जिमीकंद का सेवन करने से रोग प्रतिरोधक क्षमता काफी बढ़ती है और इससे कई अन्य स्वास्थ्य लाभ भी होते हैं। जिमीकंद को अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है।
जिमीकंद के अंदर काफी महत्वपूर्ण पोषक तत्व मौजूद होते हैं। जैसे - फाइबर, विटामिन सी, विटामिन बी6, विटामिन बी1, फोलिक एसिड, पोटैशियम, आयरन, मैग्नीशियम, कैल्शियम, फॉस्फोरस, एंटीऑक्सीडेंट, बीटा कैरोटीन, प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, जिंक, वसा और ऊर्जा आदि पोषक तत्व मौजूद होते हैं।
जिमीकंद का सेवन करने से विभिन्न प्रकार के स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होते हैं। जिमीकंद का सेवन करने से आप अपनी स्मृति शक्ति को अच्छा कर सकते हैं। साथ ही, जिमीकंद का सेवन करने से खून की भी कमी दूर हो जाती है।
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जिमीकंद का समुचित मात्रा से अधिक सेवन करने से आपको बचना चाहिए। इसके साथ ही कुछ संवेदनशील लोगों को भी इसके सेवन से बचना चाहिए।
गर्भवती महिलाओं को इसका सेवन नहीं करना चाहिए। इसके साथ ही जिन लोगों को स्किन रिलेटेड प्रॉब्लम होती है, वे भी इसका सेवन करने से बचें। इसके सेवन से होने वाले नुकसान।
जिमीकंद का बहुत अत्यधिक मात्रा में सेवन करने से बचना चाहिए। अगर आपको त्वचा रोग है, तो बिना डॉक्टर की सलाह के इसका सेवन न करें।
गर्भवती होने और स्तनपान कराने पर भी इसका सेवन न करें। इसके साथ ही इसे बहुत थोड़ी मात्रा में ही खाएं और खाने से पहले एक बार डॉक्टर की सलाह जरूर लें।
प्रश्न : जिमीकंद का सेवन कितने प्रकार से किया जा सकता है ?
उत्तर : जिमीकंद का सब्जी, चटनी और स्नैक्स आदि के रूप में सेवन किया जा सकता है।
प्रश्न : जिमीकंद में कितने प्रकार के पोषक तत्व मौजूद होते हैं ?
उत्तर : जिमीकंद में फाइबर, विटामिन सी, विटामिन बी6, विटामिन बी1, फोलिक एसिड, पोटैशियम, आयरन, मैग्नीशियम, कैल्शियम, फॉस्फोरस, एंटीऑक्सीडेंट, बीटा कैरोटीन, प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, जिंक, वसा और ऊर्जा आदि पोषक तत्व मौजूद होते हैं।
प्रश्न : जिमीकंद का सेवन स्वास्थ्य के लिए अच्छा या बुरा होता है ?
उत्तर : संतुलित मात्रा में जिमीकंद का सेवन करना स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होते है। लेकिन, अधिक मात्रा में इसका सेवन स्वास्थ्य को काफी नुकसान भी पहुंचा सकता है।
हल्दी भारतीय रसोई की शान होने की वजह से सालभर मांग में बनी रहती है। साथ ही, यह अपने औषधीय गुणों के कारण वैश्विक स्तर पर भी काफी लोकप्रिय है।
जैविक हल्दी की खेती ना सिर्फ पर्यावरण के लिए फायदेमंद है, बल्कि यह किसानों के लिए भी काफी फायदेमंद व्यवसाय साबित हो सकता है।
जैविक खेती पर्यावरण-अनुकूल और टिकाऊ तरीका है। खेती के इस तरीके में रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का उपयोग नहीं होता है।
हल्दी को भारतीय केसर के नाम से भी जाना जाता है। हल्दी की खेती से किसान काफी शानदार मुनाफा अर्जित कर सकते है।
ट्रैक्टरचॉइस के इस लेख में आज हम जानेंगे जैविक हल्दी की खेती से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी के बारे में। चलिए जानते हैं, जैविक हल्दी की खेती से संबंधित जरूरी बातों के विषय में।
हल्दी की जैविक खेती से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण बातें निम्नलिखित हैं :-
जैविक हल्दी की खेती के लिए बेहतर जल निकासी वाली, दोमट या बलुई दोमट मृदा का चयन करना चाहिए। बतादें, कि मृदा का पीएच मान 5.5 से 7.5 के बीच होना चाहिए।
जैविक हल्दी की खेती के लिए 20-30 डिग्री सेल्सियस जलवायु की आवश्यकता होती है। मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने के लिए जैविक खाद जैसे गोबर की खाद, नीम खली आदि का उपयोग करें।
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हमेशा स्वस्थ, रोगमुक्त और जैविक रूप से उगाई गई हल्दी की गांठ का चुनाव करें। गांठें मध्यम आकार की और 2-3 आंखों (कलियों) वाली होनी चाहिए। बुवाई करने से पहले गांठों को गोमूत्र या जैविक फफूंदनाशक से उपचारित करें।
खेतों की जुताई करने के बाद जैविक खाद डालें। इसके बाद 30-45 सेमी की दूरी पर मेड़ (रिज) बनाएं। खेतों में जल निकासी की उचित व्यवस्था होनी चाहिए।
भारत में हल्दी की बुआई मई-जून के बीच की जाती है। पंक्तियों के बीच 30-45 सेमी और पौधों के बीच 15-20 सेमी की दूरी रखें। गांठों को 5-7 सेमी गहराई में बोएं। एक हेक्टेयर ज़मीन में 20-25 क्विंटल गांठों की आवश्यकता होती है।
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हल्दी की फसल को नमी की आवश्यकता होती है। मानसून में अतिरिक्त सिंचाई की जरूरत नहीं, लेकिन शुष्क मौसम में 7-10 दिन के अंतराल पर हल्की सिंचाई करें। सिंचाई के लिए ड्रिप तकनीक का इस्तेमाल करें।
प्रश्न: हल्दी की बुवाई के कितने दिन बाद निराई गुड़ाई करनी चाहिए ?
उत्तर: हल्दी की बुवाई के 30-60 दिन बाद खरपतवार हटाने के लिए हल्की निराई-गुड़ाई करनी चाहिए।
प्रश्न : जैविक हल्दी के उत्पादन को बढ़ाने के लिए जरूरी काम क्या है ?
उत्तर : समय पर कीट और रोग प्रबंधन कर जैविक हल्दी के उत्पादन में वृद्धि हो सकती है।
प्रश्न : खेती से अधिक आय हांसिल करने के लिए किसान को क्या करना चाहिए ?
उत्तर : खेती से अच्छी आय हांसिल करने के लिए किसानों को फसल चक्र यानी हल्दी के बाद मूंग, चना या अन्य फसलें उगानी चाहिए।
प्रश्न : जैविक ढ़ंग से हल्दी की खेती कितने दिन में पककर तैयार हो जाती है ?
उत्तर : जैविक ढंग से हल्दी 7-9 महीने में पककर तैयार हो जाती है। हल्दियों की पत्तियां के पीली पड़ने व सूखने पर कटाई करनी चाहिए।
खेती से अच्छा मुनाफा हांसिल करने के लिए किसानों को फसलों का चयन करना बेहद जरूरी है। किसान साथियों, आज हम आपको ट्रैक्टरचॉइस के इस लेख में हम मॉनसून में उगाई जाने वाली कुछ बेहद फायदेमंद और लाभकारी 5 वर्षाकालीन फसलों की खेती की जानकारी देने वाले हैं।
टॉप 5 वर्षाकालीन फसलें निम्नलिखित हैं:-
कपास एक नकदी फसल है, जिसे मॉनसून में बड़े पैमाने पर उगाया जाता है। महाराष्ट्र और गुजरात जैसे राज्यों में बड़े पैमाने पर इसकी खेती होती है।
किसान इसे तुरंत बाजार में बेचकर कमाई करते हैं। अगर सही रेट नहीं मिले तो किसान इसे स्टोर कर लेते हैं और अच्छी कीमत मिलने पर बेचते हैं।
किसान साथियों, चावल का उपभोग और उत्पादन दोनों कई लोगों के लिए प्रमुख भोजन वाली फसल है, जो धान के तौर पर उगाई जाती है।
धान खरीफ मौसम के बरसाती सीजन में पनपता है। इससे अनाज की आवश्यकता पूर्ण होने के साथ ही किसानों की आमदनी में भी काफी बढ़ोतरी होती है।
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भोजन और पशुओं के चारे के लिए उगाया जाने वाला मक्काकिसानों के लिए बहुत ही मददगार फसल है। इसे बेचकर किसान अधिक कमाई कर सकते हैं। पोल्ट्री फीड के अतिरिक्त इथेनॉल के बाजार ने मक्का को फायदेमंद खेती बना दिया है।
अरहर, उड़द और हरा चना जैसी फसलें प्रोटीन और मिट्टी को उपजाऊ बनाने के लिए महत्वपूर्ण हैं। भारत सरकार ने दालों की उपज को एमएसपी पर खरीदने की घोषणा कर दी है। उसके बाद इन फसलों की खेती की मांग और प्रचलन काफी तेजी से बढ़ा है।
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मूंगफली, सोयाबीन और तिल खाद्य तेल उत्पादन में योगदान करते हैं। भारत चूंकि काफी बड़े स्तर पर तेलों का आयात करता है, इस वजह से किसानों को तिलहन फसलें उगाने के लिए प्रोत्साहन दिया जा रहा है। इसमें कृषकों को अनुदान जैसी स्कीम का लाभ भी दिया जा रहा है, ताकि वे ज्यादा से ज्यादा तिलहन की खेती करें।
प्रश्न: खरीफ में कौन-सी फसलों की खेती की जाती है ?
उत्तर: खरीफ में अरहर, मूंगफली, उड़द और सोयाबीन की प्रमुख रूप से खेती की जाती है।
प्रश्न: किन वर्षाकालीन फसलों की खेती से अच्छा-खासा मुनाफा मिलेगा ?
उत्तर: वर्षाकालीन फसलों में मूंगफली, सोयाबीन और तिल की खेती से मिलेगा मोटा मुनाफा।
प्रश्न: क्या सरकार की तरफ से तिलहन की खेती पर अनुदान दिया जाता है ?
उत्तर: जी हाँ, सरकार तिलहन उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए अनुदान प्रदान करती है।
प्रश्न: मक्का का उत्पादन क्यों लाभकारी है ?
उत्तर: मक्का की इथेनॉल बाजार में अच्छी कीमत मिलने से इसका उत्पादन फायदे का सौदा है।
रूद्राक्ष एक फल का बीज होता है, जो पक जाने के बाद नीले रंग का दिखाई देता है। इसलिए इसे ब्लूबेरी बीड्स भी कहते हैं। यह बीज कई पेड़ों की प्रजातियों से मिलकर तैयार होते हैं।
हम अक्सर लोगों को साधु संत और लोगों के गले में रूद्राक्ष की माला देखते हैं। लोग इसको लेकर जप करते हैं। लेकिन, क्या आप जानते हैं, कि रूद्राक्ष कहां से आता है और इसका महत्व क्या है।
रूद्राक्ष के बारे में बहुत कुछ काफी कम ही लोग जानते होंगे। ट्रैक्टरचॉइस के इस लेख में आज हम बात करेंगे रूद्राक्ष के बारे में।
हिंदू परंपराओं में रूद्राक्ष को काफी पवित्र माना जाता है। हिंदू धर्म में इसे शिव के रुप में देखा जाता है। इसे मनका भी कहा जाता है। रुद्राक्ष एक संस्कृत शब्द है, जो ‘रुद्र’ और ‘अक्ष’ से मिलकर बनता है। बतादें कि भगवान शिव का नाम ‘रुद्र’ है और ‘अक्ष’ का अर्थ आंसू होता है।
रूद्राक्ष एक फल का बीज होता है, जो पकने के पश्चात नीले रंग का नजर आता है। इस वजह से इसको ब्लूबेरी बीड्स भी कहा जाता है।
यह बीज विभिन्न पेड़ों की प्रजातियों के मिश्रण से तैयार किया जाता है। इन प्रजातियों में बड़े सदाबहार और ब्रॉड लवेड पेड़ शामिल होते हैं।
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रूद्राक्ष को पेड़ को इलियोकार्पस गेनिट्रस भी कहा जाता है। इन पेड़ों की ऊंचाई पेड़ 50 फीट से लेकर 200 फीट तक होती है। यह प्रमुख तौर पर नेपाल, दक्षिण पूर्वी एशिया, ऑस्ट्रेलिया, हिमालय और गंगा के मैदानों में पाए जाते हैं।
सबसे मुख्य बात यह है, कि हमारे भारत में रुद्राक्ष की तकरीबन 300 से अधिक किस्में पाई जाती हैं। इससे भी अधिक खास बात यह है, कि यह एक सदाबहार पेड़ है, जो शीघ्रता से विकास करता है। इस पेड़ में फल आने में लगभग 3 से 4 साल का समय लग जाता है।
ऐसी मान्यता है, कि प्राचीन काल में रूद्राक्ष 108 मुखी होते थे, लेकिन अब इसकी माला में लगभग 1 से 21 रेखाएं होती हैं। इसका आकार मिलीमीटर में मापा जाता है।
बतादें, कि नेपाल में 20 से 35 मिमी (0.79 और 1.38 इंच) और इंडोनेशिया में 5 और 25 मिमी (0.20 और 0.98) के बीच के आकार का रुद्राक्ष पाया जाता है। यह रुद्राक्ष लाल, सफेद, भूरा, पीला और काला रंग का भी होता है।
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रुद्राक्ष का पेड़ एयर लेयरिंग विधि से लगाया जा सकता है। इसके लिए इसमें 3 से 4 साल के पौधे की शाखा में पेपपिन से रिंग काटकर उसके ऊपर मौस लगाई जाती है। इसके बाद 250 माइक्रोन की पॉलीथिन से ढक दिया जाता है। इसके साथ ही दोनों तरफ रस्सी बांध दी जाती हैं।
फिर लगभग 45 दिनों में जड़ें आ जाती हैं। इसके बाद उसे काटकर नए बैग में लगाया जाता है। इस तरह 15 से 20 दिन बाद पौधा उगने लग जाता है। इसके अलावा, नर्सरी से भी रुद्राक्ष का पेड़ खरीदा जा सकता है।
रूद्राक्ष में औषधीयगुण काफी मात्रा में होते हैं। रुद्राक्ष की माला गले में पहनने से बल्ड प्रेशर नियंत्रण में रहता है। साथ ही, इसके तेल से एग्जिमा, दाद और मुहांसों से सहूलियत मिलती है।
रूद्राक्ष से ब्रोंकल अस्थमा में भी राहत मिलती है। इसके अलावा इसे पहनने से उम्र का प्रभाव कम होता है। रुद्राक्ष धारण करने से दिल की बीमारी व घबराहट आदि से मुक्ति मिलती है।
प्रश्न: रुद्राक्ष का एक और अन्य नाम क्या है ?
उत्तर: रुद्राक्ष को ब्लूबेरी बीड्स के नाम से भी जाना जाता है।
प्रश्न: भारत के अंदर रुद्राक्ष का उत्पादन किन राज्यों में किया जाता है ?
उत्तर: भारत में रुद्राक्ष का उत्पादन मुख्य रूप से हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों, असम, बंगाल, बिहार, मध्य प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम, उत्तराखंड के हरिद्वार, गढ़वाल और देहरादून के क्षेत्रों, और दक्षिण भारत के नीलगिरी, मैसूर और अन्नामलाई क्षेत्रों में किया जाता है।
प्रश्न: भारत में रुद्राक्ष की कितनी किस्में पाई जाती हैं ?
उत्तर: भारत में रुद्राक्ष की तकरीबन 300 से अधिक किस्में पाई जाती हैं।
किसान साथियों, आज हम बात करने वाले हैं, जैतून की खेती के बारे में जिसको ‘ओलिव’ के नाम से भी जाना जाता है। जैतून एक ऐसा फल है, जिसका उपयोग खाद्य और औषधी बनाने में काफी लंबे समय से किया जा रहा है।
आज के समय में जैतून की खेती ना केवल आर्थिक दृष्टिकोण से काफी महत्वपूर्ण है, बल्कि यह पर्यावरण के लिए भी एक वरदान के समान है।
जैतून की खेती के लिए सबसे पहले खेत को अच्छी तरह से तैयार करना ज़रूरी है। इसके लिए मिट्टी की गहरी जुताई करें ताकि जैतून के पौधों की जड़ें अच्छी तरह से विकसित हो सकें।
जैतून की पौध का चयन करते समय ध्यान रखें कि वो किस्म स्थानीय जलवायु के अनुकूल हो। पौधों को 5-7 मीटर की दूरी पर लगाएं ताकि उन्हें विकास करने के लिए पर्याप्त जगह मिल सके। चलिए जानते हैं जैतून की खेती से जुडी कुछ जरूरी बातों के बारे में।
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जैतून की खेती के लिए अच्छी जल निकासी वाली दोमट मिट्टी सबसे अनुकूल मानी जाती है। पथरीली और बलुई मिट्टी भी अनुकूल होती है बशर्ते उसमें जल निकासी की उचित व्यवस्था हो। जैतून के पेड़ के लिए शुष्क व अर्ध-शुष्क जलवायु अच्छी मानी जाती है।
अगर हम तापमान की बात करें तो गर्मियों में तापमान 20-30 डिग्री सेल्सियस और सर्दियों में 5-15 डिग्री सेल्सियस के बीच होना चाहिए। ध्यान रहे कि अधिक ठंड या जलभराव से इनका बचाव ज़रूरी है, क्योंकि ये पौधे की बढ़वार को नुकसान पहुँचा सकते हैं।
जैतून की खेती के लिए अक्टूबर से दिसंबर के बीच का समय सबसे अच्छा होता है। इस समय मिट्टी में नमी की पर्याप्त मात्रा होती है, जो पौधों की प्रारंभिक वृद्धि के लिए काफी महत्वपूर्ण है।
जैतून की फसल को फल देने के लिए तैयार होने में सामान्यतः 5 साल का समय लग जाता है। हालांकि, ये किस्मों के चयन पर भी निर्भर करता है।
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जैतून की विभिन्न प्रकार की किस्में हैं, जिनमें तेल उत्पादन, आकार, स्वाद और इस्तेमाल के लिए अलग-अलग होते हैं। जैतून की प्रमुख लोकप्रिय किस्मों में पिकुअल (Picual), अर्बेकिना (Arbequina), लेसिनो (Leccino), फ्रैंटोइओ (Frantoio), कोराटिना (Coratina), मंज़नीला (Manzanilla), गोर्डल सेविलाना (Gordal Sevillana), कोरोनेकी (Koroneiki), और कई अन्य शामिल हैं।
जैतून के पौधों को शुरुआती वर्षों में नियमित सिंचाई की आवश्यकता होती है। गर्मियों में हर 10-15 दिन में सिंचाई करें और सर्दियों में 20-25 दिन में एक बार। पौधों की बढ़ती उम्र के साथ सिंचाई कम की जा सकती है।
अगर हम जैतून के खेत में उर्वरक की बात करें तो इन पौधों में जैविक उर्वरकों का प्रयोग करना सबसे अच्छा है। इसके लिए प्रति पौधा सालाना 10-15 किलोग्राम गोबर की खाद और 100-150 ग्राम नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश के मिश्रण का प्रयोग किया जा सकता है।
प्रश्न: भारत के अंदर बड़े पैमाने पर जैतून की खेती कहाँ होती है ?
उत्तर: भारत के अंदर जैसलमेर, चूरु, हनुमानगढ़, गंगानगर और बीकानेर में जैतून की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है।
प्रश्न: जैतून के नए पौधे कैसे प्राप्त किए जाते हैं ?
उत्तर: जैतून के नए पौधे कलम द्वारा प्राप्त किए जाते हैं।
प्रश्न: जैतून के प्रमुख रोग और कीट कौन-कौन से हैं ?
उत्तर: जैतून में पाउडरी मिल्ड्यू व फल मक्खी का प्रकोप अधिकतर देखा जाता है।
हर एक भारतीय घर में हल्दी का उपयोग प्रमुख रूप से सब्जी बनाने में किया जाता है। हल्दी का मसालों में एक अलग ही महत्व है।
यही वजह है, कि आपको हर घर की रसोई में हल्दी अवश्य मिलेगी। हल्दी खाने का स्वाद और रंग रूप तो बढ़ाती ही है साथ ही यह कई तरह के रोगों से भी रक्षा करती है।
प्राचीन काल से ही हल्दी को जड़ी बूटी के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। आयुर्वेद में हल्दी के फायदे के बारे में विस्तृत उल्लेख है। इस लेख में हम आपको हल्दी के उपयोग फायदे और नुकसान के बारे में जानकारी देने वाले हैं।
हल्दी एक जड़ी-बूटी है। इसका इस्तेमाल मसालों के रुप में प्रमुखता से किया जाता है। हिंदू धर्म में पूजा में या कोई भी शुभ काम करते समय हल्दी का उपयोग किया जाता है।
खाने के अतिरिक्त विभिन्न प्रकार की बीमारियों से बचाव में भी हल्दी का इस्तेमाल होता है। इस समय पूरी दुनिया में हल्दी के गुणों पर शोध चल रहे हैं और कई रिसर्च आयुर्वेद में बताए गुणों की पुष्टि भी करते हैं।
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हल्दी की तासीर गर्म होने की वजह से जुकाम में इसका सेवन करना काफी फायदेमंद साबित होती है। हल्दी के धुंए को रात के समय सूंघने से जुकाम जल्दी ठीक हो जाता है। हल्दी सूंघने के कुछ देर बाद तक पानी नहीं पीना चाहिए।
हल्दी की खेती के लिए गर्म और आर्द्र जलवायु, अच्छी जल निकासी वाली मिट्टी, और 20-30 डिग्री सेल्सियस का तापमान उपयुक्त होता है.
हल्दी को विभिन्न प्रकार की मिट्टी में उगाया जा सकता है, लेकिन यह लाल, चिकनी दोमट और अच्छी जल निकासी वाली मिट्टी में सबसे अच्छी तरह उगती है.
हल्दी की खेती से किसानों को अच्छी कमाई हो सकती है।
हल्दी औषधीय गुणों वाली फसल है और पर्यावरण संतुलन में भी योगदान देती है।
हल्दी का उपयोग मसाले, दवाइयों और सौंदर्य प्रसाधनों में किया जाता है।
हल्दी में एंटीबैक्टीरियल और एंटीवायरल गुण होने की वजह से यह इम्युनिटी को मजबूत करते हैं और सर्दी-जुकाम और अन्य संक्रमण से बचाने में मदद करते हैं।
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हल्दी में एंटी-इंफ्लेमेटरी गुण मौजूद होने की वजह से यह सूजन को कम करने में मदद करते हैं, खासकर जोड़ों के दर्द और गठिया में।
हल्दी पाचन एंजाइमों के उत्पादन को बढ़ावा देती है, जिससे पाचन बेहतर होता है और गैस, सूजन की समस्या कम होती है।
हल्दी में मौजूद करक्यूमिन ब्लड वेसल्स की फंक्शनिंग में सुधार करता है, जिससे दिल का स्वास्थ्य अच्छा होता है।
हल्दी में करक्यूमिन कैंसर कोशिकाओं के विकास को बाधित करने में मदद करता है।
हल्दी त्वचा की रंगत को निखारने, दाग-धब्बों को कम करने और त्वचा संबंधी समस्याओं को ठीक करने में सहयोग करती है।
नोट: हल्दी का समुचित, संतुलित या सही मात्रा से अधिक सेवन करना आपके लिए काफी घातक साबित हो सकता है। जैसे कि पेट खराब होना, एसिड रिफ्लक्स, दस्त, या चक्कर आना। इसके अलावा, हल्दी के कुछ दुष्प्रभाव किडनी, लिवर, और गर्भावस्था पर भी पड़ सकते हैं।
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हल्दी का अधिक सेवन पाचन तंत्र को नुकसान कर सकता है, जिससे पेट खराब, एसिड रिफ्लक्स और दस्त जैसी समस्याएं हो सकती हैं।
हल्दी का अधिक सेवन लिवर को नुकसान पहुंचा सकता है, खासकर अगर पहले से ही लिवर से जुड़ी कोई समस्या हो।
हल्दी में ऑक्सालेट की मात्रा अधिक होने के कारण, यह किडनी में स्टोन बनाने में मदद कर सकती है।
गर्भवती महिलाओं को हल्दी के सेवन से बचना चाहिए, क्योंकि यह गर्भाशय को उत्तेजित कर सकती है और गर्भपात का खतरा बढ़ा सकती है।
हल्दी रक्त को पतला करने में मदद करती है, जो रक्तस्राव संबंधी विकार वाले लोगों के लिए हानिकारक हो सकता है।
कुछ लोगों को हल्दी से एलर्जी हो सकती है, जिससे उन्हें खुजली, दाने, या अन्य एलर्जी लक्षण हो सकते हैं।
प्रश्न: क्या गर्भवती महिलाओं को हल्दी का सेवन करना चाहिए ?
उत्तर: गर्भवती महिलाओं को हल्दी के सेवन से जितना संभव हो बचना चाहिए।
प्रश्न: हल्दी का सेवन करने से होने वाले कोई दो फायदे क्या हैं ?
उत्तर: हल्दी का संतुलित सेवन करने से हड्डियां मजबूत और पाचन क्रिया बेहतर होती है।
प्रश्न: हल्दी का वानस्पतिक नाम क्या है ?
उत्तर: हल्दी का वानस्पतिक नाम करकुमा लोंगा (Curcuma longa) है, जो कि अदरक परिवार (Zingiberaceae) से संबंधित है।
खेती-किसानी में मई का महीना काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। इस माह में किसानों को अपने खेतों में विभिन्न प्रकार के कार्य करने होते हैं। गेहूं की कटाई से लेकर जायद फसलों की देखभाल करना।
इसके अलावा कई राज्यों में इस महीने में किसान अपने खेतों में धान की बुवाई के लिए बिचड़ा डालने की भी तैयारी करने लगते हैं। वहीं, इस महीने किसानों को क्या करना चाहिए इस बात का भी ध्यान रखना काफी जरूरी होता है। ऐसे में बिहार कृषि विभाग की ओर से इस महीने किन फसलों में क्या करना है, उसकी जानकारी दी गई है।
किसानों को मई के महीने में बरसीम की अंतिम सिंचाई करनी चाहिए। वहीं, सिंचाई के लगभग एक सप्ताह के बाद मतलब मई के अंत तक बरसीम की अंतिम कटाई कर लेनी चाहिए।
अभी तक जिन किसान साथियों ने हल्दी, अदरक की बुवाई नहीं की वो इस महीने के चौथे सप्ताह में हल्दी और अदरक की खेती कर सकते हैं।
बतादें, कि मई का महीना इन दोनों फसलों की खेती के लिए सबसे अच्छा होता है। ऐसे में किसान अच्छी किस्मों का चयन करके चौथे सप्ताह यानी एक दो दिन के अंदर हल्दी और अदरक की बुवाई कर दें।
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मई के महीने में किसान प्याज की फसल में जरूरत के अनुसार सिंचाई करें, क्योंकि गर्मी बढ़ने से कई बार प्याज के पत्ते और फसल मुरझा या सूख जाते हैं।
इसके अलावा किसान प्याज की फसल में थ्रिप्स कीट का नियंत्रण भी करें। इसके अलावा किसान बरसाती प्याज के लिए बीज स्थली की भी तैयारी करें।
किसानों को मई के महीने में बढ़ती हुई गर्मी और तापमान को देखते हुए, बसंत कालीन मक्का में सिंचाई करनी चाहिए। ध्यान रखें कि ये सिंचाई दोपहर में ना करें। फसल को सही से पानी मिले इसके लिए किसान मक्के की फसल में सुबह और शाम के समय सिंचाई करें।
किसान मई के महीने में खरीफ धान के बीज की व्यवस्था करें। साथ ही इस दौरान किसान लंबी अवधि की किस्में जैसे, राजेन्द्र मंसूरी, नाटी मंसूरी (MTU 7029) इत्यादि के बीज उगाने के लिए पौधशाला की तैयारी शुरू करें। बीज उगाने से पहले बीज उपचार अवश्य करें।
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जायद सीजन में किसान अपने खेतों में गरमा मूंग की खेती करते हैं, जिसमें मई के महीने में भुआ पिल्लू यानी कीट लगने के खतरे बढ़ जाते हैं, जिससे मूंग की फसलों को नुकसान होता है।
ऐसे में किसान गरमा मूंग को भुआ पिल्लू के आक्रमण से बचाने के लिए फसल पर डायमेथोएट 30 ई.सी का 1.5 ML प्रति 1 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।
प्रश्न: बरसीम की आखिरी कटाई कब करें ?
उत्तर: बरसीम की आखिरी कटाई मई के अंत तक कर लेनी चाहिए।
प्रश्न: बसंतकालीन मक्का की कटाई कब करें ?
उत्तर: बसंतकालीन मक्का की सिंचाई तापमान को देखते हुए मई में करें।
प्रश्न: मई माह में मूंग को इस कीट से सबसे ज्यादा खतरा है ?
उत्तर: मई माह में मूंग को भुआ पिल्लू कीट का सबसे ज्यादा खतरा होता है।
भारत में विभिन्न प्रकार की फसलों की खेती की जाती है। देश की आधी से ज्यादा जनसंख्या प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से कृषि पर निर्भर है।
भारत में विभिन्न प्रकार की फसलों, सब्जियों, जड़ी बूटियों और फूलों का उत्पादन किया जाता है। ट्रैक्टरचॉइस के इस लेख में आज हम बात करेंगे फूलों की खेती के बारे में।
साथियों, आजकल फूलों का इस्तेमाल ना केवल सजावट में बल्कि दवाई और कॉस्मेटिक चीजों को बनाने में भी किया जाता है।
इस वजह से फूल की खेती किसानों के लिए एक मोटी आय अर्जित करने का जरिया विकल्प बनकर उभर रही है। इस लेख में आज हम जानेंगे कि किसान फूल की कौन-सी किस्मों की खेती कर आमदनी में मोटा इजाफा कर सकते हैं।
किसान साथियों, जैसा कि हम सब जानते हैं, कि भारत एक कृषि प्रधान देश है, जहां अधिकांश किसान पारंपरिक फसलों पर निर्भर हैं।
लेकिन बदलते समय के साथ अब बहुत सारे किसान पारंपरिक खेती से हटकर नकदी फसलों की खेती में दिलचस्पी दिखा रहे हैं। खासकर गुलाब की खेती आजकल काफी तेजी से किसानों के बीच लोकप्रिय हो रही है।
गुलाब एक बेहद सुंदर, मनमोहक और खुशबूदार फूल है। गुलाब के फूल की खेती के जरिए किसान लाखों रुपये की कमाई भी कर रहे हैं।
किसान भाई अगर कृषि विशेषज्ञों के दिशा निर्देश में सही तकनीक और रणनीति को अपनाते हैं, तो गुलाब की खेती एक छोटे किसान के जीवन को भी आर्थिक तौर पर पूर्णतय बदल सकती है।
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भारतीय कृषि वैज्ञानिक निरंतर कृषि में नवीन खोज और शोध करते रहते हैं। भारतीय कृषि वैज्ञानिकों का उद्देश्य किसानों की लागत, जल की खपत और पर्यावरणीय समस्याओं को कम करना होता है।
साथ ही, कृषि वैज्ञानिक कम लागत और समय में अच्छी उपज और मुनाफा देने वाली किस्मों को विकसित करते हैं। किसानों की आय दोगुनी करने के उद्देश्य से कृषि वैज्ञानिक द्वारा भारत में गुलाब की भी कुछ प्रमुख किस्मों को तैयार किया है, जो निम्नलिखित हैं :-
जवाहर किस्म को इसकी लंबी डंडियों और बड़े फूलों के लिए जाना जाता है। यह मुख्य रूप से सजावटी उपयोग और निर्यात के लिए उपयुक्त है।
यह किस्म सुंदर गहरे गुलाबी रंग की होती है और इसकी मांग सजावट के बाजार में काफी अधिक है।
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI), पूसा द्वारा विकसित यह किस्म तेज़ी से बढ़ती है और इसकी पैदावार अच्छी होती है।
गुलाब की अरुणिमा किस्म गहरे लाल रंग वाली होती है। गुलाब की अरुणिमा किस्म को शादी-ब्याह जैसे आयोजनों में खूब पसंद किया जाता है।
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नेहरू गुलाब किस्म लंबे समय तक ताजगी बनाए रखने के लिए जानी जाती है, जिससे इसकी शेल्फ लाइफ बेहतर होती है।
गुलाब की भूषण किस्म रोग प्रतिरोधी है और यह कम देखभाल में शानदार उपज प्रदान करती है, जिससे यह छोटे किसानों के लिए लाभकारी विकल्प है।
प्रश्न: भारत में विकसित गुलाब की प्रमुख उन्नत किस्में कौनसी हैं ?
उत्तर: भारत में विकसित गुलाब की प्रमुख उन्नत किस्मों में जवाहर, रानी साहिबा, पूसा बहार, अरुणिमा, नेहरू गुलाब और भूषण किस्म शामिल हैं।
प्रश्न: भारत के किन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर गुलाब की खेती की जाती है ?
उत्तर: भारत के अंदर राजस्थान, कर्नाटक, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में काफी बड़े पैमाने पर गुलाब की खेती की जाती है।
प्रश्न: गुलाब की किस किस्म की मांग शादी-ब्याह जैसे आयोजन में होती है।
उत्तर: गुलाब की अरुणिमा किस्म की शादी-ब्याह जैसे आयोजनों में काफी मांग होती है।
आज के समय में जलवायु-smart किस्में किसानों के लिए विकल्प नहीं, आवश्यकता बन गई हैं। ये किस्में ना केवल पर्यावरण के अनुकूल हैं, बल्कि उपज और आमदनी बढ़ाने में भी सहयोग करती हैं।
विशेषज्ञों का कहना है, कि आगामी समय में इन किस्मों को अपनाकर किसान मौसम की मार को सहन करने में सक्षम बन सकेंगे और भारत की खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित कर पाएंगे।
चावल भारत सहित एशिया और अफ्रीका के करोड़ों लोगों का मुख्य भोजन है, लेकिन क्या आप जानते हैं, कि धान की खेती करने वाले किसानों को अब जलवायु परिवर्तन के चलते विभिन्न चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।
अगर देखा जाए तो अनियमित बारिश, सूखा, बाढ़ और बढ़ता तापमान किसानों के लिए मुश्किलें बढ़ा रहे हैं। ऐसे में वैज्ञानिकों और कृषि विशेषज्ञों ने जलवायु-स्मार्ट कृषि के अंतर्गत धान की ऐसी विभिन्न किस्में विकसित की हैं, जो कम पानी, कम समय और कठिन परिस्थितियों में भी शानदार उपज देती हैं।
जल्दी पकने वाली यह किस्म मीथेन उत्सर्जन को कम करती है और 19% प्रतिशत ज्यादा पैदावार देगी। धान की यह किस्म हैदराबाद में भारतीय चावल अनुसंधान संस्थान (ICAR-IIRR) द्वारा तैयार की गई है।
धान की यह किस्म सूखे और लवणीय मिट्टी झेलने में सक्षम, यह किस्म कठिन परिस्थितियों में भी 20% तक उत्पादन बढ़ा सकती है। इस किस्म को भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI), नई दिल्ली से पूसा DST चावल 1 को MTU1010 किस्म से तैयार किया गया है।
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धान की इस किस्म को ओडिशा और बिहार में ऊपरी भूमि पर खेती के लिए तैयार किया गया है, ये दो भारतीय राज्य अक्सर अनियमित वर्षा से प्रभावित होते हैं। यह किस्म 112 दिनों में पकती है और वर्षा आधारित खेती में फायदेमंद है।
धान की पूसा बासमती 1509 किस्म 150 दिनों में पक जाती है। यह किस्म 33% प्रतिशत तक पानी बचाती है और गेहूं की बुवाई के लिए खेत जल्दी खाली करती है।
धान की पूसा आरएच 60 किस्म बिहार व यूपी के लिए बेहतरीन मानी जाती है। यह सुगंधित और लंबा दाना देने वाली संकर किस्म है।
धान की ये किस्म पारंपरिक कालानमक चावल का उन्नत रूप, अधिक उपज और कीट-रोग प्रतिरोधी है।
धान की यह किस्म 120-125 दिनों में पक जाती है। यह प्रति एकड़ 34-35 क्विंटल की औसत उपज के साथ, यह किस्म न केवल उच्च उपज देने वाली है, बल्कि पर्यावरण के अनुकूल भी है। यह किस्म पराली जलाने की आवश्यकता को कम करता है।
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यह किस्म यह पौधा 140-145 दिनों में परिपक्व हो जाता है। बाढ़ झेलने में सक्षम यह किस्म पानी के नीचे 14 दिन तक जीवित रह सकती है, पूर्वी भारत के लिए उपयोगी है। इस किस्म के चावल इसमें छोटे, मोटे दाने की संरचना में होते हैं।
पारंपरिक किस्मों से 20-35% तक अधिक उपज मिल सकती है और यह दक्षिण एशिया में लोकप्रिय है।
धान की यह किस्म खेत में लगभग 140-145 दिनों में पक जाती है, जो इसे लंबे समय तक उगने वाले क्षेत्रों के लिए उपयुक्त बनाती है। यह किस्म उच्च गुणवत्ता और बेहतर बाजार मूल्य वाली किस्म, निर्यात के लिए उपयुक्त है।
प्रश्न: पूसा-2090 किस्म कितने उपज देती है ?
उत्तर: यह प्रति एकड़ 34-35 क्विंटल की औसत उपज प्रदान करती है।
प्रश्न: धान की एराइज़ हाइब्रिड किस्म किस क्षेत्र में लोकप्रिय है ?
उत्तर: धान की एराइज़ हाइब्रिड किस्म दक्षिण एशिया में मशहूर है।
प्रश्न: पूसा बासमती 1509 किस्म कितने दिन में पककर तैयार हो जाती है ?
उत्तर: धान की पूसा बासमती 1509 किस्म 150 दिनों में पककर तैयार हो जाती है।
सोनालीका मिनी स्मार्ट सीरीज चेन ड्राइव खेती में अच्छा कार्य करता है और खेती को उपजाऊ बनाता है। सोनालीका मिनी स्मार्ट सीरीज चेन ड्राइव रोटावेटर श्रेणी के अंतर्गत आता है और इसकी इम्प्लीमेंट पावर 30-50 HP है, जिससे ईंधन कुशल कार्य प्रदान करता है।
यह सोनालीका ब्रांड का एक शानदार कृषि उपकरण है। यह अपनी शानदार गुणवत्ता के लिए जाना जाता है। ट्रैक्टरचॉइस के इस लेख में आज हम आपको सोनालीका मिनी स्मार्ट सीरीज चेन ड्राइव के बारे में जानकारी प्रदान करेंगे।
यह एक और अनोखा कम वजन वाला रोटावेटर है, जो सपाट फ्रेम की सतह से बना होता है, जो एक सीधी पाइप सेक्शन के साथ लगा होता है, दूसरी तरफ एक वर्गाकार खंड के रूप में फ्रेम शीट बनी होती है। यह मल्टीस्पीड गियरबॉक्स के साथ दमदार रोटावेटर है।
रोटर को बीज की बुवाई करने व मिट्टी की शानदार पिसाई के लिए 6 से 12 ब्लेड फिट किए गए हैं। लेकिन, मिट्टी की नमी को बरकरार रखते हुए जुताई के दौरान पानी को प्रवेश नहीं देता है। यह 35 से 60 एचपी ट्रैक्टर्स के लिए अच्छा है और इसमें अतिरिक्त मजबूत डिजाइन के तीन-बिंदु लिंकेज हैं।
यह यूनिवर्सल 3 पॉइंट (हिच पिरामिड) के साथ तेल में डूबे हुए साइड गियर ड्राइव के साथ आता है। इसमें मौजूद चार गति हैवी ड्यूटी गियर बॉक्स-अलग मिट्टी की स्थिति, अनुप्रयोगों और ट्रैक्टर मॉडल के लिए है।
यह कीचड़ और पानी से रोटर-परफेक्ट सीलिंग के लिए दोनों तरफ मैकेनिकल फेस सील्स से लेश हैं। इसका हर एक निकला हुआ किनारा 6 ब्लेड "सी एंड एल-टाइप" ब्लेड को समायोजित कर सकता है। इसमें आप को एडजस्टेबल डेप्थ स्किड मिलता है।
इसपर किया गया पावर कोटिंग पेंट जंग के लिए प्रतिरोध है और मशीन को अच्छा बनाए रखता है। मृदा डाट - मिट्टी को बाहर की तरफ फैलने से रोकने के लिए दिया गया है। इसमें पारंपरिक गास्केट के बजाय ओ-रिंग का उपयोग किया गया है।
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सोनालीका मिनी स्मार्ट सीरीज चेन ड्राइव कम एचपी के ट्रैक्टर के साथ भी काफी आसानी से चल सकता है। विभिन्न इंजन RPM पर 540/1000 PTO RPM के लिए सभी तरह के ट्रैक्टर्स के साथ संचालन आसान है।
गियर बॉक्स में प्रदान किए गए गियर के एक अतिरिक्त सेट को बदलने के लिए आसान / सभी स्थितियों में बेहतर पक्कीकरण के लिए गियर की वृद्धि / कमी रोटर स्पीड, एल -3, एल -4 ट्रैक्टर गियर में भूमि का अधिक कवरेज होता है। बेहतर गियर और गियर्स के लंबे जीवन के लिए मुख्य गियर और साइड गियर की अधिक क्षमता है।
प्रश्न: सोनालीका मिनी स्मार्ट सीरीज चेन ड्राइव रोटावेटर की सबसे बड़ी खूबी क्या है ?
उत्तर: सोनालीका मिनी स्मार्ट सीरीज चेन ड्राइव रोटावेटर कम एचपी के ट्रैक्टर के साथ भी काफी आसानी से चलाया जा सकता है।
प्रश्न: सोनालीका मिनी स्मार्ट सीरीज चेन ड्राइव रोटावेटर की कितने HP इम्प्लीमेंट पावर है ?
उत्तर: सोनालीका मिनी स्मार्ट सीरीज चेन ड्राइव रोटावेटर की इम्प्लीमेंट पावर 30-50 HP के बीच होती है।
प्रश्न: सोनालीका मिनी स्मार्ट सीरीज चेन ड्राइव रोटावेटर में किस तरह का गियर सिस्टम दिया गया है।
उत्तर: सोनालीका मिनी स्मार्ट सीरीज चेन ड्राइव रोटावेटर में साइड गियर ट्रांसमिशन दिया गया है।
सरकार की तरफ से किसानों की आमदनी को दोगुना करने की हर संभव कोशिश की जा रही है। इसके अंतर्गत किसानों को खेती में नवीन तकनीकों के उपयोग पर जोर दिया जा रहा है।
इसके लिए सरकार की तरफ से सब्सिडी का लाभ भी प्रदान किया जा रहा है। इसी कड़ी में राज्य सरकार की तरफ से राज्य के किसानों को खजूर की खेती पर 1.60 लाख रुपए तक का अनुदान दिया जा रहा है।
भारत के अंदर खजूर की खेती अब किसानों के लिए एक शानदार विकल्प बनकर उभर रही है। खजूर की खेती की मुख्य बात यह है, कि इसकी खेती कम पानी और कम लागत में की जा सकती है।
ऐसे में इसकी खेती उन इलाकों के लिए बेहद फायदेमंद साबित हो सकती है। जहां सिंचाई के लिए पानी की उपलब्धता काफी कम है। किसान खजूर की खेती से काफी शानदार मुनाफा अर्जित कर सकते हैं।
राज्य सरकार की ओर से “एकीकृत बागवानी मिशन” (MIDH) के तहत खजूर की खेती पर सब्सिडी देने का फैसला किया गया है।
योजना 2025 के तहत किसानों को खजूर की खेती के लिए प्रति हैक्टेयर 1.60 लाख रुपए तक की सब्सिडी दी जा रही है। यह सब्सिडी उन किसानों के लिए है जो खजूर की खेती को अपनाना चाहते हैं या पहले से कर रहे हैं और अपने क्षेत्र में इसका विस्तार करना चाहते हैं।
अनुदान की यह राशि सीधे किसानों के बैंक खातों में DBT स्कीम (डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर) के माध्यम से भेजी जाएगी, जिससे प्रक्रिया पारदर्शी और तेज हो।
राज्य सरकार खजूर की खेती के इच्छुक किसानों को तकनीकी प्रशिक्षण और मार्गदर्शन भी प्रदान कर रही है। इसके तहत किसानों को मिट्टी की जांच, पौध चयन, सिंचाई पद्धति और देखभाल के आधुनिक तरीकों की जानकारी दी जा रही है।
कृषि विज्ञान केंद्रों (KVK) और बागवनी विभाग के माध्यम से यह सहायता उपलब्ध करवाई जा रही है, ताकि किसान खजूर उत्पादन को वैज्ञानिक तरीके से कर सकें।
अभी हरियाणा सरकार की ओर से “एकीकृत बागवनी विकास मिशन” के तहत राज्य के किसानों को खजूर की खेती पर सब्सिडी का लाभ प्रदान किया जा रहा है।
खासकर प्रदेश के दक्षिणी हिस्सों में खेती करने वाले किसानों को प्राथमिकता दी जा रही है। ऐसा इसलिए कि यहां पानी की कमी है, ऐसे में यहां के किसानों के लिए कम पानी में फसल जैसे खजूर की खेती से अच्छा लाभ प्राप्त कर सकेंगे।
प्रदेश के अनुदान पाने हेतु इच्छुक किसान अपने नजदीकी बागवानी विभाग कार्यालय में जाकर संपर्क कर सकते हैं। इसके अलावा हरियाणा सरकार की कृषि संबंधित वेबसाइटों पर ऑनलाइन आवेदन की सुविधा भी मौजूद है। आवेदन के लिए आपको जिन आवश्यक दस्तावेजों की जरूरत है, वे निम्नलिखित हैं :-
प्रश्न: किस राज्य में मिल रही खजूर की खेती पर सब्सिडी ?
उत्तर : हरियाणा
प्रश्न : किस संस्थान द्वारा खजूर की खेती का प्रशिक्षण दिया जा रहा है ?
उत्तर: केवीके (KVK)
प्रश्न: किस मिशन के तहत सब्सिडी प्रदान की जा रही है ?
उत्तर: “एकीकृत बागवानी विकास मिशन”
भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहां विभिन्न प्रकार की फसलों की खेती की जाती है। भारतीय कृषि क्षेत्र में सिंदूर की खेती एक लोकप्रिय कृषि विकल्प बनता जा रहा है।
क्योंकि इसमें कम लागत, लंबी उपज अवधि और वैश्विक मांग की वजह से यह खेती किसानी को आर्थिक तौर पर मजबूत करती है। सिंदूर की प्राकृतिक रंग 'एन्नाटो' के रूप में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी काफी बड़ी मांग है।
भारतीय संस्कृति में पेड़ों की भी पूजा की जाती है। साथ ही कुछ पेड़ों से जुड़ी श्रद्धा और परंपरा भी हैं। इन्ही में से एक सिंदूर का पेड़ भी है, जिसको आजकल Vermilion Farming के रूप में जाना जाता है।
सिंदूर के पेड़ की अहमियत केवल इसके लाल रंग के साथ साथ इस रंग से जुड़ी आस्था और परंपरा के लिए भी है। दक्षिण भारत, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल और झारखंड जैसे क्षेत्रों में यह पेड़ अब किसानों के लिए न केवल एक पौधा, बल्कि एक सोने की खान बन चुका है।
सिंदूर, जो कि धार्मिक अनुष्ठानों का अभिन्न हिस्सा है, अब किसानों की खुशहाली का भी प्रतीक बन चुका है। इसकी खेती न सिर्फ कम लागत में उगाई जा सकती है, बल्कि यह लाखों रुपये का मुनाफा भी किसानों को प्रदान करने में सक्षम है।
सिंदूर का पेड़ उष्णकटिबंधीय जलवायु में उगता है और इसके बीजों से एक प्राकृतिक रंगद्रव्य प्राप्त होता है, जिसका उपयोग खाद्य पदार्थों, कॉस्मेटिक्स और औषधियों में किया जाता है। इसके बीजों से निकाला गया रंग ‘एन्नाटो’ कहलाता है, जो विश्वभर में प्राकृतिक रंग के रूप में लोकप्रिय है।
सिंदूर के पेड़ की निम्नलिखित विशेषताएं हैं:-
सिंदूर बनाने की प्रक्रिया में सबसे पहले बिक्सा पौधे के फलों से बीज निकालकर एकत्रित करना । इसके बाद इन बीजों को कुछ दिनों तक धूप में सुखाया जाता है, ताकि इनमें मौजूद नमी समाप्त हो जाए।
फिर सूखे बीजों को पीसकर एक लाल रंग का पाउडर तैयार किया जाता है। इसके बाद पाउडर को छानकर उसमें से अशुद्धियाँ हटाई जाती हैं। इसमें हल्दी, चंदन, कपूर, या गुलाब जल जैसे तत्व मिलाकर इसको और भी उपयोगी बनाया जा सकता है।
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भारत के अंदर आज भी सिंदूर की खेती काफी सीमित है, जबकि वैश्विक बाजार में एन्नाटो की भारी मांग है। अमेरिका, जापान और यूरोप के कई देशों में प्राकृतिक रंगों की मांग बढ़ रही है। इसके कारण भारत में सिंदूर उत्पादन को प्रोत्साहन मिल सकता है।
भारत के अंदर विभिन्न राज्यों के कृषि विभाग सिंदूर की खेती को बढ़ावा देने के लिए प्रशिक्षण, पौध वितरण और विपणन सहयोग दे रहे हैं।
विशेष रूप से छत्तीसगढ़, झारखंड और ओडिशा जैसे राज्यों में यह खेती आदिवासी किसानों के बीच काफी लोकप्रिय होती जा रही है।
प्रश्न: भारत में सिंदूर उत्पादन को क्यों प्रोत्साहन दिया जा रहा है ?
उत्तर: सिंदूर की वैश्विक बाजार में बढ़ती मांग की वजह से भारत में सिंदूर उत्पादन को प्रोत्साहन मिल सकता है।
प्रश्न: सिंदूर की खेती के लिए कैसी जलवायु होनी चाहिए ?
उत्तर: सिंदूर की खेती के लिए उष्णकटिबंधीय जलवायु सबसे उपयुक्त होती है।
प्रश्न: भारत के किन क्षेत्रों में सिंदूर की खेती की जा रही है ?
उत्तर: भारत के अंदर सबसे ज्यादा सिंदूर की खेती छत्तीसगढ़, झारखंड और ओडिशा जैसे राज्यों में की जा रही है।