ब्लूबेरी का सबसे ज्यादा उत्पादन एशिया, यूरोप, नॉर्थ अमेरिका और साउथ अमेरिका में किया जाता है।
ब्लूबेरी को आपने ज्यादातर स्वादिष्ट व्यंजनों में सजावट के लिए इस्तेमाल किया जाता है। यह स्वास्थ्य के लिए बेहद गुणकारी माना जाता है।
ब्लूबेरी में एंटी-ऑक्सीडेंट की मात्रा काफी अच्छी होती है। साथ ही, इसमें फाइबर, विटामिन सी, विटामिन के और मैंगनीज पाया जाता है। चलिए जानते हैं ब्लूबेरी के स्वास्थ्य संबंधी फायदों के बारे में।
ब्लूबेरी में पॉलीफेनोल और फाइबर जैसे एंटीऑक्सीडेंट यौगिक प्रचुर मात्रा में होते हैं, जो एलडीएल कोलेस्ट्रॉल और ट्राइग्लिसराइड्स को कम करने में मदद करते हैं। यह एथेरोस्क्लेरोसिस और दिल के दौरे जैसी हृदय संबंधी बीमारियों के जोखिम को कम करने में मदद कर सकता है।
ये भी पढ़ें: Blueberry Cultivation in India - ब्लूबेरी की खेती कैसे की जाती है, कितना होता है मुनाफा?
ब्लूबेरी में एंथोसायनिन और फाइटोकेमिकल्स की उच्च मात्रा होती है, साथ ही इसमें एंटीऑक्सीडेंट और एंटीहाइपरटेंसिव गुण भी होते हैं।
ये एंडोथेलियल कोशिकाओं के कार्य को बेहतर बनाने का काम करते हैं, जो रक्त वाहिकाओं के अंदर की परत होती हैं। यह रक्त प्रवाह को विनियमित करने और रक्तचाप को नियंत्रित करने में मदद कर सकता है, जो उच्च रक्तचाप के विकास को रोकता है।
ब्लूबेरी में बहुत अधिक मात्रा में फेनोलिक यौगिक होते हैं, जो कैंसर विरोधी गुणों वाले शक्तिशाली एंटीऑक्सीडेंट होते हैं। ये ऑक्सीडेटिव तनाव को कम करने के साथ-साथ डीएनए को होने वाले नुकसान को कम करने का काम करते हैं और इसलिए कैंसर कोशिकाओं के प्रसार को रोक सकते हैं।
माना जाता है कि ब्लूबेरी विभिन्न प्रकार के कैंसर, जैसे कोलन, प्रोस्टेट, ब्रेस्ट और सर्वाइकल कैंसर के विकास को रोकती है।
ब्लूबेरी में एंथोसायनिन होता है, जो एंटी-इंफ्लेमेटरी और एंटीऑक्सीडेंट युक्त यौगिक होते हैं जो मस्तिष्क कोशिकाओं में ऑक्सीडेटिव तनाव और सूजन को कम कर सकते हैं।
यह संज्ञानात्मक कार्य में सुधार कर सकता है, स्मृति क्षमता बढ़ा सकता है, और प्राकृतिक उम्र बढ़ने में देरी कर सकता है ताकि वृद्धावस्था मनोभ्रंश या अल्जाइमर जैसी न्यूरोडीजेनेरेटिव बीमारियों के विकास को रोका जा सके।
ये भी पढ़ें: पारंपरिक खेती से हटकर स्ट्रॉबेरी का उत्पादन कर किसान ने कमाया मोटा मुनाफा
ब्लूबेरी में एंटीडायबिटिक गुणों वाले बायोएक्टिव यौगिक होते हैं, जो शरीर में शर्करा के स्तर को कम करने में मदद करते हैं। वे इंसुलिन संवेदनशीलता में भी सुधार कर सकते हैं, जिससे यह फल टाइप 2 मधुमेह के प्रबंधन या रोकथाम के लिए एक बढ़िया विकल्प बन जाता है।
ब्लूबेरी में जीवाणुरोधी गुण होते हैं जो एस्चेरिचिया कोली के कारण होने वाले यूटीआई को रोकने और उसका इलाज करने में मदद करते हैं। इसके अलावा, यह फल विटामिन सी से भरपूर होता है, जो मूत्र पथ में बैक्टीरिया के विकास को रोकने में मदद कर सकता है।
ब्लूबेरी में कैलोरी कम होती है और पानी और फाइबर भरपूर मात्रा में होते हैं। ये गुण तृप्ति बढ़ाने और ज़्यादा खाने की आदत को कम करने में मदद कर सकते हैं, जिससे वजन कम करने में मदद मिलती है।
ब्लूबेरी में एंटीऑक्सीडेंट यौगिक भी होते हैं जो इंसुलिन संवेदनशीलता को बेहतर बनाने में मदद करते हैं। यह शरीर में वसा को कम कर सकता है, जिससे यह वजन घटाने वाले आहार में शामिल करने के लिए एक बढ़िया फल बन जाता है ।
इस फल में एंथोसायनिन होता है, जो जठरांत्र संबंधी मार्ग में पूरी तरह से अवशोषित नहीं होता है। वे एक प्रीबायोटिक की तरह काम करते हैं, आंत में लैक्टोबैसिलस और बिफिडोबैक्टीरिया जैसे अच्छे बैक्टीरिया के विकास को उत्तेजित करते हैं। ये बैक्टीरिया प्रतिरक्षा प्रणाली को बेहतर बनाने और आंतों के कार्य को विनियमित करने में मदद करते हैं।
ये भी पढ़ें: राइपनिंग तकनीक से संबंधित जानकारी
ब्लूबेरी में एंटीऑक्सीडेंट और एंटी-इंफ्लेमेटरी यौगिक होते हैं, जो लीवर में जमा वसा को कम करने के साथ-साथ चोट से लीवर सेल की सूजन को कम करने में मदद करते हैं। यह सिरोसिस और लीवर कैंसर जैसी गंभीर लीवर बीमारियों के जोखिम को कम करने में मदद कर सकता है।
व्यायाम से पहले या बाद में ब्लूबेरी जूस पीने से मांसपेशियों की थकान कम करने और मांसपेशियों की रिकवरी को तेजी से बढ़ावा देने में मदद मिल सकती है। इसमें एंटीऑक्सीडेंट और एंटी-इंफ्लेमेटरी तत्व होते हैं, जो मांसपेशियों के ऊतकों में ऑक्सीडेटिव क्षति को रोकने में मदद करते हैं।
प्रश्न : ब्लूबेरी के फल का आकार और रंग कैसा होता है ?
उत्तर : ब्लूबेरी के फल का आकार गोल और रंग नीला होता है।
प्रश्न : क्या ब्लूबेरी में एंटीऑक्सीडेंट और एंटी-इंफ्लेमेटरी तत्व होते हैं।
उत्तर : जी हाँ, ब्लूबेरी में एंटीऑक्सीडेंट और एंटी-इंफ्लेमेटरी तत्व भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं।
प्रश्न : ब्लूबेरी की बाजार में कितनी कीमत है ?
उत्तर : ब्लूबेरी की बाजार में कीमत 1 हजार से 1500 रूपए प्रति किलोग्राम तक होती है।
हल्दी भारतीय रसोई की शान होने की वजह से सालभर मांग में बनी रहती है। साथ ही, यह अपने औषधीय गुणों के कारण वैश्विक स्तर पर भी काफी लोकप्रिय है।
जैविक हल्दी की खेती ना सिर्फ पर्यावरण के लिए फायदेमंद है, बल्कि यह किसानों के लिए भी काफी फायदेमंद व्यवसाय साबित हो सकता है।
जैविक खेती पर्यावरण-अनुकूल और टिकाऊ तरीका है। खेती के इस तरीके में रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का उपयोग नहीं होता है।
हल्दी को भारतीय केसर के नाम से भी जाना जाता है। हल्दी की खेती से किसान काफी शानदार मुनाफा अर्जित कर सकते है।
ट्रैक्टरचॉइस के इस लेख में आज हम जानेंगे जैविक हल्दी की खेती से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी के बारे में। चलिए जानते हैं, जैविक हल्दी की खेती से संबंधित जरूरी बातों के विषय में।
हल्दी की जैविक खेती से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण बातें निम्नलिखित हैं :-
जैविक हल्दी की खेती के लिए बेहतर जल निकासी वाली, दोमट या बलुई दोमट मृदा का चयन करना चाहिए। बतादें, कि मृदा का पीएच मान 5.5 से 7.5 के बीच होना चाहिए।
जैविक हल्दी की खेती के लिए 20-30 डिग्री सेल्सियस जलवायु की आवश्यकता होती है। मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने के लिए जैविक खाद जैसे गोबर की खाद, नीम खली आदि का उपयोग करें।
ये भी पढ़े: भारत में कितने प्रकार की मिट्टी पाई जाती है?
हमेशा स्वस्थ, रोगमुक्त और जैविक रूप से उगाई गई हल्दी की गांठ का चुनाव करें। गांठें मध्यम आकार की और 2-3 आंखों (कलियों) वाली होनी चाहिए। बुवाई करने से पहले गांठों को गोमूत्र या जैविक फफूंदनाशक से उपचारित करें।
खेतों की जुताई करने के बाद जैविक खाद डालें। इसके बाद 30-45 सेमी की दूरी पर मेड़ (रिज) बनाएं। खेतों में जल निकासी की उचित व्यवस्था होनी चाहिए।
भारत में हल्दी की बुआई मई-जून के बीच की जाती है। पंक्तियों के बीच 30-45 सेमी और पौधों के बीच 15-20 सेमी की दूरी रखें। गांठों को 5-7 सेमी गहराई में बोएं। एक हेक्टेयर ज़मीन में 20-25 क्विंटल गांठों की आवश्यकता होती है।
ये भी पढ़े: मई में इन सब्जियों की खेती से मिलेगा मोटा मुनाफा
हल्दी की फसल को नमी की आवश्यकता होती है। मानसून में अतिरिक्त सिंचाई की जरूरत नहीं, लेकिन शुष्क मौसम में 7-10 दिन के अंतराल पर हल्की सिंचाई करें। सिंचाई के लिए ड्रिप तकनीक का इस्तेमाल करें।
प्रश्न: हल्दी की बुवाई के कितने दिन बाद निराई गुड़ाई करनी चाहिए ?
उत्तर: हल्दी की बुवाई के 30-60 दिन बाद खरपतवार हटाने के लिए हल्की निराई-गुड़ाई करनी चाहिए।
प्रश्न : जैविक हल्दी के उत्पादन को बढ़ाने के लिए जरूरी काम क्या है ?
उत्तर : समय पर कीट और रोग प्रबंधन कर जैविक हल्दी के उत्पादन में वृद्धि हो सकती है।
प्रश्न : खेती से अधिक आय हांसिल करने के लिए किसान को क्या करना चाहिए ?
उत्तर : खेती से अच्छी आय हांसिल करने के लिए किसानों को फसल चक्र यानी हल्दी के बाद मूंग, चना या अन्य फसलें उगानी चाहिए।
प्रश्न : जैविक ढ़ंग से हल्दी की खेती कितने दिन में पककर तैयार हो जाती है ?
उत्तर : जैविक ढंग से हल्दी 7-9 महीने में पककर तैयार हो जाती है। हल्दियों की पत्तियां के पीली पड़ने व सूखने पर कटाई करनी चाहिए।