किसानों ने काफी बड़े पैमाने पर रबी सीजन की बहुत सारी अपने अपने राज्यों, मृदा और जलवायु के अनुरूप फसल उगाई हैं।
किसानों ने भूमि के बड़े हिस्से पर गेंहू, चना, मसूर, सरसों, जौ और सूरजमुखी की खेती शामिल है।
ट्रैक्टरचॉइस के इस लेख में आज हम आपको इन फसलों के एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य(MSP) की जानकारी देने वाले हैं।
क्योंकि, बहुत सारे किसान अपने खेत में उगाई गई फसल के बाजार में मिलने वाले भाव की जानकारी पाने के लिए काफी उत्सुक रहते हैं।
सबसे पहले हम इन फसलों की कीमत को जानने से पहले न्यूनतम समर्थन मूल्य क्या है इसके बारे में जानेंगे।
किसान साथियों, न्यूनतम समर्थन मूल्य भारत सरकार की तरफ से निर्धारित की गई वह धनराशि होती है, जिस पर फसलों की सरकारी खरीद होती है।
माँग और आपूर्ति के चलते बाजार में इन फसलों की कीमत कभी-कभी एमएसपी से भी ज्यादा या कम भी हो सकती है।
लेकिन, न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) किसानों की आमदनी की सुरक्षा को सुनिश्चित करती है।
भारत सरकार खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए कृषि उपजों की बड़ी मात्रा में एमएसपी पर खरीद करती है, जिससे फसल की बुवाई के लिए किसानों को प्रोत्साहित किया जा सके।
ये भी पढ़ें: भारत सरकार न्यूनतम किराये दर पर किसानों को मुहैया करा रही कृषि यंत्र
ये भी पढ़ें: पीएम फसल बीमा योजना के लिए पंजीकरण की अंतिम तिथि बढ़ाई गई
चना की फसल में पहले से 210 रुपए बढ़ोतरी हुई है। चना की कीमत पहले 5440 रुपये तो अब 5650 रुपए है।
मसूर की फसल में पहले की तुलना में 275 रूपये की बढ़ोतरी हुई है। पहले मसूर की फसल 6425 रुपये तो अब 6700 रुपये है।
जौ की फसल में पहले के मुकाबले 150 रुपए की बढ़ोतरी दर्ज हुई है। जौ पहले 1850 रुपये तो अब 1980 रुपये है।
सरसों की फसल में पहले के मुकाबले 300 रुपए की वृद्धि हुई है। पहले सरसों की कीमत 5650 रुपये तो अब 5950 रुपये है।
सनफ्लॉवर सीड्स की कीमत में पहले की अपेक्षा 140 रुपए बढ़ी है। पहले सनफ्लॉवर सीड्स का भाव 5800 रुपये तो अब 5940 रुपये है।
एमएसपी फसलीय उत्पादन को बढ़ाने में काफी सहयोगी साबित होता है। किसानों को इस बार रबी सीजन में उगाई गई फसलों का अच्छा भाव मिलेगा।
चावल भारत की प्रमुख नकदी फसल है। काफी ज्यादा पैमाने पर लोग अलग अलग तरह से चावल का सेवन करते हैं।
चावल का सेवन करने से लोगो को कई प्रकार के पोषक तत्व हांसिल होते हैं। चावल की एक और वेरायटी बाजार में उपलब्ध है, जिसको काला चावल भी कहते हैं।
भारत के साथ-साथ संपूर्ण विश्व में अपनी सुगंध और स्वाद के लिए प्रसिद्ध काला नमक चावल भारत के कई राज्यों में उगाया जा रहा है।
काला चावल की मुख्य रूप से पूर्वोत्तर भारत यानी ओडिशा, पश्चिम बंगाल, झारखंड और मणिपुर में बड़े पैमाने पर खेती की जाती है।
ये भी पढ़ें: भारत में कितने प्रकार की मिट्टी पाई जाती है?
ये भी पढ़ें: कोदो की खेती से संबंधित विस्तृत जानकारी
ये भी पढ़ें: घर में ऑरिगेनो की खेती
काले चावल की बुवाई के लिए मई का महीना सबसे अच्छा माना जाता है।
ये भी पढ़ें: ब्रोकली की खेती
काला चावल एक बेहद स्वास्थ्य वर्धक अनाज है। काले चावल में भरपूर मात्रा में पोषक तत्व होने की वजह से इसकी बाजार में काफी ज्यादा मांग होती है।
ऐसे में किसान इसका उत्पादन करके अच्छा स्वास्थ्य और बेहतरीन आमदनी अर्जित कर सकते हैं।
किसान हर मौसम में बिना रुके और बिना थके अपने फसल की देखभाल और सुरक्षा करता है। आखिर करे भी तो क्यों नहीं फसल अगर अच्छी होगी तभी किसान की आजीविका के लिए अच्छी आमदनी अर्जित होगी।
विशेषज्ञों का कहना है, कि कोहरे से जहां गेहूं की फसल को लाभ मिलता है, वहीं बाकी फसलों को क्षति भी पहुँचती है।
वर्तमान में कभी बारिश तो कभी कोहरे का कहर मचा हुआ है। हालाँकि, इसकी वजह से फसलों पर अच्छा असर भी पड़ा है।
लेकिन, कृषि विशेषज्ञों के अनुसार, कम समय के लिए होने वाला कोहरा तो फसल को लाभ पहुंचाता है। लेकिन, जब ज्यादा दिनों तक रहे, तो उससे फसल को काफी हानि हो सकती है।
आज कल हर तरफ कोहरे ने कोहराम मचा रखा है। हर जगह कोहरे ने अपनी दस्तक दे रखी है। वर्तमान में तो इतना घना कोहरा देखने को मिल रहा है की थोड़ी सी दूरी पर भी अँधेरे का माहौल है।
कोहरे की वजह से आम जनमानस का जीवन भी काफी प्रभावित हुआ है। साथ ही, पशुओं पर भी इसका साफ़ तौर पर असर देखने को मिला है।
सिर्फ इतना ही नहीं फसलें भी इसकी चपेट से दूर नहीं हैं। फ़िलहाल, रबी सीजन चल रहा है। रबी सीजन में उगाई जाने वाली फसलें खेतो में लहलहा रही हैं।
ये भी पढ़ें: सावधान: आने वाले दिनों में कहर ढ़ाऐगी सर्दी फसलों को करेगी प्रभावित?
अगर हम रबी सीजन की प्रमुख फसल गेहूं की बात करें, तो इसको कोहरे से काफी लाभ होता है।
गेहूं की फसल में काफी ज्यादा फुटाव होता है। लेकिन, दूसरी फसलें जैसे सरसों और सब्जियों को हानि होती है।
हालाँकि, जानकारों के अनुसार कोहरा यदि और लम्बे समय तक बना रहा तो निश्चित रूप से गेहूं को भी नुकसान पहुंचा सकता है।
वैज्ञानिकों के अनुसार, ज्यादा दिन तक कोहरा की स्थिति होने की वजह से फसलों की आंतरिक क्रियाएं ठंडी पड़ जाती हैं।
इससे फसलों के आंतरिक प्रणाली काम करना बंद कर देती है, जिससे फसल के सूखने की संभावना काफी बढ़ जाती है।
सरसों, धनिया, मेथी, लहसुन आदि को ज्यादा दिन तक रहने वाला कोहरा प्रभावित करता है। इससे फसलों पर चेपा कीट और रतुआ रोग का संकट बढ़ता है।
कोहरा अधिक दिनों तक रहने से मटर में सफेद चूर्ण रोग और आलू में झुलसा रोग लगने की संभावना होती है। कोहरे का और भी बहुत सारे नुकसान हैं।
ज्यादा कोहरा होने की स्थिति में मधुमक्खियां फसलों तक नहीं पहुंच पाती हैं। उनको फसल दिखायी नहीं पड़ने के चलते सरसों, मटर और सिगरी जैसी फसलों पर परागण नहीं हो पाता, जिसकी वजह से फसलों में दाने काफी कम बनते हैं।
ये भी पढ़ें: आलू की खेती के लिए सबसे सही समय, तापमान और मिट्टी के बारे में जरूरी जानकारी
कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार, कोहरे का सबसे ज्यादा प्रकाश संश्लेषण पर असर करता है।
फसलें मिट्टी से पोषक तत्व और पानी ग्रहण करती हैं, जो तने और पत्तियों तक पहुँच जाते हैं।
जब कोहरा नहीं होता या कम होता है तो धूप की सहायता से यही फसल कार्बन डाईऑक्साइड लेकर अपने अंदर कार्बोहाइड्रेट, वसा, प्रोटीन और विटामिन बनाती हैं।
यह प्रक्रिया प्रकाश संश्लेषण के नाम से जानी जाती है। परंतु, ज्यादा दिनों तक कोहरा हो तो फसलों में यह क्रिया काफी प्रभावित होती है और पौधे पीले, कमजोर और रोगग्रसित हो जाते हैं। आखिरकार फसलों के मरने का खतरे की संभावना बढ़ जाती है।
कोदो मिलेट्स के अंतर्गत आने वाली अनाज की एक फसल है। साथ ही, अनाज फसल के लिए की जाने जानी वाली कोदो की फसल का वानस्पतिक नाम पास्पलम स्कोर्बीकुलातम है।
भारत में कोदो की खेती का इतिहास 3000 साल से भी ज्यादा पुराना है। इस वजह से इसको ऋषि अन्न के नाम से भी जाना जाता था। अपनी गुणवत्ता और स्वास्थ्य लाभों की वजह से यह काफी लोकप्रिय हो चुकी है।
बीते कुछ सालों से इसकी मांग देश के साथ-साथ दुनियाभर में काफी ज्यादा बढ़ चुकी है।
मिलेट्स के अनेकों स्वास्थ्य लाभों के चलते बड़े पैमाने पर लोग विभिन्न प्रकार के बाजरा को अपनी डाइट में शामिल कर रहे हैं।
मिलेट्स के अंतर्गत बाजरा, कंगनी, रागी, चना, ज्वार और कोदो इत्यादि भी शम्मिलित हैं। कोदो अपने विभिन्न लाभों की वजह से स्वास्थ्य के लिए काफी फायदेमंद है।
ट्रैक्टरचॉइस के इस लेख में हम आपको कोदो की खेती से जुड़ी जरूरी जानकारी देने वाले हैं।
ये भी पढ़ें: पशुपालक ऐसे तैयार करें पशुओं के लिए साइलेज
ये भी पढ़ें: घर में ऑरिगेनो की खेती
कोदो की छिड़काव विधि से बुवाई करने के लिए 10-15 कि.ग्रा. हेक्टेयर बीज दर सबसे अच्छी होती है।
कृषक साथियों, खरपतवार पर काबू पाने के लिए हर 20-25 दिन के समयांतराल पर निराई-गुड़ाई करते रहना चाहिए।
कोदो की खेती में जब पौधों का विकास शुरू होता है, तब खरपतवारों पर नियंत्रण करना बेहद जरूरी होता है। खरपतवार ज्यादा होने से फसल से मिलने वाली उपज भी काफी कम हो जाती है।
किसानों के सामने सबसे बड़ी चुनौती रोग और कीट होते हैं। कोदो की फसल में विशेष प्रकार के रोग और कीट लग जाते हैं, जो फसलीय उत्पादन और गुणवत्ता को काफी ज्यादा प्रभावित कर सकते हैं।
फसल में अगर समय रहते किसान इन रोगों और कीटों पर काबू नहीं कर पाए तो फसल की उपज तो कम होगी ही साथ ही उनकी आमदनी में भी भारी कमी आ जाएगी।
ये भी पढ़ें: ब्रोकली की खेती
ब्लास्ट रोग कई फसलों की तरह कोदो की फसल को भी काफी क्षति पहुँचाता है। इस रोग के लगने पर पत्तियों, बाली और तनों पर गहरे धब्बे जो अंतिम में सफेद रंग के हो जाते हैं।
याद रहे फसल में इस रोक की रोकथाम करने के लिए केवल प्रमाणित बीजों का ही इस्तेमाल बेहतर होगा। वर्ना फसल पर उल्टा असर पड़ सकता है।
विशेषज्ञों की सलाह के अनुसार बेहतर फसल चक्र अपनाएं। साथ ही, रोग प्रतिरोधी किस्मों की ही खेती करें।
किसान साथियों, रस्ट रोग की सबसे पहले इस बात से पहचान की जा सकती है, कि पत्तियों पर छोटे, नारंगी या भूरे रंग के धब्बे आने शुरू हो जाते हैं।
इसके नियंत्रण के लिए रोग प्रतिरोधी किस्मों का अवश्य चुनाव करें और मेटालॅक्सिल 4% + मँकोजेब 64% का इस्तेमाल करें।
जड़ सड़न व तना सड़न रोग की वजह से पौधों के तने और जड़ें काफी हद तक सड़ जाती हैं, जिससे पौधे काफी कमजोर होकर नीचे गिरने लग जाते हैं।
इसकी रोकथाम के लिए जल निकासी की सुविधा का अच्छा होना भी जरूरी है। उत्तम तरह के बीजों का इस्तेमाल करें।
वहीं, रोग लगने पर आप थायोफेनेट मिथाइल 70% प्रतिशत डब्ल्यू.पी.की निर्धारित मात्रा का उपयोग कर सकते हैं।
तना बेधक रोग की वजह से तनों में छेद हो जाते हैं, जो कि पौधे को नीचे भी गिरा सकते हैं। इसका नतीजा यह होगा कि उपज में काफी गिरावट देखने को मिलेगी।
तना बेधक के नियंत्रण के लिए फसल अवशेषों को समाप्त जरूर करदें व जैविक कीटनाशक जैसे बैसिलस थुरिंजियेंसिस का अवश्य इस्तेमाल करें।
ये भी पढ़ें: बकरी पालन से जुड़ी जानकारी सफल बकरी पालक राजेंद्र की जुबानी
पत्ता मरोड़ रोग की सबसे बड़ी निशानी यह है, कि इस रोग की स्थिति में पत्तियाँ मरोड़ कर रोल की तरह हो जाती हैं। इससे प्रकाश संश्लेषण पर भी काफी हद तक बाधित होता है।
पत्ता मरोड़ रोग के नियंत्रण के लिए रोग की चपेट में आई हुई पत्तियों को बिल्कुल अलग कर दें और नीम के तेल का अवश्य छिड़काव करें।
एफिड के संक्रमण से पत्तियों और तनों पर छोटे, मुलायम कीट जो रस चूसते हैं, जिससे पत्तियों का रंग पीला पड़ने लग जाता है। एफिड पर काबू पाने के लिए संक्रमित भाग को पानी से धोकर उसके ऊपर नीम के तेल का छिड़काव करना सही रहता है।
भारत के अंदर खेती किसानी के साथ साथ पशुपालन की परंपरा काफी समय पहले से चली आ रहा है। पशुपालन कृषि के अतिरिक्त पशुपालक कृषकों की आमदनी का बेहतरीन स्त्रोत है।
कृषकों को पशुपालन से काफी ज्यादा आर्थिक बल मिलता है। साथ ही, कई तरह के डेयरी उत्पाद भी पशुपालक किसानों के दुग्ध उत्पादन का ही परिणाम हैं।
ऐसे में सबसे अहम बात यह है कि पशुपालकों को उनके मवेशियों के लिए चारे की पर्याप्त मात्रा में व्यवस्था करनी होती है। ऐसे में साइलेज कृषकों के लिए काफी मददगार साबित होता है।
दरअसल, साइलेज हरा चारा संरक्षण की एक विशिष्ट विधि है। सामान्यतः जुलाई से लेकर अक्टूबर माह तक जरूरत से भी ज्यादा मात्रा में चारा रहता है।
इस तरह ही बीच दिसंबर से मार्च तक जई, बरसीम तथा रिजका इत्यादि हरे चारे की उपलब्धता रहती है।
इसके अतिरिक्त बारिश के समय मानसून के पश्चात चारागाहों में भी भरपूर मात्रा में घास उपलब्ध रहती है। बहुत बारी जरूरत से ज्यादा मात्रा में चारे का उत्पादन हो जाता है, जो की खराब हो जाता है।
अक्टूबर से मध्य दिसंबर एवं अप्रैल से जून के बीच चारे की उपलब्धता कम हो जाती है। इस समय हरे चारे की उपज काफी कम या नहीं के समान होती है।
इसलिए जरूरत से ज्यादा उपलब्ध अतिरिक्त पैदा हुए चारे को अच्छी तरह से सुरक्षित और संग्रहित कर लिया जाए तो कमी और अभाव के दिनों में पशुओं को समुचित पौष्टिक आहार प्रदान किया जा सकता है।
साइलेज बनाने के लिए चारे की फसल जैसे- ज्वार, मक्का, बाजरा, जई, नेपियर, गिनी घास इत्यादि साइलेज के लिए उपयुक्त है।
बंकर साइलो में फर्श पक्का होता है और दीवारें ईंट की बनी हुई स्थायी होती हैं। यह चौड़ाई में खुला हुआ और जमीन की सतह पर तैयार होता है।
यह उन स्थानों के लिए विशेष रूप से उपयुक्त है, जहाँ भूमिगत जल का स्तर बेहद ऊँचा होता है।
पिट साइलो वर्गाकार गड्ढे के आकार का निर्मित साइलो होता है। इसके लिए गड्ढे को ऐसी जगह पर खोदा जाता है, जो अपेक्षाकृत काफी ऊँचा होता हो और जहाँ वर्षा का जल भरने की आशंका नहीं होती।
पिट साइलो बहुत वर्षा वाले क्षेत्रों जहाँ भूमिगत जल स्तर अधिक ऊँचा होता है, उन स्थानों के लिए उपयुक्त नहीं होता है।
सामान्य तौर पर 1.0&1.0&1.0 मीटर के गड्ढे में तकरीबन 4-5 क्विंटल साइलेज तैयार किया जा सकता है। गड्ढे को पक्का करना ठीक रहता है।
छोटे स्तर पर साइलेज प्लास्टिक बैग के अंदर भी निर्मित किया जा सकता है। विशेषज्ञों के अनुसार, साइलेज बनाने के लिए हरे चारे पर 50% प्रतिशत फूल आने पर कटाई के बाद उसे 60-65% फीसद नमी तक सुखाते हैं।
अब इसके बाद चारा काटने की मशीन पर उसे 3-5 से.मी. के छोटे टुकड़ों में काट लिया जाता है, ताकि इसको कम जगह और वायु रहित वातावरण में एकत्रित किया जा सके।
साइलेज की महक की बात करें तो यह अम्लीय होनी चाहिए। दुर्गंध युक्त एवं तीखी गंध वाली साइलेज को विशेषज्ञ काफी अच्छी नहीं मानते हैं। साथ ही, साइलेज किसी भी हालत में चिपचिपी, गीली व फफूंद लगी नहीं होनी चाहिए।
साइलेज काफी पौष्टिक और पाचन योग्य होने की वजह से पशु इसको काफी ज्यादा स्वाद से खाते हैं।
जब चारे की अच्छी खासी मात्रा में उपलब्धता हो तो उसे सुरक्षित और संरक्षित करके चारे के अभाव के दौरान उपयोग में लाया जा सकता है।
ऐसे में पशुओं को हरे चारे की किल्लत का सामना नहीं करना पड़ता। साइलेज में 80 से 90% प्रतिशत तक हरे चारे के समान ही पोषक तत्व संरक्षित रहते हैं।
हरे चारे के अभाव में साइलेज खिलाकर पशुओं का दुग्ध उत्पादन काफी आसानी से बढ़ाया जा सकता है।
चारे का ज्यादा गीला या शुष्क होना साइलेज के लिए काफी ज्यादा नुकसानदायक होता है।
साइलो के अंदर भरने के उपरांत इसको भली-भांति दबाना चाहिए, जिससे किसी भी कोष्ठ अथवा कोने में हवा न रह जाये। हवा एवं नमी में साइलेज खराब बनेगा साथ ही सडने की संभावना भी काफी ज्यादा होगी।
ध्यान रहे कि गलती से भी संग्रह स्थान पर बाहर से पानी इत्यादि का प्रवेश नहीं होना चाहिए। बतादें, कि डेढ़ से दो महीने के उपरांत गड्ढे को एक तरफ से खोलना चाहिए।
पशुओं को खिलाने के लिए साइलेज निकालने के बाद शीघ्रता से बंद कर दें। हरे चारे की 35% से 50% प्रतिशत मात्रा साइलेज के तौर पर खिलाई जा सकती है।
कृषक साथियों, जैसा कि आप सब जानते हैं कि भारत एक कृषि प्रधान और कृषि समृद्ध देश है।
यहाँ की ज्यादातर आबादी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से कृषि पर निर्भर है। अब ऐसे में पूसा कृषि विज्ञान मेला कृषकों के लिए किसी वरदान से कम नहीं है।
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा आयोजित किए जाने वाले इस भव्य पूसा कृषि विज्ञान मेला का इस वर्ष आयोजन फरवरी 24-26, 2025 के दौरान संस्थान के मेला ग्राउंड में बड़ी भव्यता से किया जा रहा है।
जानकारी के लिए बतादें, कि इस वर्ष आयोजित होने वाले इस मेले का प्रमुख विषय “उन्नत कृषि – विकसित भारत” है।
हर साल पूसा कृषि विज्ञान मेले में देश के विभिन्न हिस्सों से 1 लाख से भी ज्यादा किसान, उद्यमी, राज्यों के अधिकारीगण, छात्र एवं अन्य उपयोक्ता बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं।
ये भी पढ़ें: पूसा वैज्ञानिकों द्वारा गेहूं आदि रबी फसलों के संरक्षण हेतु जरूरी सलाह
पूसा कृषि विज्ञान मेले के प्रमुख आकर्षण में फसलों की जीवंत प्रदर्शन, फूलों और सब्जियों की संरक्षित खेती, गमलों में खेती, ऊर्ध्वाधर (वर्टिकल) खेती, मिट्टी एवं पानी की जाँच, कट-फ्लावर, विदेशी सब्जियों, उन्नत किस्म के फलों, कृषि प्रकाशनों के लिए स्टॉल आमंत्रित हैं।
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा कृषकों के नवाचारों को महत्ता देता है तथा व्यावहारिक कृषि प्रौद्योगिकियों एवं तकनीकों को विकसित और प्रसारित करने वाले प्रतिभावान कृषकों को प्रोत्साहित करने के लिए हर वर्ष पूसा कृषि विज्ञान मेले में लगभग 25-30 उन्नतशील किसानों को उनके नवाचार सृजन और प्रसार में उत्कृष्ट योगदान के लिए भाकृअनुसं-नवोन्मेषी किसान और भाकृअनुसं-अध्येता किसान पुरस्कारों से सम्मानित करता है।
ये भी पढ़ें: IARI पूसा द्वारा विकसित सरसों की प्रमुख उन्नत किस्मों की जानकारी
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान वर्ष 2025 के भाकृअनुसं-नवोन्मेषी किसान और भाकृअनुसं-अध्येता किसान पुरस्कारों के लिए योग्य नवोन्मेषी कृषकों के आवेदन आमंत्रित करता है, जिन्हें फरवरी 24-26, 2025 के दौरान आयोजित होने वाले पूसा कृषि विज्ञान मेले में प्रदत्त किया जाएगा।
कृषि क्षेत्र में आए नवीन परिवर्तनों के चलते वर्तमान में बकरी पालन कृषकों के लिए एक बेहतरीन आमदनी देने वाला व्यवसाय बन चुका है।
इसको पारंपरिक व्यवसाय के तौर पर देखा जाता है, परंतु जब इसको अच्छे तरीके से किया जाए, तो यह शानदार मुनाफे वाला काम सिद्ध हो सकता है।
राजेंद्र कुमार, जो कि राजस्थान के बालोतरा जनपद में पशुधन निरीक्षक के पद पर कार्यरत हैं, उनका यह अनुभव काफी ज्यादा प्रेरणादायक है।
उन्होंने बकरी पालन व्यवसाय को अपनी अन्य आमदनी का बेहतरीन स्रोत बना लिया है और अब वह इसके फायदे और महत्त्व को भली-भाँति समझते हैं।
सफल बकरी पालक राजेंद्र कुमार ने अपने बकरी पालन के सफर के बारे में बताते हुए कहा, कि हमेशा से उनके परिवारी जन बकरी पालन करते आए हैं, लेकिन 7-8 साल पहले उन्होंने अपनी पत्नी के नाम पर इसे व्यावसायिक स्तर पर प्रारंभ किया।
2017 में जब उन्होंने पशुधन निरीक्षक के रूप में सरकारी नौकरी शुरू की, तब उन्होंने महसूस किया कि बकरी पालन एक अच्छा और लाभकारी व्यवसाय हो सकता है।
इसके बाद उन्होंने और उनकी पत्नी रेखा ने मिलकर ‘थार गोट फार्म’ की स्थापना की, और बकरी पालन को एक व्यवासिक रूप में अपनाया और सफलता हांसिल की है।
ये भी पढ़ें: केंद्रीय पशुपालन मंत्री राजीव रंजन सिंह ने 21वीं पशुधन गणना का शुभारंभ किया
आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि बकरी पालन के अंतर्गत बकरी का पालन करने के लिए नस्ल का चयन करना सबसे महत्वपूर्ण होता है।
राजेंद्र कुमार के मुताबिक, किसानों को अपनी क्षेत्रीय नस्ल के आधार पर बकरी का चुनाव करना चाहिए।
राजेंद्र कुमार के क्षेत्र में सोजत और मारवाड़ी नस्ल की बकरियां सबसे अनुकूल मानी जाती हैं। इन नस्लों की बकरियां इस वातावरण में बड़ी सुगमता से घुल-मिल जाती हैं और इनकी बढ़त भी काफी अच्छी होती हैं।
हालाँकि, बकरी की कई सारी नस्लें हैं, जैसे कि चम्बा, गद्दी, कश्मीरी, जमुनापरी, पश्मीना, बरबरी, बीटल, टोगनबर्ग, सिरोही, ब्लैक बंगाल, ओस्मानाबादी, करौली, सोजत, गूजरी, जखराना आदि नस्लें भी हैं।
कृषकों के लिए बकरी पालन काफी शानदार और फायदेमंद व्यवसाय है। यदि कोई किसान 100 बकरियों से बकरी पालन प्रारंभ करता है, तो वह समस्त खर्चों के बावजूद बकरी पालन के कारोबार से मासिक 50,000 रुपये तक की आय अर्जित कर सकता है।
बकरी पालन के लिए सही जगह का चुनाव करना काफी ज्यादा जरूरी होता है। बकरियों का शेड घर से काफी दूर होना चाहिए, जिससे यह वातावरण में शांति और स्वच्छता को बरकरार बनाए रखें।
शेड का निर्माण पूरब से पश्चिम की दिशा में ही करना चाहिए, जिससे बकरियों को सूरज का प्रकाश सही तरीके से मिले और वहां उचित मात्रा में हवा का प्रवाह भी होना चाहिए।
इसके अतिरिक्त, शेड की जगह गीली और कच्ची नहीं होनी चाहिए। क्योंकि, इससे बकरियों के स्वास्थ्य पर काफी प्रभाव पड़ सकता है।
ये भी पढ़ें: पशुपालन के लिए इस योजना के तहत बिना जमीन गिरवी रखे मिलेगा ऋण
बकरियों की देखभाल के लिए कई बातों का खास ध्यान रखना आवश्यक होता है। सबसे पहले, बकरियों को अच्छा आहार देना चाहिए।
अगर हरा चारा उपलब्ध नहीं हो, तो सूखा चारा (जैसे भूसा, चारा, आदि) दिया जा सकता है।
साथ ही, बकरियों को उनके वजन के अनुसार मिनरल्स भी खिलाने चाहिए, जिससे उनकी सेहत सही बनी रहे। बकरियों के स्वास्थ्य के लिए नियमित टीकाकरण और कीड़ों से बचाव की भी जरूरत होती है।
राजेंद्र कुमार के अनुसार, बकरियों को साल में 3 बार पेट के कीड़े से बचाव के लिए दवाइयां दी जानी चाहिए और 2 बार वैक्सीनेशन करवाना चाहिए।
बकरी पालन के प्रारंभ में काफी अच्छा निवेश करना पड़ता है, परंतु बकरी पालक को आहिस्ते-आहिस्ते लाभ मिलना शुरू हो जाता है।
राजेंद्र कुमार के अनुसार, अगर कोई किसान 100 बकरियों से व्यवसाय की शुरुआत करना चाहता है, तो उसे करीब 25 लाख रुपये का प्रारंभिक निवेश करना पड़ सकता है।
इसमें 10 लाख रुपये शेड के निर्माण के लिए, 10 लाख रुपये बकरे-बकरियों की खरीदारी के लिए और 5 लाख रुपये फीड, दवाइयां और लेबर की लागत में खर्च होते हैं।
एक बकरी हर दो साल में औसतन 3 बार बच्चे पैदा करती है और हर बार औसतन दो बच्चे होते हैं।
ये बच्चे तकरीबन एक वर्ष में बिक्री योग्य हो जाते हैं, जिससे किसान के लिए आमदनी का एक निरंतर स्रोत बनता है। इसके अलावा, बकरियों से दूध प्राप्त होता है, जो बाजार में काफी महंगा बिकता है।
ये भी पढ़ें: बकरी पालन (Goat Farming) को प्रोत्साहित करने के लिए ऋण और अनुदान
राजेंद्र कुमार ने बताया कि बकरी पालन को प्रोत्साहन देने के लिए सरकार कृषकों को विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत मदद प्रदान करती है।
NLM योजना के अंतर्गत बकरी पालन करने के लिए कृषकों को अनुदान भी उपलब्ध कराया जाता है।
इसके अनुरूप, 100 बकरियों पर 10 लाख रुपये, 200 बकरियों पर 20 लाख रुपये और 300 बकरियों पर 30 लाख रुपये तक का अनुदान सरकार प्रदान करती है।
यह धनराशि किसानों को दो किस्तों में प्रदान की जाती है। पहली किस्त प्रोजेक्ट प्रस्तुत करने पर मिलती है और दूसरी किस्त बकरियों की खरीद के उपरांत मिलती है।
इसमें किसानों को किसी भी तरह की धनराशि पहले से जमा नहीं करनी होती है, जिससे यह योजना और भी अधिक आकर्षक बन जाती है।
उन्होंने आगे बताया कि उनकी पत्नी रेखा ने भी NLM (National Livestock Mission) योजना के तहत, बकरी पालन करने के लिए सब्सिडी के लिए आवेदन किया है।a
किसान भाइयों आज हम ट्रैक्टरचॉइस के इस लेख में बारहमासी जड़ी-बूटी की श्रेणी के अंतर्गत आने वाले ऑरिगेनो की खेती के बारे जानकारी प्रदान करने वाले हैं।
जानकारी के लिए बतादें, कि ऑरिगेनो का वैज्ञानिक नाम ओरिजिनम वल्गारे है। प्रोटीन, फैट, फाइबर के साथ-साथ विभिन्न मिनरल्स से युक्त ऑरिगेनो के कई सारे स्वास्थ्य लाभ भी होते हैं।
दरअसल, ऑरिगेनो के पौधे की जड़ें अधिक गहराई तक नहीं जाने की वजह से आप इसका उत्पादन कम गहराई वाले गमले में भी काफी आसानी से कर सकते हैं।
कृषि विज्ञान केंद्रों और बीज भंडार की दुकानों पर विभिन्न प्रकार के उन्नत किस्म के ऑरिगेनो के बीज उपलब्ध हैं।
अगर हम ऑरिगेनो के फसलीय विकास की बात करें तो इसके बीज की बुवाई के बाद लगभग 3 महीने के समयांतराल पर यह कटाई के लिए तैयार हो जाता है।
जानकारी के लिए बतादें कि गर्म वातावरण में ऑरिगेनो के बीजों का अंकुरण काफी ज्यादा अच्छा होता है। इस वक्त बुवाई के तकरीबन 7 से 14 दिन में बीज अंकुरित हो जाते हैं।
जानकारी के लिए बतादें, कि ऑरिगेनो को बिजाई बीज अथवा कटिंग दोनों ही विधियों के जरिए से की जा सकती है।
ये भी पढ़ें: भारतीय कृषि में जैविक खेती की बढ़ती लोकप्रियता की वजह
ऑरिगेनो का पौधा अम्लीय से तटस्थ व पोषक तत्वों से युक्त रेतीली मृदा में अच्छी तरह से उग जाता है।
ऑरिगेनो की उन्नत खेती के लिए मृदा का पीएच मान 6.5 से 7 के मध्य होना चाहिए। इसके साथ साथ जमीन में समुचित जल निकासी की व्यवस्था होनी चाहिये।
गमले की मृदा को अधिक उपजाऊ और पोषणयुक्त बनाने हेतु आप इसमें जैविक खाद जैसे पुरानी सड़ी हुई गोबर की खाद और वर्मीकम्पोस्ट इत्यादि का मिश्रण कर सकते हैं।
अगर पौधे लगाने के लिए मिट्टी की उपलब्धता का अभाव है, तो आप पोटिंग मिश्रण का भी उपयोग कर सकते हैं।
ऑरिगेनो को किचन गार्डन अथवा गमले की मृदा में बड़ी आसानी से उगाया जा सकता है। ऑरिगेनो की सफल उपज लेने के लिए गर्म जलवायु की जरूरत पड़ती है।
अगर आप अपने घर में ऑरिगेनो की खेती करना चाहते हैं, तो इसको वर्ष के किसी भी महीने में लगाया जा सकता है।
वहीं, यदि आप इसका उत्पादन बाहर बगीचे में करते हैं, तो गर्मी के प्रारंभ में आप ऑरिगेनो की बुवाई कर सकते हैं।
ऑरिगेनो का उत्पादन करते वक्त इस बात का विशेष ध्यान रखें कि पौधे को प्रति दिन तकरीबन 6-8 घंटे धूप मिल जाए।
वहीं अगर आप ऑरिगेनो को घर के अंदर उगाना चाहते हैं, तो आप इसे खिड़की के आस पास रख सकते हैं, जहां पौधे को अच्छी धूप मिल सके।
किसान भाइयों अगर आप खेती से ज्यादा मुनाफा कमाना चाहते हैं, तो आपको लीक से हटकर फसलीय उत्पादन करना होगा।
परंपरागत खेती से किसानों को काफी अच्छा मुनाफा अर्जित करना पड़ता है। ब्रोकली भारतीय कृषकों की आमदनी को बढ़ाने वाली काफी सहायक फसल है।
ब्रोकली एक शीतकालीन फसल है, इसका मुख्य रूप से उत्पादन बसंत ऋतु में किया जाता है।
ब्रोकली की फसल में कैल्शियम, आयरन और विटामिन इत्यादि पोषक भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं। ब्रोकली की फसल में 3.3% फीसद प्रोटीन और विटामिन ए और सी की पर्याप्त मात्रा विघमान होती है।
ब्रोकली की फसल के अंदर रिवोफलाईन , नियासीन और थियामाइन की काफी मात्रा में शामिल होती है। साथ ही, कैरोटिनोइड्ज भी काफी अच्छी मात्रा में पाया जाता है।
ब्रोकली का उपयोग विशेष रूप से लोग सलाद के रूप में करते हैं। साथ ही, इसको हल्का पकाकर भी खाने के लिए प्रयोग किया जा सकता है। इसको विशेष तौर पर ताजा, ठंडा करके अथवा सलाद के लिए बिक्री किया जाता है।
ब्रोकली की खेती के लिए उचित एवं शानदार वृद्धि हेतु नमी वाली मृदा की आवश्यकता पड़ती है। ब्रोकली की खेती के लिए बेहतरीन खाद वाली मृदा अच्छी मानी जाती है।
ब्रोकली की खेती के लिए मृदा का pH मान 5.0-6.5 तक होना चाहिए। सामान्यतः ब्रोकली (Broccoli) के पौधों के समुचित वृद्धि और विकास के लिए ठंडी और आर्द जलवायु उपयुक्त होती है।
ये भी पढ़ें: World Soil Day 2023 : विश्व मृदा दिवस क्या है इस साल की थीम?
ब्रोकली की पालम समृद्धि किस्म वर्ष 2015 में विकसित की गई थी। पालम समृद्धि किस्म में कोमल, बड़े और हरे रंग के पत्ते लगते हैं।
ब्रोकली का फल गोल, घना और हरे रंग का होता है। ब्रोकली के फल का औसतन वजन 300 ग्राम होता है।
पालम समृद्धि किस्म लगाने से 70—75 दिन के समयांतरल पर पक जाती हैं। साथ ही, पालम समृद्धि किस्म की औसतन उपज 72 क्विंटल प्रति एकड़ तक होती है।
पंजाब ब्रोकली-1 किस्म 1996 में जारी की गई है। पंजाब ब्रोकली-1 के पत्ते कोमल, मुड़े हुऐ और गहरे हरे रंग के होते हैं।
ब्रोकली की इस किस्म का फल घना और आकर्षक होता है। यह किस्म 65 दिनों के समयांतराल में पककर तैयार हो जाती है।
साथ ही, इसकी औसतन उपज की बात करें तो वह 70 क्विंटल प्रति एकड़ तक होती है। यह किस्म सलाद और खाना बनाने के लिए काफी ज्यादा अनुकूल होती है।
ये भी पढ़ें: खुबानी की खेती से जुड़ी विस्तृत जानकारी
ब्रोकली की बिजाई के लिए मध्य अगस्त से मध्य सितंबर तक का समय सबसे अच्छा रहता है। ब्रोकली की खेती के लिए कतार से कतार की दूरी 45X45 सें.मी. रखना चाहिए।
बीज की गहराई 1—1.5 सें.मी तक होनी चाहिए। ब्रोकली की बिजाई कतारों में या छिडकाव विधि से भी की जा सकती है।
वहीं, अगर बीज की मात्रा की बात करें तो एक एकड़ खेत में बिजाई के लिए 250 ग्राम बीजों का इस्तेमाल करें।
अगर हम ब्रोकली के बीजोपचार की बात करें तो मिट्टी से पैदा होने वाली बीमारियों से बचाव के लिए बिजाई से पहले बीजों को गर्म पानी (58 डिगरी सेल्सियस) में 30 मिनट के लिए रखकर उपचार करें।
ये भी पढ़ें: जानिए रबी की कौन-सी फसलों की बिजाई के क्षेत्रफल में गिरावट दर्ज की गई है ?
ब्रोकली की फसल में खरपतवारों की रोकथाम करने के लिए रोपाई से पूर्व फलूक्लोरालिन (बसालिन) 1—2 लीटर को प्रति 600—700 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ भूमि में स्प्रे करें।
साथ ही, ब्रोकली के रोपण से 30—40 दिनों के समयांतराल पर हाथ से गुड़ाई करें। नवीन पौधों की रोपाई से एक दिन पूर्व पैंडीमैथालिन 1 लीटर प्रति एकड़ पर छिड़काव करें।
अगर हम ब्रोकली की फसल में सिंचाई की बात करें तो रोपण के शीघ्रोपरान्त प्रथम सिंचाई करें। मृदा एवं जलवायु या मौसम के अनुरूप ग्रीष्मकाल में 7—8 की समयावधि और सर्दियों में 10—15 दिनों के समयांतराल पर सिंचाई करनी अच्छी होती है।
निमाटोड की रोगिक अवस्था के समय पौधे के विकास में काफी गिरावट और पौधे का पीला पड़ना आदि शामिल है।
निमाटोड पर नियंत्रण पाने के लिए इसके प्रकोप की स्थिति में 5 किलो फोरेट या कार्बोफ्यूरॉन 10 किलो प्रति एकड़ के अनुरूप खेत में बुरक देनी चाहिए।
ये भी पढ़ें: मसूर की खेती के लिए उपयुक्त मृदा, किस्म, खरपतवार प्रबंधन और सिंचाई
चमकीली पीठ वाला पतंगा का लार्वा पत्तों की ऊपरी और निचली सतह को पूरी तरह बर्बाद कर देता है। इसके फलस्वरूप यह पूरे पौधे को काफी ज्यादा क्षति पहुँचाता है।
इसकी रोकथाम के लिए प्रकोप की अवस्था में स्पिनोसैड 25% फीसद एस सी 80 मि.ली. को प्रति 150 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।
थ्रिप्स काफी छोटे कीट होते हैं, जो कि हल्के पीले से हल्के भूरे रंग के होते हैं। साथ ही, इसके लक्षण तबाह सिल्वर रंग के पत्ते हो जाते हैं।
इस पर काबू पाने के लिए कृषक ध्यान रखें कि अगर चेपे और तेले का नुकसान ज्यादा हो तो इमीडाक्लोप्रिड 17.8 एस एल 60 मि.ली. को प्रति 150 लीटर पानी मिश्रित कर प्रति एकड़ पर छिड़काव अवश्यक करें।
सफेद फंगस बीमारी स्लैरोटीनिया स्लैरोटियोरम की वजह से होती है। इसके हमले से पत्तों और तनों पर अनियमित और सलेटी रंग के धब्बे आने शुरू हो जाते हैं।
अगर कृषकों को अपने खेत में इस बीमारी के लक्षण दिखाई दें तो ऐसी स्थिति में कृषक मैटालैक्सिल+मैनकोजेब 2 ग्राम प्रति लीटर पानी का अवश्य छिड़काव करें और 10 दिनों के फासले पर समकुल 3 छिड़काव करें।
किसान भाइयों आज ट्रैक्टरचॉइस के इस लेख में हम गोबर के खाद से होने वाले लाभ और हानि के विषय पर बात करेंगे।
दरअसल, बढ़ती महंगाई और गिरती खाद्य गुणवत्ता की वजह से किसान अब पुनः गोबर की खाद की तरफ रुख कर रहे हैं। लेकिन, गोबर की खाद का खेत में सही तरीके से उपयोग करना भी बेहद जरूरी है।
किसान गोबर की खाद का इस्तेमाल कर कम लागत में काफी शानदार उपज और गुणवत्तापूर्ण फसल प्राप्त कर सकते हैं।
आइये हम जानेंगे कि गोबर की खाद से किसान और खेती को क्या फायदे और नुकसान होते हैं।
कृषक साथियों, गोबर की खाद का फसलों में उपयोग करने से पौधों को भरपूर मात्रा में पोषक तत्व मिल जाते हैं। गोबर खाद को इस कारण से पूर्ण खाद के नाम से भी जाना जाता है।
खेतों में गोबर की खाद का असर 2 से 3 वर्ष के समयावधि तक बना रहता है। खेतों में गोबर की खाद का इस्तेमाल करने के परिणामस्वरूप जमीन की जल धारण क्षमता काफी हद तक बढ़ जाती है।
गोबर की खाद से जमीन में वायु का संचार भी काफी बेहतर होता है।
जमीन का ताप सुव्यवस्थित रखने में गोबर की खाद की अहम भूमिका होती है । गोबर की खाद की वजह से मृदा में स्थिरता बनी रहती है, जिससे मृदा कटाव की स्थिति कम उत्पन्न होती है।
गोबर की खाद से जमीन की भौतिक, रासायनिक एवं जैविक दशा में सकारात्मक सुधार होता है।
गोबर की खाद से खेतों में लाभकारी जीवाणुओं की तादात काफी बढ़ती है। इसके इस्तेमाल से भारी किस्म की मृदाओं की संरचना में भी सुधार होता है।
गोबर की खाद का इस्तेमाल करने से पौधों की जड़ों का शानदार विकास होता है। जमीन के कार्बनिक पदार्थों की मात्रा में बढ़ोतरी होती है।
जीवाणुओं द्वारा जमीन में वायुमंडल की नाइट्रोजन का काफी अधिक मात्रा में स्थरीकरण होता है। फास्फोरस एवं पोटाश सरल यौगिक में आकर पौधों को आसानी से प्राप्त होने लगते हैं।
पौधों के संतुलित विकास में गोबर की खाद का काफी महत्व होता है। गोबर की खाद हर तरह की जमीन में समस्त फसलों के लिए इस्तेमाल की जा सकती है।
गोबर की खाद का अत्यधिक मात्रा में इस्तेमाल करने पर भी फसलों को किसी प्रकार की क्षति नहीं पहुँचती है। गोबर की खाद का इस्तेमाल करने से फसलीय उपज में बढ़ोतरी होती है।
इससे किसान की आमदनी में भी काफी हद तक बढ़ोतरी होती है। गोबर की खाद में ऊसर जमीनों का भी सुधार करने की क्षमता होती है।
ये भी पढ़ें: जैविक खेती की महत्ता, लाभ और सिद्धांतों के बारे में जानें
कृषक साथियों, कच्ची गोबर की खाद से खेती में काफी नुकसान होने की संभावना होती है। खेत के अंदर कभी भी सीधे गोबर नहीं डालना चाहिए, क्योंकि इससे फसल को काफी ज्यादा हानि होती है।
गोबर डालने से खेत में कीड़ों का खतरा बढ़ जाता है, इससे खेत में कीड़े लग सकते हैं। गोबर में मीथेन गैस पाई जाती है जो की पौधों के लिए बहुत नुकसानदायक साबित होती है।
आपको गोबर का इस्तेमाल करने से पहले इसको खाद के रूप में तैयार करना बहुत जरूरी है। जिसके लिए आपको गोबर को अच्छे से सड़ा करके इसको ठंडा करना होगा तभी इससे मीथेन गैस निकल पाएगी।
आपको इस गोबर को 15 दिन तक किसी ठंडी छाव वाले स्थान पर पानी डालकर रखना होगा। इसके बाद गोबर खाद में बदलना प्रारंभ होगा। इसके बाद गोबर से तैयार की गई खाद फसलों के लिए लाभकारी सिद्ध होगी।
सोनालीका ने अपना नाम फॉर्चून 500 की सूची में शामिल कर एक नया कीर्तिमान स्थापित कर दिया है।
कई सारी सफलताओं के शिखर पर पहुँचकर भारत के नंबर 1 ट्रैक्टर निर्यात ब्रांड सोनालीका ने अपनी उपलब्धियों में एक और उपलब्धि को हांसिल कर लिया है।
देश की सबसे बड़ी कंपनियों में प्रतिष्ठित फॉर्च्यून 500 इंडिया सूची में एक शानदार शुरुआत कर डाली है।
बातादें, कि भारत में तीसरे सबसे बड़े ट्रैक्टर निर्माता को फॉर्च्यून की लिस्ट में टॉप 10 ऑटो ब्रांडों में शामिल कर लिया गया है।
सोनालीका की इस अपार सफलता के पीछे इसका कृषकों के मन में विश्वास, आपसी सम्मान और किसानों के साथ प्रगाढ़ रिश्ते की भूमिका रही है।
सोनालीका के चेयरमैन श्री एलडी मित्तल ने जोर देकर कहा, "अगर हम बेहतरीन गुणवत्ता वाले ट्रैक्टर बनाते हैं, किसानों की जरूरतों को समझते हैं और नैतिक व्यवसाय करते हैं, तो हमारी प्रगति किसानों के उत्थान से धन्य होगी"
फॉर्च्यून 500 इंडिया सूची में सोनालीका को मिली शानदार सफलता और कीर्ति के पीछे उत्कृष्टता की निरंतर खोज और भारत भर में कृषकों को मजबूत बनाने के लिए अटूट प्रतिबद्धता का जज्बा है।
सोनालीका कंपनी ने ट्रैक्टर उद्योग में अपना दबदबा बनाने के लिए सदैव से अपने 3 मुख्य सिद्धांतों पर कार्य किया है। सोनालीका के तीन मुख्य सिद्धांत निम्नलिखित हैं।
ये भी पढ़ें: जानिए दमदार प्रदर्शन और अद्भुत खूबियों वाले ट्रैक्टर सोनालिका एमएम 18 के बारे में
सोनालीका ने हमेशा अपने ग्राहकों को सर्वश्रेष्ठ देने में विश्वास किया है और अपने हेवी ड्यूटी ट्रैक्टरों में गुणवत्ता से कभी समझौता नहीं किया है।
कंपनी ने अपने ट्रैक्टरों को उनकी फसल और क्षेत्र केंद्रित आवश्यकताओं के अनुसार लगातार अनुकूलित किया है, जिसने इसके हेवी ड्यूटी ट्रैक्टरों के लिए किसानों का अपार प्यार अर्जित किया है।
हर किसान की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए, सोनालीका ने दुनिया का सबसे बड़ा एकीकृत ट्रैक्टर निर्माण संयंत्र भी स्थापित किया है जो सिर्फ़ 2 मिनट में एक नया ट्रैक्टर बना सकता है।
यह प्लांट रोबोट और ऑटोमेशन तकनीक से लैस है और कंपनी को अपने इंजन, ट्रांसमिशन, प्लास्टिक और शीट मेटल पार्ट्स बनाने में सक्षम बनाता है।
आज यह प्लांट 2000 ट्रैक्टर वैरिएंट बना सकता है जिन्हें दुनिया भर के 150 से ज़्यादा देशों में निर्यात किया जाता है।
सोनालीका एक विश्वसनीय ट्रैक्टर ब्रांड है जिसने हमेशा अपने लोगों को प्राथमिकता दी है - चाहे वह उसके किसान हों, साझेदार हों या कर्मचारी।
इस दृष्टिकोण ने सोनालीका को विश्वास और वफादारी का बंधन बनाने में मदद की है जिसने अंततः फॉर्च्यून 500 इंडिया ब्रांड्स में शामिल होने में इसकी सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
कोविड 19 के कठिन समय के दौरान भी, सोनालीका अपने लोगों तक पहुँचने में सबसे आगे रहा और समय पर वेतन का भुगतान किया, अपने विक्रेताओं को अग्रिम भुगतान किया और अपने सभी कर्मचारियों को बनाए रखा।
ये भी पढ़ें: सोनालीका डीआई 745 III RX ट्रैक्टर की आकर्षक विशेषताओं की जानकारी
सोनालीका की सफलता का सबसे महत्वपूर्ण तत्व इसका व्यावसायिक नैतिकता ढांचा है जो इसे किसानों की ज़रूरतों के हिसाब से ढलने और केवल गुणवत्तापूर्ण उत्पाद देने की अनुमति देता है।
सोनालीका कोई शॉर्टकट नहीं अपनाने में विश्वास करती है, लेकिन अपनी प्रतिबद्धता को लगातार पूरा करने के लिए हमेशा विश्वसनीय रास्तों का अनुसरण करती है।
शुरुआत में अस्तित्व का सवाल होने के बावजूद, कंपनी ने कर्ज मुक्त रहने और लागत को गौण रखते हुए सर्वोत्तम गुणवत्ता वाले ट्रैक्टर बनाने के अपने दृष्टिकोण का पालन किया। सोनालीका आने इन्हीं तीन सिद्धातों की वजह से वर्तमान में 1.1 बिलियन डॉलर की कंपनी बन गई है।
कृषक साथियों, श्वेत क्रांति या ऑपरेशन फ्लड की वजह से भारत के डेयरी उद्योग ने नवीन बुलंदियों को छूने की कवायद शुरू की थी।
इस कार्यक्रम ने भारत को दुनियाभर में सर्वोच्च दुग्ध उत्पादक बनाने का कार्य किया। श्वेत क्रांति की वजह से देश के ग्रामीण किसानों का सशक्तिकरण और एक दमदार डेयरी अर्थव्यवस्था बनाया गया।
सिर्फ इतना ही नहीं श्वेत क्रांति के परिणामस्वरूप भारत को दूध के आयात हेतु अन्य देशों के ऊपर निर्भर रहने की जरूरत नहीं पड़ी।
भारत के अंदर श्वेत क्रांति को ऑपरेशन फ्लड के नाम से भी मशहूर है। अगर हम सामान्य शब्दों में जानें तो दूध उत्पादन बढ़ाने के लिए अपनाए गए पैकेज प्रोग्राम को भारत में श्वेत क्रांति कहा जाता है।
श्वेत क्रांति की शुरुआत 1970 में हुई थी। दरअसल, उस वक्त सहकारी समितियों के जरिए से डेयरी विकास को संगठित करने के लिए राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (NDDB) का गठन किया गया था।
श्वेत क्रांति की बदौलत भारत विश्व का सबसे बड़ा दूध उत्पादक देश के रूप में उभरकर सामने आया।
फलस्वरूप, पशुपालक और डेयरी संचालन करने वाले कृषकों की आजीविका में सकारात्मक सुधार हुआ और ग्रामीण विकास को भी काफी प्रोत्साहन मिला। भारत में श्वेत क्रांति के जनक प्रोफेसर वर्गीज कुरियन थे।
ये भी पढ़ें: दूध की मशीन के नाम से जानी जाती है इस नस्ल की भैंस
भारत में हुई श्वेत क्रांति का मुख्य उद्देश्य दूध की पर्याप्त मात्रा में उपलब्धता और दुग्ध बिक्री में वृद्धि सहित परिवहन और भंडारण का प्रबंधन ठंडे उपकरणों में करना था।
इसके साथ ही पशुपालकों के पशुओं के लिए चारे की समुचित व्यवस्था कराना है। सहकारी समितियों द्वारा विभिन्न दुग्ध उत्पादों का उत्पादन और उन उत्पादों की बड़े स्तर पर मार्केटिंग भी करना है।
श्वेत क्रांति का लक्ष्य मवेशी नस्लों (गाय और भैंस) की बेहतरी, उत्तम स्वास्थ्य सेवाएँ, पशुओं की चिकित्सा, कृत्रिम गर्भाधान सुविधाएँ और सहकारी समितियों के विशाल समूह के अनुरूप तकनीक के जरिए से डेयरी उद्योग का प्रबंधन करना।
गांव के संग्रहण केंद्र पर दूध इकठ्ठा करने के पश्चात उसको जल्द से जल डेयरी केंद्र तक पहुँचाना।
किसान और डेयरी के मध्य आने वाले अनावश्यक बिचौलियों की दखल को कम करने के मकसद शीतलन केन्द्रों का प्रबंधन उत्पादक सहकारी संघों द्वारा किया जाता है।
श्वेत क्रांति की वजह से काफी बड़ी संख्या में भारतीय कृषकों और पशुपालकों को आर्थिक तौर पर मजबूती मिली। श्वेत क्रांति के परिणामस्वरूप किसान सिर्फ और सिर्फ कृषि पर ही पूर्णतय निर्भर नहीं रहे।
जैसा कि हम सब जानते हैं कि सामान्यतः कृषकों को मौसम और अन्य कारणों की वजह से फसल उत्पादन उनकी आशा के अनुरूप नहीं मिल पाता है। ऐसी स्थिति में किसानों को काफी ज्यादा आर्थिक नुकसान वहन करना पड़ता था।
अब कृषकों के पास ऐसी स्थिति में उनके जीवनयापन के लिए नियमित आय का स्रोत दूध उत्पादन को बना लिया।
नतीजतन, इसकी वजह से किसानों की आर्थिक स्थिति में काफी सुधार हुआ और उनकी आय में भी काफी वृद्धि हुई।
श्वेत क्रांति के चलते केवल किसान ही नहीं बल्कि महिलाओं के लिए भी आमदनी के बेहतरीन अवसर प्रदान करने का कार्य किया।
दूध उत्पादन और वितरण के लिए महिलाओं को रोजगार का अवसर मिला और वे आर्थिक रूप से सशक्त हुईं।
आत्मनिर्भरता के साथ महिलाओं को समाज के अंदर एक नई पहचान मिली और उनका आत्मविश्वास और मनोबल भी काफी बढ़ गया।