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बकरी पालन से जुड़ी जानकारी सफल बकरी पालक राजेंद्र की जुबानी
बकरी पालन से जुड़ी जानकारी सफल बकरी पालक राजेंद्र की जुबानी

कृषि क्षेत्र में आए नवीन परिवर्तनों के चलते वर्तमान में बकरी पालन कृषकों के लिए एक बेहतरीन आमदनी देने वाला व्यवसाय बन चुका है। 

इसको पारंपरिक व्यवसाय के तौर पर देखा जाता है, परंतु जब इसको अच्छे तरीके से किया जाए, तो यह शानदार मुनाफे वाला काम सिद्ध हो सकता है। 

राजेंद्र कुमार, जो कि राजस्थान के बालोतरा जनपद में पशुधन निरीक्षक के पद पर कार्यरत हैं, उनका यह अनुभव काफी ज्यादा प्रेरणादायक है। 

उन्होंने बकरी पालन व्यवसाय को अपनी अन्य आमदनी का बेहतरीन स्रोत बना लिया है और अब वह इसके फायदे और महत्त्व को भली-भाँति समझते हैं।

राजेंद्र कुमार के बकरी पालन का सफर  

सफल बकरी पालक राजेंद्र कुमार ने अपने बकरी पालन के सफर के बारे में बताते हुए कहा, कि हमेशा से उनके परिवारी जन बकरी पालन करते आए हैं, लेकिन 7-8 साल पहले उन्होंने अपनी पत्नी के नाम पर इसे व्यावसायिक स्तर पर प्रारंभ किया। 

2017 में जब उन्होंने पशुधन निरीक्षक के रूप में सरकारी नौकरी शुरू की, तब उन्होंने महसूस किया कि बकरी पालन एक अच्छा और लाभकारी व्यवसाय हो सकता है। 

इसके बाद उन्होंने और उनकी पत्नी रेखा ने मिलकर ‘थार गोट फार्म’ की स्थापना की, और बकरी पालन को एक व्यवासिक रूप में अपनाया और सफलता हांसिल की है।

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बकरी पालन के लिए नस्ल के चयन की क्या भूमिका है ? 

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि बकरी पालन के अंतर्गत बकरी का पालन करने के लिए नस्ल का चयन करना सबसे महत्वपूर्ण होता है। 

राजेंद्र कुमार के मुताबिक, किसानों को अपनी क्षेत्रीय नस्ल के आधार पर बकरी का चुनाव करना चाहिए। 

राजेंद्र कुमार के क्षेत्र में सोजत और मारवाड़ी नस्ल की बकरियां सबसे अनुकूल मानी जाती हैं। इन नस्लों की बकरियां इस वातावरण में बड़ी सुगमता से घुल-मिल जाती हैं और इनकी बढ़त भी काफी अच्छी होती हैं। 

हालाँकि, बकरी की कई सारी नस्लें हैं, जैसे कि चम्बा, गद्दी, कश्मीरी, जमुनापरी, पश्मीना, बरबरी, बीटल, टोगनबर्ग, सिरोही, ब्लैक बंगाल, ओस्मानाबादी, करौली, सोजत, गूजरी, जखराना आदि नस्लें भी हैं। 

कृषकों के लिए बकरी पालन काफी शानदार और फायदेमंद व्यवसाय है। यदि कोई किसान 100 बकरियों से बकरी पालन प्रारंभ करता है, तो वह समस्त खर्चों के बावजूद बकरी पालन के कारोबार से मासिक 50,000 रुपये तक की आय अर्जित कर सकता है।

बकरी पालन के लिए कैसी जगह होनी चाहिए ?

बकरी पालन के लिए सही जगह का चुनाव करना काफी ज्यादा जरूरी होता है। बकरियों का शेड घर से काफी दूर होना चाहिए, जिससे यह वातावरण में शांति और स्वच्छता को बरकरार बनाए रखें। 

शेड का निर्माण पूरब से पश्चिम की दिशा में ही करना चाहिए, जिससे बकरियों को सूरज का प्रकाश सही तरीके से मिले और वहां उचित मात्रा में हवा का प्रवाह भी होना चाहिए। 

इसके अतिरिक्त, शेड की जगह गीली और कच्ची नहीं होनी चाहिए। क्योंकि, इससे बकरियों के स्वास्थ्य पर काफी प्रभाव पड़ सकता है। 

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बकरियों के लिए उचित आहार और स्वास्थ्य 

बकरियों की देखभाल के लिए कई बातों का खास ध्यान रखना आवश्यक होता है। सबसे पहले, बकरियों को अच्छा आहार देना चाहिए। 

अगर हरा चारा उपलब्ध नहीं हो, तो सूखा चारा (जैसे भूसा, चारा, आदि) दिया जा सकता है। 

साथ ही, बकरियों को उनके वजन के अनुसार मिनरल्स भी खिलाने चाहिए, जिससे उनकी सेहत सही बनी रहे। बकरियों के स्वास्थ्य के लिए नियमित टीकाकरण और कीड़ों से बचाव की भी जरूरत होती है। 

राजेंद्र कुमार के अनुसार, बकरियों को साल में 3 बार पेट के कीड़े से बचाव के लिए दवाइयां दी जानी चाहिए और 2 बार वैक्सीनेशन करवाना चाहिए। 

बकरी पालन से कितना मुनाफा अर्जित होगा ?

बकरी पालन के प्रारंभ में काफी अच्छा निवेश करना पड़ता है, परंतु बकरी पालक को आहिस्ते-आहिस्ते लाभ मिलना शुरू हो जाता है। 

राजेंद्र कुमार के अनुसार, अगर कोई किसान 100 बकरियों से व्यवसाय की शुरुआत करना चाहता है, तो उसे करीब 25 लाख रुपये का प्रारंभिक निवेश करना पड़ सकता है। 

इसमें 10 लाख रुपये शेड के निर्माण के लिए, 10 लाख रुपये बकरे-बकरियों की खरीदारी के लिए और 5 लाख रुपये फीड, दवाइयां और लेबर की लागत में खर्च होते हैं। 

एक बकरी हर दो साल में औसतन 3 बार बच्चे पैदा करती है और हर बार औसतन दो बच्चे होते हैं। 

ये बच्चे तकरीबन एक वर्ष में बिक्री योग्य हो जाते हैं, जिससे किसान के लिए आमदनी का एक निरंतर स्रोत बनता है। इसके अलावा, बकरियों से दूध प्राप्त होता है, जो बाजार में काफी महंगा बिकता है।

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बकरी पालन के लिए सरकार की तरफ से क्या सहयोग मिलता है ? 

राजेंद्र कुमार ने बताया कि बकरी पालन को प्रोत्साहन देने के लिए सरकार कृषकों को विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत मदद प्रदान करती है। 

NLM योजना के अंतर्गत बकरी पालन करने के लिए कृषकों को अनुदान भी उपलब्ध कराया जाता है। 

इसके अनुरूप, 100 बकरियों पर 10 लाख रुपये, 200 बकरियों पर 20 लाख रुपये और 300 बकरियों पर 30 लाख रुपये तक का अनुदान सरकार प्रदान करती है। 

यह धनराशि किसानों को दो किस्तों में प्रदान की जाती है। पहली किस्त प्रोजेक्ट प्रस्तुत करने पर मिलती है और दूसरी किस्त बकरियों की खरीद के उपरांत मिलती है। 

इसमें किसानों को किसी भी तरह की धनराशि पहले से जमा नहीं करनी होती है, जिससे यह योजना और भी अधिक आकर्षक बन जाती है। 

उन्होंने आगे बताया कि उनकी पत्नी रेखा ने भी NLM (National Livestock Mission) योजना के तहत, बकरी पालन करने के लिए सब्सिडी के लिए आवेदन किया है।a

घर में ऑरिगेनो की खेती
घर में ऑरिगेनो की खेती

किसान भाइयों आज हम ट्रैक्टरचॉइस के इस लेख में बारहमासी जड़ी-बूटी की श्रेणी के अंतर्गत आने वाले ऑरिगेनो की खेती के बारे जानकारी प्रदान करने वाले हैं। 

जानकारी के लिए बतादें, कि ऑरिगेनो का वैज्ञानिक नाम ओरिजिनम वल्गारे है। प्रोटीन, फैट, फाइबर के साथ-साथ विभिन्न मिनरल्स से युक्त ऑरिगेनो के कई सारे स्वास्थ्य लाभ भी होते हैं। 

दरअसल, ऑरिगेनो के पौधे की जड़ें अधिक गहराई तक नहीं जाने की वजह से आप इसका उत्पादन कम गहराई वाले गमले में भी काफी आसानी से कर सकते हैं।

ऑरिगेनो की बिजाई  

कृषि विज्ञान केंद्रों और बीज भंडार की दुकानों पर विभिन्न प्रकार के उन्नत किस्म के ऑरिगेनो के बीज उपलब्ध हैं। 

अगर हम ऑरिगेनो के फसलीय विकास की बात करें तो इसके बीज की बुवाई के बाद लगभग 3 महीने के समयांतराल पर यह कटाई के लिए तैयार हो जाता है। 

जानकारी के लिए बतादें कि गर्म वातावरण में ऑरिगेनो के बीजों का अंकुरण काफी ज्यादा अच्छा होता है। इस वक्त बुवाई के तकरीबन 7 से 14 दिन में बीज अंकुरित हो जाते हैं। 

जानकारी के लिए बतादें, कि ऑरिगेनो को बिजाई बीज अथवा कटिंग दोनों ही विधियों के जरिए से की जा सकती है।

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ऑरिगेनो के लिए अनुकूल मृदा  

ऑरिगेनो का पौधा अम्लीय से तटस्थ व पोषक तत्वों से युक्त रेतीली मृदा में अच्छी तरह से उग जाता है। 

ऑरिगेनो की उन्नत खेती के लिए मृदा का पीएच मान 6.5 से 7 के मध्य होना चाहिए। इसके साथ साथ जमीन में समुचित जल निकासी की व्यवस्था होनी चाहिये। 

गमले की मृदा को अधिक उपजाऊ और पोषणयुक्त बनाने हेतु आप इसमें जैविक खाद जैसे पुरानी सड़ी हुई गोबर की खाद और वर्मीकम्पोस्ट इत्यादि का मिश्रण कर सकते हैं। 

अगर पौधे लगाने के लिए मिट्टी की उपलब्धता का अभाव है, तो आप पोटिंग मिश्रण का भी उपयोग कर सकते हैं।

ऑरिगेनो की खेती के लिए खास बातें  

ऑरिगेनो को किचन गार्डन अथवा गमले की मृदा में बड़ी आसानी से उगाया जा सकता है। ऑरिगेनो की सफल उपज लेने के लिए गर्म जलवायु की जरूरत पड़ती है। 

अगर आप अपने घर में ऑरिगेनो की खेती करना चाहते हैं, तो इसको वर्ष के किसी भी महीने में लगाया जा सकता है।

वहीं, यदि आप इसका उत्पादन बाहर बगीचे में करते हैं, तो गर्मी के प्रारंभ में आप ऑरिगेनो की बुवाई कर सकते हैं।

ऑरिगेनो का उत्पादन करते वक्त इस बात का विशेष ध्यान रखें कि पौधे को प्रति दिन तकरीबन 6-8 घंटे धूप मिल जाए।

वहीं अगर आप ऑरिगेनो को घर के अंदर उगाना चाहते हैं, तो आप इसे खिड़की के आस पास रख सकते हैं, जहां पौधे को अच्छी धूप मिल सके।

ब्रोकली की खेती
ब्रोकली की खेती

किसान भाइयों अगर आप खेती से ज्यादा मुनाफा कमाना चाहते हैं, तो आपको लीक से हटकर फसलीय उत्पादन करना होगा। 

परंपरागत खेती से किसानों को काफी अच्छा मुनाफा अर्जित करना पड़ता है। ब्रोकली भारतीय कृषकों की आमदनी को बढ़ाने वाली काफी सहायक फसल है। 

ब्रोकली एक शीतकालीन फसल है, इसका मुख्य रूप से उत्पादन बसंत ऋतु में किया जाता है। 

ब्रोकली की फसल में कैल्शियम, आयरन और विटामिन इत्यादि पोषक भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं। ब्रोकली की फसल में 3.3% फीसद प्रोटीन और विटामिन ए और सी की पर्याप्त मात्रा विघमान होती है। 

ब्रोकली की फसल के अंदर रिवोफलाईन , नियासीन और थियामाइन की काफी मात्रा में शामिल होती है। साथ ही, कैरोटिनोइड्ज भी काफी अच्छी मात्रा में पाया जाता है। 

ब्रोकली का उपयोग विशेष रूप से लोग सलाद के रूप में करते हैं। साथ ही, इसको हल्का पकाकर भी खाने के लिए प्रयोग किया जा सकता है। इसको विशेष तौर पर ताजा, ठंडा करके अथवा सलाद के लिए बिक्री किया जाता है।  

ब्रोकली की खेती के लिए उपयुक्त मृदा 

ब्रोकली की खेती के लिए उचित एवं शानदार वृद्धि हेतु नमी वाली मृदा की आवश्यकता पड़ती है। ब्रोकली की खेती के लिए बेहतरीन खाद वाली मृदा अच्छी मानी जाती है। 

ब्रोकली की खेती के लिए मृदा का pH मान 5.0-6.5 तक होना चाहिए। सामान्यतः ब्रोकली (Broccoli) के पौधों के समुचित वृद्धि और विकास के लिए ठंडी और आर्द जलवायु उपयुक्त होती है।

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ब्रोकली की मशहूर प्रजातियाँ और उत्पादन क्षमता 

पालम समृद्धि 

ब्रोकली की पालम समृद्धि किस्म वर्ष 2015 में विकसित की गई थी। पालम समृद्धि किस्म में कोमल, बड़े और हरे रंग के पत्ते लगते हैं। 

ब्रोकली का फल गोल, घना और हरे रंग का होता है। ब्रोकली के फल का औसतन वजन 300 ग्राम होता है। 

पालम समृद्धि किस्म लगाने से 70—75 दिन के समयांतरल पर पक जाती हैं। साथ ही, पालम समृद्धि किस्म की औसतन उपज 72 क्विंटल प्रति एकड़ तक होती है। 

पंजाब ब्रोकली-1 

पंजाब ब्रोकली-1 किस्म 1996 में जारी की गई है। पंजाब ब्रोकली-1 के पत्ते कोमल, मुड़े हुऐ और गहरे हरे रंग के होते हैं।

ब्रोकली की इस किस्म का फल घना और आकर्षक होता है। यह किस्म 65 दिनों के समयांतराल में पककर तैयार हो जाती है। 

साथ ही, इसकी औसतन उपज की बात करें तो वह 70 क्विंटल प्रति एकड़ तक होती है। यह किस्म सलाद और खाना बनाने के लिए काफी ज्यादा अनुकूल होती है। 

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ब्रोकली की बिजाई और बीचोपचार 

ब्रोकली की बिजाई के लिए मध्य अगस्त से मध्य सितंबर तक का समय सबसे अच्छा रहता है। ब्रोकली की खेती के लिए कतार से कतार की दूरी 45X45 सें.मी. रखना चाहिए। 

बीज की गहराई 1—1.5 सें.मी तक होनी चाहिए। ब्रोकली की बिजाई कतारों में या छिडकाव विधि से भी की जा सकती है। 

वहीं, अगर बीज की मात्रा की बात करें तो एक एकड़ खेत में बिजाई के लिए 250 ग्राम बीजों का इस्तेमाल करें। 

अगर हम ब्रोकली के बीजोपचार की बात करें तो मिट्टी से पैदा होने वाली बीमारियों से बचाव के लिए बिजाई से पहले बीजों को गर्म पानी (58 डिगरी सेल्सियस) में 30 मिनट के लिए रखकर उपचार करें।

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ब्रोकली की खेती में खरपतवार नियंत्रण और सिंचाई 

ब्रोकली की फसल में खरपतवारों की रोकथाम करने के लिए रोपाई से पूर्व फलूक्लोरालिन (बसालिन) 1—2 लीटर को प्रति 600—700 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ भूमि में स्प्रे करें। 

साथ ही, ब्रोकली के रोपण से 30—40 दिनों के समयांतराल पर हाथ से गुड़ाई करें। नवीन पौधों की रोपाई से एक दिन पूर्व पैंडीमैथालिन 1 लीटर प्रति एकड़ पर छिड़काव करें। 

अगर हम ब्रोकली की फसल में सिंचाई की बात करें तो रोपण के शीघ्रोपरान्त प्रथम सिंचाई करें। मृदा एवं जलवायु या मौसम के अनुरूप ग्रीष्मकाल में 7—8 की समयावधि और सर्दियों में 10—15 दिनों के समयांतराल पर सिंचाई करनी अच्छी होती है।

ब्रोकली में कीट व बीमारियां और उनका इलाज  

निमाटोड 

निमाटोड की रोगिक अवस्था के समय पौधे के विकास में काफी गिरावट और पौधे का पीला पड़ना आदि शामिल है।

निमाटोड पर नियंत्रण पाने के लिए इसके प्रकोप की स्थिति में 5 किलो फोरेट या कार्बोफ्यूरॉन 10 किलो प्रति एकड़ के अनुरूप खेत में बुरक देनी चाहिए।

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चमकीली पीठ वाला पतंगा 

चमकीली पीठ वाला पतंगा का लार्वा पत्तों की ऊपरी और निचली सतह को पूरी तरह बर्बाद कर देता है। इसके फलस्वरूप यह पूरे पौधे को काफी ज्यादा क्षति पहुँचाता है। 

इसकी रोकथाम के लिए प्रकोप की अवस्था में स्पिनोसैड 25% फीसद एस सी 80 मि.ली. को प्रति 150 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।

थ्रिप्स 

थ्रिप्स काफी छोटे कीट होते हैं, जो कि हल्के पीले से हल्के भूरे रंग के होते हैं। साथ ही, इसके लक्षण तबाह सिल्वर रंग के पत्ते हो जाते हैं। 

इस पर काबू पाने के लिए कृषक ध्यान रखें कि अगर चेपे और तेले का नुकसान ज्यादा हो तो इमीडाक्लोप्रिड 17.8 एस एल 60 मि.ली. को प्रति 150 लीटर पानी मिश्रित कर प्रति एकड़ पर छिड़काव अवश्यक करें।

सफेद फंगस की बीमारी  

सफेद फंगस बीमारी स्लैरोटीनिया स्लैरोटियोरम की वजह से होती है। इसके हमले से पत्तों और तनों पर अनियमित और सलेटी रंग के धब्बे आने शुरू हो जाते हैं। 

अगर कृषकों को अपने खेत में इस बीमारी के लक्षण दिखाई दें तो ऐसी स्थिति में कृषक मैटालैक्सिल+मैनकोजेब 2 ग्राम प्रति लीटर पानी का अवश्य छिड़काव करें और 10 दिनों के फासले पर समकुल 3 छिड़काव करें।

गोबर की खाद से होने वाले फायदे और नुकसान
गोबर की खाद से होने वाले फायदे और नुकसान

किसान भाइयों आज ट्रैक्टरचॉइस के इस लेख में हम गोबर के खाद से होने वाले लाभ और हानि के विषय पर बात करेंगे।

दरअसल, बढ़ती महंगाई और गिरती खाद्य गुणवत्ता की वजह से किसान अब पुनः गोबर की खाद की तरफ रुख कर रहे हैं। लेकिन, गोबर की खाद का खेत में सही तरीके से उपयोग करना भी बेहद जरूरी है। 

किसान गोबर की खाद का इस्तेमाल कर कम लागत में काफी शानदार उपज और गुणवत्तापूर्ण फसल प्राप्त कर सकते हैं। 

आइये हम जानेंगे कि गोबर की खाद से किसान और खेती को क्या फायदे और नुकसान होते हैं। 

गोबर की खाद से होने वाले लाभ 

गोबर की खाद का खेती में इस्तेमाल करने से कई तरह के फायदे होते हैं। 

कृषक साथियों, गोबर की खाद का फसलों में उपयोग करने से पौधों को भरपूर मात्रा में पोषक तत्व मिल जाते हैं। गोबर खाद को इस कारण से पूर्ण खाद के नाम से भी जाना जाता है। 

खेतों में गोबर की खाद का असर 2 से 3 वर्ष के समयावधि तक बना रहता है। खेतों में गोबर की खाद का इस्तेमाल करने के परिणामस्वरूप जमीन की जल धारण क्षमता काफी हद तक बढ़ जाती है। 

गोबर की खाद से जमीन में वायु का संचार भी काफी बेहतर होता है।

जमीन का ताप सुव्यवस्थित रखने में गोबर की खाद की अहम भूमिका होती है । गोबर की खाद की वजह से मृदा में स्थिरता बनी रहती है, जिससे मृदा कटाव की स्थिति कम उत्पन्न होती है। 

गोबर की खाद से जमीन की भौतिक, रासायनिक एवं जैविक दशा में सकारात्मक सुधार होता है। 

गोबर की खाद से खेतों में लाभकारी जीवाणुओं की तादात काफी बढ़ती है। इसके इस्तेमाल से भारी किस्म की मृदाओं की संरचना में भी सुधार होता है।

गोबर की खाद का इस्तेमाल करने से पौधों की जड़ों का शानदार विकास होता है। जमीन के कार्बनिक पदार्थों की मात्रा में बढ़ोतरी होती है। 

जीवाणुओं द्वारा जमीन में वायुमंडल की नाइट्रोजन का काफी अधिक मात्रा में स्थरीकरण होता है। फास्फोरस एवं पोटाश सरल यौगिक में आकर पौधों को आसानी से प्राप्त होने लगते हैं। 

पौधों के संतुलित विकास में गोबर की खाद का काफी महत्व होता है। गोबर की खाद हर तरह की जमीन में समस्त फसलों के लिए इस्तेमाल की जा सकती है।

गोबर की खाद का अत्यधिक मात्रा में इस्तेमाल करने पर भी फसलों को किसी प्रकार की क्षति नहीं पहुँचती है। गोबर की खाद का इस्तेमाल करने से फसलीय उपज में बढ़ोतरी होती है। 

इससे किसान की आमदनी में भी काफी हद तक बढ़ोतरी होती है। गोबर की खाद में ऊसर जमीनों का भी सुधार करने की क्षमता होती है।

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कच्चे गोबर की खाद से क्या-क्या नुकसान होते हैं ? 

कृषक साथियों, कच्ची गोबर की खाद से खेती में काफी नुकसान होने की संभावना होती है। खेत के अंदर कभी भी सीधे गोबर नहीं डालना चाहिए, क्योंकि इससे फसल को काफी ज्यादा हानि होती है। 

गोबर डालने से खेत में कीड़ों का खतरा बढ़ जाता है, इससे खेत में कीड़े लग सकते हैं। गोबर में मीथेन गैस पाई जाती है जो की पौधों के लिए बहुत नुकसानदायक साबित होती है। 

आपको गोबर का इस्तेमाल करने से पहले इसको खाद के रूप में तैयार करना बहुत जरूरी है। जिसके लिए आपको गोबर को अच्छे से सड़ा करके इसको ठंडा करना होगा तभी इससे मीथेन गैस निकल पाएगी। 

आपको इस गोबर को 15 दिन तक किसी ठंडी छाव वाले स्थान पर पानी डालकर रखना होगा। इसके बाद गोबर खाद में बदलना प्रारंभ होगा। इसके बाद गोबर से तैयार की गई खाद फसलों के लिए लाभकारी सिद्ध होगी।

सोनालीका फॉर्चून 500 इंडिया की सूची में शामिल
सोनालीका फॉर्चून 500 इंडिया की सूची में शामिल

सोनालीका ने अपना नाम फॉर्चून 500 की सूची में शामिल कर एक नया कीर्तिमान स्थापित कर दिया है। 

कई सारी सफलताओं के शिखर पर पहुँचकर भारत के नंबर 1 ट्रैक्टर निर्यात ब्रांड सोनालीका ने अपनी उपलब्धियों में एक और उपलब्धि को हांसिल कर लिया है। 

देश की सबसे बड़ी कंपनियों में प्रतिष्ठित फॉर्च्यून 500 इंडिया सूची में एक शानदार शुरुआत कर डाली है। 

बातादें, कि भारत में तीसरे सबसे बड़े ट्रैक्टर निर्माता को फॉर्च्यून की लिस्ट में टॉप 10 ऑटो ब्रांडों में शामिल कर लिया गया है। 

सोनालीका की इस अपार सफलता के पीछे इसका कृषकों के मन में विश्वास, आपसी सम्मान और किसानों के साथ प्रगाढ़ रिश्ते की भूमिका रही है। 

सोनालीका के चेयरमैन श्री एलडी मित्तल ने जोर देकर कहा, "अगर हम बेहतरीन गुणवत्ता वाले ट्रैक्टर बनाते हैं, किसानों की जरूरतों को समझते हैं और नैतिक व्यवसाय करते हैं, तो हमारी प्रगति किसानों के उत्थान से धन्य होगी"

फॉर्च्यून 500 इंडिया की सूची में शामिल होना सोनालीका के तीन सिद्धांतो की देन

फॉर्च्यून 500 इंडिया सूची में सोनालीका को मिली शानदार सफलता और कीर्ति के पीछे उत्कृष्टता की निरंतर खोज और भारत भर में कृषकों को मजबूत बनाने के लिए अटूट प्रतिबद्धता का जज्बा है। 

सोनालीका कंपनी ने ट्रैक्टर उद्योग में अपना दबदबा बनाने के लिए सदैव से अपने 3 मुख्य सिद्धांतों पर कार्य किया है। सोनालीका के तीन मुख्य सिद्धांत निम्नलिखित हैं। 

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1. सर्वोत्तम उत्पाद और सेवाएँ प्रदान करना 

सोनालीका ने हमेशा अपने ग्राहकों को सर्वश्रेष्ठ देने में विश्वास किया है और अपने हेवी ड्यूटी ट्रैक्टरों में गुणवत्ता से कभी समझौता नहीं किया है। 

कंपनी ने अपने ट्रैक्टरों को उनकी फसल और क्षेत्र केंद्रित आवश्यकताओं के अनुसार लगातार अनुकूलित किया है, जिसने इसके हेवी ड्यूटी ट्रैक्टरों के लिए किसानों का अपार प्यार अर्जित किया है। 

हर किसान की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए, सोनालीका ने दुनिया का सबसे बड़ा एकीकृत ट्रैक्टर निर्माण संयंत्र भी स्थापित किया है जो सिर्फ़ 2 मिनट में एक नया ट्रैक्टर बना सकता है। 

यह प्लांट रोबोट और ऑटोमेशन तकनीक से लैस है और कंपनी को अपने इंजन, ट्रांसमिशन, प्लास्टिक और शीट मेटल पार्ट्स बनाने में सक्षम बनाता है। 

आज यह प्लांट 2000 ट्रैक्टर वैरिएंट बना सकता है जिन्हें दुनिया भर के 150 से ज़्यादा देशों में निर्यात किया जाता है।

2. अपने हितधारकों के हितों का ख्याल रखना 

सोनालीका एक विश्वसनीय ट्रैक्टर ब्रांड है जिसने हमेशा अपने लोगों को प्राथमिकता दी है - चाहे वह उसके किसान हों, साझेदार हों या कर्मचारी। 

इस दृष्टिकोण ने सोनालीका को विश्वास और वफादारी का बंधन बनाने में मदद की है जिसने अंततः फॉर्च्यून 500 इंडिया ब्रांड्स में शामिल होने में इसकी सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 

कोविड 19 के कठिन समय के दौरान भी, सोनालीका अपने लोगों तक पहुँचने में सबसे आगे रहा और समय पर वेतन का भुगतान किया, अपने विक्रेताओं को अग्रिम भुगतान किया और अपने सभी कर्मचारियों को बनाए रखा।

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3. नैतिकता के साथ व्यापार करना और कोई शॉर्टकट नहीं अपनाना 

सोनालीका की सफलता का सबसे महत्वपूर्ण तत्व इसका व्यावसायिक नैतिकता ढांचा है जो इसे किसानों की ज़रूरतों के हिसाब से ढलने और केवल गुणवत्तापूर्ण उत्पाद देने की अनुमति देता है। 

सोनालीका कोई शॉर्टकट नहीं अपनाने में विश्वास करती है, लेकिन अपनी प्रतिबद्धता को लगातार पूरा करने के लिए हमेशा विश्वसनीय रास्तों का अनुसरण करती है। 

शुरुआत में अस्तित्व का सवाल होने के बावजूद, कंपनी ने कर्ज मुक्त रहने और लागत को गौण रखते हुए सर्वोत्तम गुणवत्ता वाले ट्रैक्टर बनाने के अपने दृष्टिकोण का पालन किया। सोनालीका आने इन्हीं तीन सिद्धातों की वजह से वर्तमान में 1.1 बिलियन डॉलर की कंपनी बन गई है।

श्वेत क्रांति ने भारतीय कृषकों और महिलाओं की उन्नति में क्या भूमिका निभाई ?
श्वेत क्रांति ने भारतीय कृषकों और महिलाओं की उन्नति में क्या भूमिका निभाई ?

कृषक साथियों, श्वेत क्रांति या ऑपरेशन फ्लड की वजह से भारत के डेयरी उद्योग ने नवीन बुलंदियों को छूने की कवायद शुरू की थी। 

इस कार्यक्रम ने भारत को दुनियाभर में सर्वोच्च दुग्ध उत्पादक बनाने का कार्य किया। श्वेत क्रांति की वजह से देश के ग्रामीण किसानों का सशक्तिकरण और एक दमदार डेयरी अर्थव्यवस्था बनाया गया। 

सिर्फ इतना ही नहीं श्वेत क्रांति के परिणामस्वरूप भारत को दूध के आयात हेतु अन्य देशों के ऊपर निर्भर रहने की जरूरत नहीं पड़ी। 

ट्रैक्टरचॉइस के इस लेख में आज हम आपको श्वेत क्रांति से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं की जानकारी प्रदान करेंगे। 

श्वेत क्रांति क्या है ?

भारत के अंदर श्वेत क्रांति को ऑपरेशन फ्लड के नाम से भी मशहूर है। अगर हम सामान्य शब्दों में जानें तो दूध उत्पादन बढ़ाने के लिए अपनाए गए पैकेज प्रोग्राम को भारत में श्वेत क्रांति कहा जाता है। 

श्वेत क्रांति की शुरुआत 1970 में हुई थी। दरअसल, उस वक्त सहकारी समितियों के जरिए से डेयरी विकास को संगठित करने के लिए राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (NDDB) का गठन किया गया था। 

श्वेत क्रांति की बदौलत भारत विश्व का सबसे बड़ा दूध उत्पादक देश के रूप में उभरकर सामने आया। 

फलस्वरूप, पशुपालक और डेयरी संचालन करने वाले कृषकों की आजीविका में सकारात्मक सुधार हुआ और ग्रामीण विकास को भी काफी प्रोत्साहन मिला। भारत में श्वेत क्रांति के जनक प्रोफेसर वर्गीज कुरियन थे।

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भारतीय श्वेत क्रांति का प्रमुख मकसद क्या था ? 

भारत में हुई श्वेत क्रांति का मुख्य उद्देश्य दूध की पर्याप्त मात्रा में उपलब्धता और दुग्ध बिक्री में वृद्धि सहित परिवहन और भंडारण का प्रबंधन ठंडे उपकरणों में करना था। 

इसके साथ ही पशुपालकों के पशुओं के लिए चारे की समुचित व्यवस्था कराना है। सहकारी समितियों द्वारा विभिन्न दुग्ध उत्पादों का उत्पादन और उन उत्पादों की बड़े स्तर पर मार्केटिंग भी करना है। 

श्वेत क्रांति का लक्ष्य मवेशी नस्लों (गाय और भैंस) की बेहतरी, उत्तम स्वास्थ्य सेवाएँ, पशुओं की चिकित्सा, कृत्रिम गर्भाधान सुविधाएँ और सहकारी समितियों के विशाल समूह के अनुरूप तकनीक के जरिए से डेयरी उद्योग का प्रबंधन करना। 

गांव के संग्रहण केंद्र पर दूध इकठ्ठा करने के पश्चात उसको जल्द से जल डेयरी केंद्र तक पहुँचाना। 

किसान और डेयरी के मध्य आने वाले अनावश्यक बिचौलियों की दखल को कम करने के मकसद शीतलन केन्द्रों का प्रबंधन उत्पादक सहकारी संघों द्वारा किया जाता है। 

श्वेत क्रांति से किसानों और महिलाओं का सशक्तिकरण 

श्वेत क्रांति की वजह से काफी बड़ी संख्या में भारतीय कृषकों और पशुपालकों को आर्थिक तौर पर मजबूती मिली। श्वेत क्रांति के परिणामस्वरूप किसान सिर्फ और सिर्फ कृषि पर ही पूर्णतय निर्भर नहीं रहे। 

जैसा कि हम सब जानते हैं कि सामान्यतः कृषकों को मौसम और अन्य कारणों की वजह से फसल उत्पादन उनकी आशा के अनुरूप नहीं मिल पाता है। ऐसी स्थिति में किसानों को काफी ज्यादा आर्थिक नुकसान वहन करना पड़ता था। 

अब कृषकों के पास ऐसी स्थिति में उनके जीवनयापन के लिए नियमित आय का स्रोत दूध उत्पादन को बना लिया।

नतीजतन, इसकी वजह से किसानों की आर्थिक स्थिति में काफी सुधार हुआ और उनकी आय में भी काफी वृद्धि हुई। 

श्वेत क्रांति के चलते केवल किसान ही नहीं बल्कि महिलाओं के लिए भी आमदनी के बेहतरीन अवसर प्रदान करने का कार्य किया। 

दूध उत्पादन और वितरण के लिए महिलाओं को रोजगार का अवसर मिला और वे आर्थिक रूप से सशक्त हुईं।

आत्मनिर्भरता के साथ महिलाओं को समाज के अंदर एक नई पहचान मिली और उनका आत्मविश्वास और मनोबल भी काफी बढ़ गया।

खुबानी की खेती से जुड़ी विस्तृत जानकारी
खुबानी की खेती से जुड़ी विस्तृत जानकारी

भारत एक कृषि समृद्ध देश है। यहाँ की अधिकांश आबादी कृषि पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर आधारित रहती है।

अगर आप एक भारतीय किसान हैं और खुबानी की लाभदायक खेती करना चाहते हैं, तो आज हम आपको खुबानी की खेती के विभिन्न चरणों के विषय में विस्तारपूर्वक जानकारी प्रदान करेंगे। खुबानी की खेती कर कृषक काफी शानदार मुनाफा अर्जित कर सकते हैं। 

खुबानी की खेती के लिए उपयुक्त मौसम व मिट्टी कैसी होनी चाहिए ?

खुबानी एक समशीतोष्ण फल है, जिसको ठंडे मौसम की जरूरत पड़ती है। खुबानी की खेती के लिए कौन-सा मौसम सबसे उपयुक्त है। 

खुबानी की खेती के लिए उपयुक्त मृदा और जलवायु 

खुबानी की खेती के लिए समुचित जल निकास वाली रेतीली अथवा बलुई दोमट मृदा आदर्श होती है। मिट्टी का पीएच (pH) 6.5 से 7.0 के मध्य होना चाहिए। 

खुबानी के रोपण से पूर्व मृदा की जांच कराएं और आवश्यकतानुसार मृदा सुधारें। खुबानी के पेड़ों को सुप्तावस्था (Dormancy) में जाने के लिए सर्दियों में पर्याप्त मात्रा में ठंड की जरूरत पड़ती है। 

एक अच्छे आदर्श के रूप से उनका 400-800 घंटे का तापमान 7°C से कम होना चाहिए। वसंत ऋतु में, हल्की ठंड़ से भी फूलों और छोटे फलों को नुकसान पहुँच सकता है। 

इस वजह से इसका खिलने के दौरान ठंड़ से संरक्षण काफी जरूरी है। गर्मियों में गर्म और शुष्क मौसम फलों के बेहतर विकास के लिए अत्यंत लाभदायक होता है।

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खुबानी की खेती करने के लिए कदम

खुबानी की सफल खेती के लिए सावधानीपूर्वक योजना और उचित प्रबंधन की जरूरत पड़ती है।

किस्म का चुनाव 

भारतीय परिस्थितियों के लिए उपयुक्त खुबानी की कुछ लोकप्रिय किस्में हैं। जैसे कि महाराजा, अर्ली गोल्ड, चीलिंगटन आदि। अपनी जलवायु और बाजार की मांग के हिसाब से किस्म का चुनाव करें। 

अच्छी प्रतिष्ठित नर्सरी से स्वस्थ, एक साल पुराने ग्राफ्टेड पौधे प्राप्त करें। यह सुनिश्चित करें कि पौधे रोग और कीट से पूर्णतय मुक्त हों।

भूमि तैयार करना

रोपण से 6-8 सप्ताह पूर्व खेत की गहरी जुताई करें। मृदा में बेहतरीन ढ़ंग से सड़ी हुई गोबर की खाद या एल.सी.बी फ़र्टिलाइज़र्स द्वारा निर्मित नव्यकोष आर्गेनिक खाद मिलाएं, मृदा परीक्षण के आधार पर मात्रा निर्धारित करें। 

रोपण के लिए 60 से.मी x 60 से.मी x 60 से.मी आकार के गड्ढे खोदें और उन्हें 15 दिनों के लिए खुला छोड़ दें।

रोपण 

सर्दियों के आखिर में, जब ठंड़ का संकट कम हो जाता है, तो फरवरी से मार्च के महीने के दौरान खुबानी के पौधे रोपे जा सकते हैं। पौधे को गड्ढे में रखें और आसपास की मृदा को मजबूती के साथ दबाएं। 

रोपण के दौरान ध्यान दें, कि ग्राफ्ट यूनियन (जहां कलम को मूलवृक्ष पर लगाया जाता है) जमीन से थोड़ा ऊपर होना  चाहिए।

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खुबानी के पौधों की देखभाल 

खुबानी के पेड़ों को नियमित रूप से सिंचाई की आवश्यकता होती है, खासकर गर्मियों में। हालांकि, जलभराव से बचना चाहिए। 

खरपतवार ना केवल पोषक तत्वों के लिए पेड़ों के साथ प्रतिस्पर्धा करते हैं, बल्कि कीट-पतंगों के लिए भी आश्रय स्थल बन सकते हैं। इसलिए, नियमित रूप से निराई-गुड़ाई करें, खासकर  पेड़ों के आसपास।

खाद और उर्वरक 

संतुलित वृद्धि और फल उत्पादन के लिए उर्वरकों का प्रयोग करें। साल में दो बार, एक बार सर्दियों के अंत में और दूसरी बार फल लगने से पहले, पेड़ों के पास अच्छी तरह से सड़ी हुई  गोबर खाद या एल.सी.बी फ़र्टिलाइज़र्स द्वारा निर्मित नव्यकोष आर्गेनिक खाद डालें। 

साथ ही, मिट्टी  परीक्षण के आधार पर निर्धारित मात्रा में रासायनिक खादों का भी  प्रयोग करें।

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प्रशिक्षण और छंटाई

खुबानी के पेड़ों को एक मजबूत केंद्रीय तने और अच्छी तरह से फैली हुई शाखाओं वाली खुले प्याला आकार में विकसित करने के लिए प्रशिक्षित करने की आवश्यकता होती है। 

यह हवा  के संचार और प्रकाश के प्रवेश में सुधार करता है, जिससे बेहतर फल विकास होता है। सर्दियों  के दौरान, निष्क्रिय अवस्था में पेड़ों की छंटाई की जाती है। टूटी हुई, रोगग्रस्त, और अतिरिक्त  शाखाओं को हटा दें।

परागण और तुड़ाई प्रक्रिया 

अधिकांश खुबानी की किस्में स्व-परागण वाली नहीं होती हैं, जिसका अर्थ है कि उन्हें फल  उत्पादन के लिए परागण की आवश्यकता होती है। 

मधुमक्खियों को बाग में आकर्षित करने के लिए आसपास फूल वाले पौधे लगाने से परागण में सुधार किया जा सकता है। फल बनने के शुरुआती चरण में, कुछ फलों को तोड़ देना (thinning) लाभदायक होता है। 

इससे बचे हुए फलों को पोषक तत्व मिलने में सहायता मिलती है और फल का आकार भी शानदार होता है।

कीट और रोग नियंत्रण 

खुबानी के पेड़ कई तरह के कीटों और रोगों से प्रभावित हो सकते हैं। नियमित निगरानी करें और जरूरत के अनुसार जैविक य रासायनिक नियंत्रण विधियों का इस्तेमाल करें। 

कृषि  विभाग या विश्वसनीय स्रोतों से उचित सलाह लें। जब फल पूरी तरह से पक जाते हैं और हल्का नरम हो जाते हैं, तो तोड़ने के लिए तैयार होते हैं। 

फलों को सावधानी से तोड़ें और किसी भी खरोंच या चोट से बचें। खुबानी को कम तापमान  (लगभग 0°C) और उच्च आर्द्रता (लगभग 85-90%) वाले वातावरण में अपेक्षाकृत कम समय के लिए संग्रहीत किया जा सकता है। फलों को बाजार में जल्दी बेचना या खपत के लिए उपयोग करना सबसे अच्छा होता है।

50 HP में सोनालिका का यह दमदार ट्रैक्टर किसानों का सच्चा साथी
50 HP में सोनालिका का यह दमदार ट्रैक्टर किसानों का सच्चा साथी

किसान साथियों जैसा कि आप सब जानते हैं हर क्षेत्र की तरह कृषि क्षेत्र में भी मशीनीकरण का दबदबा काफी बढ़ा है।

अगर हम यह कहें कि कृषि लगभग पूरी तरह आधुनिक और यंत्रीकरण पर निर्भर हो गई है तो यह कहना गलत नहीं होगा। 

आज के समय में खेती-किसानी के हर एक छोटे से बड़े कार्य को करने के लिए कृषि उपकरणों की जरूरत पड़ती है।

बाजार के अंदर फसल की बुवाई से लेकर कटाई तक के सभी उपकरण उपलब्ध हैं। विभिन्न सरकारें अपने अपने स्तर से किसानों को कृषि उपकरण खरीदने के लिए अनुदान भी मुहैय्या कराती हैं। 

वैसे तो कृषि में प्रत्येक कृषि यंत्र का अपना अहम योगदान है। लेकिन, किसानों के बीच सबसे ज्यादा लोकप्रिय और महत्वपूर्ण कृषि यंत्र एक ट्रैक्टर ही है। 

किसान कृषि से जुड़े छोटे बड़े कार्य इसकी मदद से ही पूरा करते हैं। यही वजह है कि ट्रैक्टर को किसान का मित्र या सच्चा साथी कहा जाता है। 

ट्रैक्टर की इतनी उपयोगिता है, कि अधिकांश कृषि यंत्र बिना ट्रैक्टर की मदद के खेत में संचालित नहीं किए जा सकते हैं। 

सोनालिका के इस ट्रैक्टर से कम ईंधन में ज्यादा कार्य किया जा सकता है 

ट्रैक्टर खेती के किसी भी कठिन से कठिन कार्य को कम समय के अंदर आसानी से पूरा कर सकता है। 

यदि आप खेती या व्यावासायिक कार्यों के लिए शक्तिशाली ट्रैक्टर खरीदने की योजना बना रहे हैं, तो आपके लिए सोनालिका टाइगर डीआई 47 ट्रैक्टर एक शानदार विकल्प साबित हो सकता है। 

यह एक फ्यूल एफिशिएंट टेक्नोलॉजी के साथ आने वाला दमदार ट्रैक्टर है। इसमें 1900 आरपीएम के साथ 50 HP पावर जनरेट करने वाला 3065 सीसी इंजन दिया गया है।

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सोनालिका टाइगर डीआई 47 ट्रैक्टर की अद्भुत विशेषताएं 

Sonalika Tiger DI 47 ट्रैक्टर में 3065 सीसी क्षमता वाला 3 सिलेंडर में Coolant Cooled इंजन प्रदान किया गया है, जो कि 50 हॉर्स पावर और 205 NM टॉर्क उत्पन्न करता है। 

यह ट्रैक्टर Dry Type एयर फिल्टर के साथ आता है, जो खेतों में कार्य करते समय इसके इंजन को धूल-मृदा से बचाकर रखता है। इस सोनालिका ट्रैक्टर की पीटीओ 43 एचपी है और इसके इंजन से 1900 RPM उत्पन्न होता है।

सोनालिका कंपनी का यह ट्रैक्टर 65 लीटर क्षमता वाले फ्यूल टैंक के साथ आता है, जिसकी सिंगल रिफ्यूलिंग पर दीर्घकाल तक कृषि कार्य करने में सहयोग मिलता है। 

Sonalika Tiger DI 47 ट्रैक्टर की भार उठाने की क्षमता 2000 किलोग्राम तय की गई है, जिससे किसान एक बार में ज्यादा फसल की ढुलाई करके खेती की लागत को कम कर सकते हैं। 

सोनालिका कंपनी ने अपने इस ट्रैक्टर को आकर्षक लुक और मजबूत बॉडी में तैयार किया है।

सोनालिका टाइगर डीआई 47 ट्रैक्टर के अद्भुत फीचर्स

Sonalika Tiger DI 47 ट्रैक्टर में Hydrostatic स्टीयरिंग सिस्टम उपलब्ध किया गया है, जो कि खेतों के अतिरिक्त ऊबड़-खाबड़ मार्गों पर भी आसान ड्राइव प्रदान करता है। 

यह ट्रैक्टर 8 फॉरवर्ड + 2 रिवर्स गियर वाले गियरबॉक्स के साथ आता है। इसकी अधिकतम 39 kmph फॉरवर्ड स्पीड निर्धारित की गई है, जिसकी सहायता से किसानों को बेहतर गति के साथ कृषि संबंधी समस्त कार्यों को करने में सुगमता होती है। 

यह ट्रैक्टर Single क्लच और Constant Mesh with Side Shifter टाइप ट्रांसमिशन के साथ आता है।

जानकारी के लिए बतादें, कि 50 एचपी के इस Sonalika Tiger DI 47 ट्रैक्टर में Multi Disc Oil Immersed ब्रेक्स दिए गए हैं, जो फिसलन भरी सतह में भी टायरों पर काफी शानदार पकड़ बनाए रखते हैं। 

यह ट्रैक्टर Reverse PTO टाइप पावर टेकऑफ के साथ आता है, जो 540 आपीएम उत्पन्न करती है। Sonalika Tiger DI 47 ट्रैक्टर में 2 व्हील ड्राइव दिया गया है। 

यह ट्रैक्टर 6.0 x 16 / 6.5 x 16 / 7.5 x 16 फ्रंट टायर और 14.9 x 28 रियर टायर के साथ आता है।

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सोनालिका टाइगर डीआई 47 की कीमत तथा वारंटी की जानकारी 

अगर हम बात करें भारतीय वाणिज्यिक वाहन बाजार में Sonalika Tiger DI 47 ट्रैक्टर की एक्स शोरूम कीमत की बात करें तो यह तकरीबन 7.56 लाख से 7.96 लाख रुपये निर्धारित की गई है।

इस सोनालिका 50 HP ट्रैक्टर की ऑन रोड कीमत अलग-अलग राज्यों में वहां के आरटीओ रजिस्ट्रेशन और रोड टैक्स के अनुसार भिन्न हो सकती है। 

एक और बड़ी बात सोनालिका कंपनी की तरफ से अपने इस दमदार ट्रैक्टर के साथ 5 साल की वारंटी की सुविधा भी प्रदान की जाती है।

भारतीय कृषि में जैविक खेती की बढ़ती लोकप्रियता की वजह
भारतीय कृषि में जैविक खेती की बढ़ती लोकप्रियता की वजह

भारतीय कृषि को जैविक खेती और जीरो बजट खेती एक नवीन बुलंदी की तरफ लेकर जा सकती है। यह ना सिर्फ कृषि रसायनों की निर्भरता को कम करती है, बल्कि पर्यावरणीय स्थिरता और मानव स्वास्थ्य को भी सुरक्षित करती है। 

सरकार और समाज को एकजुट होकर कोशिशें करनी होंगी, जिससे जैविक खेती को प्राथमिक कृषि प्रणाली की श्रेणी में लाया जा सकता है। सिर्फ इतना ही नहीं यह टिकाऊ खेती की दिशा में यह एक मील का पत्थर साबित होगा। 

भारत के अंदर लगातार बढ़ती आबादी के लिए खाद्यान्न उपलब्ध कराने की समस्या को मद्देनजर रखते हुए, कृषि रसायनों के संतुलित इस्तेमाल की शुरुआत किया गया था। 

यह माना गया कि कृषि रसायनों का उपयोग बेहद जरूरत होने पर भी सीमित मात्रा में ही किया जाए। परंतु, समय के साथ इन रसायनों का अंधाधुंध इस्तेमाल होने लगा है, जिसकी वजह से खेती आए दिन अधिक विषैली होने लग गई है। 

नतीजतन, कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों का आक्रमण भी काफी बढ़ा है। मृदा, जल और फसलों में विषाक्तता की वजह से समाज के प्रत्येक वर्ग में कृषि रसायनों के प्रति काफी आक्रोश पनप रहा है। 

इसी बीच, जैविक खेती और जीरो बजट खेती (प्राकृतिक खेती) की तरफ कृषकों का रुझान बढ़ने लगा है। 

कृषि रसायनों के प्रभाव पर जैविक खेती से पाऐं नियंत्रण  

कृषि रसायनों के निरंतर बढ़ते इस्तेमाल से मृदा की उर्वरता में काफी कमी आ रही है। किसान भाई ज्यादा फायदा कमाने की प्रतिस्पर्धा में अंधाधुंध रसायनों का इस्तेमाल कर रहे हैं, जिसकी वजह से फसलों की गुणवत्ता खराब होने के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन की समस्या भी काफी बढ़ रही है। 

अब ऐसे में जैविक खेती एक ऐसा विकल्प है, जो टिकाऊ कृषि प्रणाली की तरफ हमको अग्रसर करता है। 

जैविक खेती में प्राकृतिक रूप से उपलब्ध संसाधनों का इस्तेमाल किया जाता है, इससे मिट्टी की गुणवत्ता, फसलों की उत्पादकता और पर्यावरणीय संतुलन को स्थिर बनाए रखने में मदद मिलती है। 

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जीरो बजट खेती से आप क्या समझते हैं ?

जीरो बजट खेती, जिसको प्राकृतिक खेती भी कहा जाता हैं। यह एक रसायन मुक्त खेती की विधि है। इसमें प्रमुख रूप से पशुपालन आधारित उत्पाद, जैसे गोबर और गौमूत्र का इस्तेमाल किया जाता है। इनसे जीवामृत' और घनामृत' जैसे उत्पाद तैयार किए जाते हैं, जो मृदा की उर्वरता को बढ़ाने का कार्य करते हैं। 

जीवामृत: गोबर, गौमूत्र, गुड़, दाल का आटा और मिट्टी का मिश्रण, जिसे फसलों पर छिड़काव के लिए उपयोग किया जाता है। 

घनामृत: इसे पौधों के पोषण और कीट नियंत्रण के लिए इस्तेमाल किया जाता है। 

प्राकृतिक खेती के क्या-क्या फायदे होते हैं ?

कृषकों को जीरो बजट खेती में उर्वरक और कीटनाशक खरीदने की जरूरत नहीं पड़ती है। यह स्थानीय संसाधनों पर पूर्णतय निर्भर रहती है। 

गोबर और गौमूत्र जैसे प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल मृदा की जैविक गुणवत्ता को बरकरार बनाए रखता है। इस विधि में सिंचाई की काफी कम जरूरत पड़ती है, जिससे जल की खपत 10 से 15% प्रतिशत तक घट जाती है। 

रसायन मुक्त फसलों की वजह से कृषकों को ज्यादा भाव हांसिल होता है और उपभोक्ताओं को स्वस्थ खाद्य सामग्री मिलती है। 

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जैविक खेती की दुनियाभर में लोकप्रियता   

जैविक खेती की लोकप्रियता दुनियाभर में काफी तीव्रता से बढ़ रही है। बतादें, कि 2019 तक करीब 72.3 मिलियन हेक्टेयर भूमि पर जैविक खेती की जा रही थी, जिसमें ऑस्ट्रेलिया अग्रणी स्थान पर रहा। 

यह कृषि प्रणाली खेती में रसायनों के कम से कम उपयोग और पर्यावरणीय संरक्षण पर आधारित है। 

अंतर्राष्ट्रीय संगठन, IFOAM (International Federation of Organic Agriculture Movements), जैविक खेती के मानकों को नियंत्रित करने में अहम भूमिका निभाता है।

भारत के अंदर जैविक खेती का मापदंड 

भारत के अंदर सिक्किम को पहला जैविक राज्य घोषित किया जा चुका है। आंध्र प्रदेश ने "शून्य बजट प्राकृतिक खेती" परियोजना की शुरुआत कर ड़ाली है, 

जिसका मकसद 2024 तक रसायनों के इस्तेमाल को चरणबद्ध ढ़ंग से समाप्त करने का लक्ष्य रखा गया था। हालांकि, जैविक खेती को सफलता पूर्वक करने के लिए कुछ बातें बेहद जरूरी हैं। 

जैविक खाद को सरकारी संस्थानों से प्रमाणित कर सस्ती दर पर उपलब्ध कराया जाए। किसानों को प्रारंभिक वर्षों में हुए घाटे की भरपाई के लिए बीमा योजनाओं का प्रावधान किया जाए। 

रासायनिक कृषि पर दिए जाने वाले अनुदान को जैविक खेती की तरफ स्थानांतरित किया जाए। 

जैविक खेती ऐसे दिया जाए बढ़ावा 

कृषकों को ज्यादा से ज्यादा पशुपालन करने के लिए प्रोत्साहित किया जाए, जिससे गोबर और गौमूत्र बड़ी सहजता से उपलब्ध हो सके। वर्मी कंपोस्ट तैयार करने की विधियों पर प्रशिक्षण भी प्रदान किया जाना चाहिए। 

दो फसलों के मध्य हरी खाद उगाने को बढ़ावा दिया जाए। जैविक कीटनाशकों के इस्तेमाल पर काफी बल दिया जाए। किसानों को जागरूक करने के लिए सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों द्वारा प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए जाएं।

अमरूद की खेती को लाभकारी बनाने में मददगार जानकारी
अमरूद की खेती को लाभकारी बनाने में मददगार जानकारी

भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहां विभिन्न प्रकार की फसलें और फलों की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है। इन्हीं में से एक अमरुद है। 

भारतीय लोगों को अमरूद का सेवन करना बहुत अच्छा लगता है, इसलिए इसकी बाजार में काफी मांग बनी रहती है। भारत में अमरूद सामान्य तौर पर उगाई जाने वाली व्यापारिक फसल है। 

अमरूद का उत्पादन मुख्य रूप से उष्णकटिबंधीय और उप- उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में किया जाता है। 

अगर हम बात करें इसके अंदर विघमान पोषक तत्वों की तो इसमें विटामिन सी और पैक्टिन के साथ-साथ कैल्शियम और फासफोरस भी काफी ज्यादा मात्रा में पाया जाता है। 

यह भारत की आम, केला और नींबू प्रजाति के बूटों के उपरांत उगाई जाने वाली चौथे स्थान की फसल है। संपूर्ण भारतवर्ष में इसका उत्पादन बड़े स्तर पर किया जाता है। 

बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, उड़ीसा, पश्चिमी बंगाल, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडू के अतिरिक्त इसकी खेती पंजाब और हरियाणा में भी की जाती है। 

पंजाब में 8022 हैक्टेयर के क्षेत्रफल पर अमरूद की खेती की जाती है और औसतन उपज 160463 मैट्रिक टन तक होती है।

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अमरूद की खेती के लिए उपयुक्त मृदा 

अमरूद एक सख्त किस्म की फसल है और इसके उत्पादन के लिए हर प्रकार की मृदा उपयुक्त होती है, जिसमें हल्की से लेकर भारी और कम निकास वाली मृदा भी शम्मिलित है। 

अमरूद की औसतन उपज 6.5 से 7.5 पी एच वाली मृदा में भी की जा सकती है। अमरूद से बेहतरीन उत्पादन हांसिल करने के लिए इसको गहरे तल, अच्छे निकास वाली रेतीली चिकनी मिट्टी से लेकर चिकनी मृदा में बोना चाहिए।

प्रसिद्ध किस्में और पैदावार

अर्क अमूल्य 

अमरूद की इस किस्म का बूटा छोटा और गोल आकार का होता है। इसके पत्ते काफी घने होते हैं। इसके फल बड़े आकार के, नर्म, गोल और सफेद गुद्दे वाले होते हैं। 

इसमें टी एस एस की मात्रा 9.3 से 10.1 प्रतिशत तक होती है। इसका एक बूटा करीब 144 किलोग्राम तक फल प्रदान करता है।

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सरदार

अमरूद की सरदार किस्म को एल 49 के नाम से भी जाना जाता है। यह छोटे कद वाली किस्म है, जिसकी टहनियां काफी ज्यादा घनी और फैली हुई होती हैं। 

इसका फल बड़े आकार और बाहर से खुरदुरा जैसा होता है। इसका गुद्दा क्रीम रंग का होता है। खाने में यह अमरूद नर्म, रसीला और स्वादिष्ट होता है। 

इसमें टी एस एस की मात्रा 10 से 12 प्रतिशत तक होती है। इसके प्रति बूटा की उत्पादकता 130 से 155 किलोग्राम तक होती है।

पंजाब सफेदा 

अमरूद की पंजाब सफेदा किस्म के फल का गुद्दा क्रीमी और सफेद रंग का होता है। फल में शुगर की मात्रा 13.4% प्रतिशत तक होती है और खट्टेपन की मात्रा 0.62% प्रतिशत तक होती है।

पंजाब किरन 

पंजाब किरन किस्म के फल का गुद्दा गुलाबी रंग का होता है। फल में शूगर की मात्रा 12.3 प्रतिशत होती है और खट्टेपन की मात्रा 0.44 प्रतिशत होती है। इसके बीज छोटे और नर्म होते हैं।

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स्वेता

अमरूद की स्वेता किस्म के फल का गुद्दा क्रीमी सफेद रंग का होता है। फल में सुक्रॉस की मात्रा 10.5—11.0 प्रतिशत होती है। इसकी औसतन पैदावार 151 किलो प्रति वृक्ष तक होती है।

पंजाब पिंक 

अमरूद की इस किस्म के फल दरमियाने से बड़े आकार और आकर्षक रंग के होते हैं। ग्रीष्मकाल में इनका रंग सुनहरी पीला हो जाता है। 

इसका गुद्दा लाल रंग का होता है, जिसमें से मोहक सुगंध आती है। इसमें टी एस एस की मात्रा 10.5 से 12 प्रतिशत तक होती है। इसके एक बूटे की पैदावार लगभग 155 किलो तक होता है।

इलाहाबाद सफेदा

अमरूद की यह इलाहाबाद सफेदा किस्म दरमियाने कद की होती है, जिसका बूटा गोलाकार होता है। इसकी टहनियां काफी ज्यादा फैली हुई होती हैं। 

इसका फल नर्म और गोल आकार का होता है। इसके गुद्दे का रंग सफेद होता है, जिसमें से आकर्षित सुगंध का अनुभव होता है। इसमें टी एस एस की मात्रा 10 से 12 प्रतिशत तक होती है।

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अमरूद की अन्य प्रसिद्ध किस्में  

इनके अलावा और भी अमरूद की बहुत सारी किस्में पाई जाती हैं। जैसे कि सारी निगिस्की इसकी औसतन उपज 80 किलो प्रति वृक्ष होती है। 

पंजाब सॉफ्ट इसकी औसतन उपज 85 किलो प्रति वृक्ष होती है। इलाहाबाद सुर्खा यह बिना बीजों वाली किस्म है। इसके फल बड़े और अंदर से गुलाबी रंग के होते हैं। 

एप्पल गुआवा इस किस्म के फल दरमियाने आकार के गुलाबी रंग के होते हैं। फल स्वाद में मीठे होते हैं और इन्हें लंबे समय के लिए रखा जा सकता है।

चित्तीदार यह उत्तर प्रदेश की प्रसिद्ध किस्म है। इसके फल अलाहबाद सुफेदा किस्म जैसे होते हैं। इसके इलावा इस किस्म के फलों के ऊपर लाल रंग के धब्बे होते हैं। इसमें टी एस एस की मात्रा अलाहबाद सुफेदा और एल 49 किस्म से ज्यादा होती है। 

अमरूद की खेती के लिए भूमि की तैयारी

किसान भाई खेत की दो बार तिरछी जोताई करें और फिर एकसार कर दें। खेत को इस प्रकार तैयार करें कि उसमें पानी ना खड़ा रहे। 

फरवरी-मार्च या अगस्त-सितंबर का महीना अमरूद के पौधे लगाने के लिए सही माना जाता है। पौधे लगाने के लिए 6x5 मीटर का फासला रखें। 

दि पौधे वर्गाकार ढंग से लगाएं हैं तो पौधों का फासला 7 मीटर रखें। 132 पौधे प्रति एकड़ लगाए जाते हैं। बीज की गहराई की बात करें तो जड़ों को 25 सैं.मी. की गहराई पर बोना काफी अच्छा होता है।

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अमरूद की बिजाई का तरीका 

  • सीधी बिजाई करके
  • खेत में रोपण करके
  • कलमें लगाकर
  • पनीरी लगाकर

अमरूद की कटाई और छंटाई

पौधों की मजबूती और सही वृद्धि के लिए कटाई और छंटाई की जरूरत होती है। जितना मजबूत बूटे का तना होगा, उतनी ही पैदावार अधिक अच्छी गुणवत्ता भरपूर होगी। 

बूटे की उपजाई क्षमता बनाए रखने के लिए फलों की पहली तुड़ाई के बाद बूटे की हल्की छंटाई करनी जरूरी है। जब कि सूख चुकी और बीमारी आदि से प्रभावित टहनियों की कटाई लगातार करनी चाहिए। 

बूटे की कटाई हमेशा नीचे से ऊपर की तरफ करनी चाहिए। अमरूद के बूटे को फूल, टहनियां और तने की स्थिति के अनुरूप वर्ष में एक बार पौधे की हल्की छंटाई करने के समय टहनियों के ऊपर वाले हिस्से को 10 सैं.मी. तक काट देना चाहिए। इस तरह कटाई के पश्चात नईं टहनियां अकुंरन में सहायता मिलती है।

अमरूद की फसल में खरपतवार नियंत्रण

अमरूद के बूटे के सही विकास और अच्छी पैदावार के लिए नदीनों की रोकथाम जरूरी है। नदीनों की वृद्धि की जांच के लिए मार्च, जुलाई और सितंबर महीने में ग्रामोक्सोन 6 मि.ली. को प्रति लीटर पानी में डालकर स्प्रे करें। 

नदीनों के अंकुरण के बाद गलाईफोसेट 1.6 लीटर को 200 लीटर पानी में मिलाकर (नदीनों को फूल पड़ने और उनकी उंचाई 15 से 20 सैं.मी. तक हो जाने से पहले) प्रति एकड़ के हिसाब से छिड़काव करें।

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अमरूद की फसल में सिंचाई प्रबंधन 

कृषक अमरूद की फसल में पहली सिंचाई पौधे लगाने के तुरंत बाद और दूसरी सिंचाई तीसरे दिन करें। इसके बाद मौसम और मिट्टी की किस्म के हिसाब से सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। 

अच्छे और तंदरूस्त बागों में सिंचाई की अधिक जरूरत नहीं पड़ती। नए लगाए पौधों को गर्मियों में एक सप्ताह बाद और सर्दियों के माह में 2 से 3 बार सिंचाई की आवश्यकता होती है। 

पौधे को फूल लगने के वक्त अधिक सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती। क्योंकि, अधिक सिंचाई से फूल गिरने का संकट काफी बढ़ जाता है।

अमरूद की फसल में हानिकारक कीट और रोकथाम

फल की मक्खी  

यह अमरूद का गंभीर कीट है। मादा मक्खी नए फलों के अंदर अंडे देती है। उसके बाद नए कीट फल के गुद्दे को खाते हैं जिससे फल गलना शुरू हो जाता है और गिर जाता है।

यदि बाग में फल की मक्खी का हमला पहले भी होता है तो बारिश के मौसम में फसल को ना बोयें। समय पर तुड़ाई करें। तुड़ाई में देरी ना करें। प्रभावित शाखाओं और फलों को खेत में से बाहर निकालें और नष्ट कर दें। 

फैनवेलरेट 80 मि.ली को 150 लीटर पानी में मिलाकर फल पकने पर सप्ताह के अंतराल पर स्प्रे करें। फैनवेलरेट की स्प्रे के बाद तीसरे दिन फल की तुड़ाई करें।

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मिली बग 

ये पौधे के विभिन्न भागों में से रस चूसते हैं जिससे पौधा कमज़ोर हो जाता है। यदि रस चूसने वाले कीटों का हमला दिखे तो क्लोरपाइरीफॉस 50 ई सी 300 मि.ली. को 100 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें।

अमरूद की शाख का कीट 

यह नर्सरी का काफी खतरनाक कीट है, इसकी वजह से प्रभावित टहनी सूख जाती है। अगर इसका आक्रमण दिखाई दे, तो क्लोरपाइरीफॉस 500 मि.ली. या क्विनलफॉस 400 मि.ली. को 100 लीटर पानी में मिश्रित कर छिड़काव करें।

चेपा

चेपा अमरूद में लगने वाला खतरनाक और सामान्य तौर पर पाए जाने वाला कीट है। प्रौढ़ और छोटे कीट पौधे में से रस चूसकर उसको कमजोर कर देते हैं। 

गंभीर हमले की वजह से पत्ते मुड़ जाते हैं, जिससे उनका आकार बिगड़ जाता है। ये शहद की बूंद जैसा पदार्थ छोड़ते हैं, जिससे प्रभावित पत्ते पर काले रंग की फंगस विकसित हो जाती है। 

अगर इसका आक्रमण नजर आए तो डाइमैथोएट 20 मि.ली. या मिथाइल डेमेटान 20 मि.ली. को प्रति 10 लीटर पानी में मिलाकर अवश्य छिड़काव करें।

अमरूद की खेती में लगने वाली बीमारियां व उनका नियंत्रण

अमरूद की खेती में सूखा बीमारी   

यह अमरूद के पौधे को लगने वाली खतरनाक बीमारी है। इसका हमला होने पर बूटे के पत्ते पीले पड़ने और मुरझाने शुरू हो जाते हैं। हमला ज्यादा होने पर पत्ते गिर भी जाते हैं।

इसकी रोकथाम के लिए खेत में पानी इकट्ठा ना होने दें। प्रभावित पौधों को निकालें और दूर ले जाकर नष्ट कर दें। कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 25 ग्राम या कार्बेनडाज़िम 20 ग्राम को 10 लीटर पानी में मिलाकर मिट्टी के नज़दीक छिड़कें।

अमरूद की खेती में एंथ्राक्नोस अथवा मुरझाना

अमरूद की खेती के दौरान टहनियों पर गहरे भूरे या काले रंग के धब्बे पड़ जाते हैं। फलों पर छोटे, गहरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं। संक्रमण की वजह से 2 से 3 दिनों में फल गलना प्रारंभ हो जाते हैं।

अमरूद में लगने वाली बीमारियों से कैसे बचाव करें ?

अमरूद की खेती के दौरान भूमि को साफ-स्वच्छ रखें, प्रभावित पौधे के हिस्सों और फलों को नष्ट कर दें। खेत में जल भराव की स्थिति उत्पन्न ना होने दें। 

छंटाई के उपरांत कप्तान 300 ग्राम को 100 लीटर पानी में मिश्रित कर छिड़काव करें। फल बनने के पश्चात कप्तान का दोबारा छिड़काव करें और 10-15 दिनों के समयांतराल पर फल पकने तक छिड़काव करें। 

अगर इसका संक्रमण खेत में दिखाई दे तो कॉपर ऑक्सीक्लोराईड 30 ग्राम को 10 लीटर पानी में मिलाकर प्रभावित वृक्ष पर छिड़काव कर दें।

अमरूद की फसल की कटाई कब करें ?

बिजाई के 2-3 वर्ष उपरांत अमरूद के बूटों पर फल लगने शुरू हो जाते हैं। फलों को पूर्णतय पकने के बाद इनकी तुड़ाई करनी चाहिए। 

पूरी तरह पकने के बाद फलों का रंग हरे से पीला होना प्रारंभ हो जाता है। फलों की तुड़ाई उचित समय पर कर लेनी चाहिए। 

फलों को ज्यादा पकने नहीं देना चाहिए, क्योंकि ज्यादा पकने से फलों के स्वाद और गुणवत्ता में नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

अमरूद की कटाई के बाद क्या करें ?

किसान भाई अमरूद के फलों की तुड़ाई करें। इसके बाद फलों को अच्छे तरीके से साफ करें, उन्हें आकार के आधार पर बांटे और पैक कर लें। अमरूद शीघ्रता से खराब होने वाला फल है। 

इसलिए इसकी तुड़ाई के शीघ्र बाद बाजार में बेचने के लिए भेज देना चाहिए। इसे पैक करने के लिए कार्टून फाइबर बॉक्स या भिन्न-भिन्न आकार के गत्ते के डिब्बे या बांस की टोकरियों का इस्तेमाल करना चाहिए।

सूरन की खेती संबंधित विस्तृत जानकारी
सूरन की खेती संबंधित विस्तृत जानकारी

सूरन एक प्रकार की औषधीय फसल होती है। लेकिन, इसका इस्तेमाल हमारे घरों में सब्जियों के तौर पर किया जाता है।

सूरन का वैज्ञानिक नाम अमोर्फोफैलुस कम्पानुलातुस होता है, जिसको भारतीय सूरन ओल और जिमीकंद के नाम से भी जानते हैं। 

सूरन काफी ज्यादा गर्म होती है। इसका निरंतर सेवन करने से खुजली की समस्या पैदा होने का खतरा रहता है।

लेकिन, इस समय सूरन की कुछ ऐसी प्रजातियां भी उपलब्ध है, जिन्हें आप निरंतर भी खाएंगे तो खुजली की समस्या पैदा नहीं होगी। 

सूरन के फलों का विकास भूमि के अंदर ही होता है। सूरन में औषधीय गुण होने की वजह से इसको सभी सब्जियों से अलग स्थान पर रखा जाता है।

प्राचीन काल में सबसे पहले सूरन की खेती केवल व्यक्तिगत तौर पर ही की जाती थी। परंतु, अब भारत देश में कई किसान ऐसे हैं जो सूरन की खेती करके लाखों कमा रहे हैं। 

सूरन में पोषक तत्व के साथ-साथ औषधीय गुण भी पाया जाता है, जिस वजह से इसका इस्तेमाल आयुर्वेदिक औषधियां तैयार करने में किया जाता है। 

सूरन स्वास्थ्य रोगों को दूर करने में लाभकारी 

कार्बोहाइड्रेट कैल्शियम फास्फोरस खनिज जैसे विभिन्न प्रकार के पोषक तत्व सूरन के फलों में उपलब्ध होते हैं। 

सूरन का उपयोग करने से बवासीर, पेचिश, खूनी बवासीर, दमा, फेफड़ों की सूजन, रक्त विकार जैसी विभिन्न प्रकार की बीमारियां जड़ से समाप्त हो जाती है। सूरन की खेती छायादार स्थान पर भी सफलतापूर्वक की जा सकती है।

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सूरन की खेती के लिए उपयुक्त मृदा और जलवायु का चयन

अब तक भारत के किसान सूरन की खेती करने के लिए कम महत्व वाली भूमि का इस्तेमाल कर रहे थे। सूरन की खेती करने के लिए उत्तम जल निकासी वाली बलुई दोमट मृदा का चयन करना चाहिए। 

इस प्रकार की मृदा में सूरन की खेती करने से इसके पौधे बेहतर ढ़ंग से विकसित हो पाते हैं। साथ ही, पैदावार भी काफी अच्छी होती है। 

लेकिन, अगर आप इसकी खेती जल भराव वाली जमीन पर करते हैं तो इसके पौधे विकसित नहीं हो पाते हैं और उपज भी कम होती है। 

कन्द वाली फसलों की पैदावार करने के लिए खेत की जुताई करने के उपरांत बार-बार पता लगाना चाहिए, जिससे मृदा पूर्ण रूप से भुरभुरी हो जाए।

इसके लिए खेत की जुताई करके कुछ दिनों तक ऐसे ही खुला छोड़ दे खेत की मिट्टी में अच्छी तरह से धूप लग जाए। सूरन की खेती के लिए 5 से 7 पीएच मान वाली मिट्टी की आवश्यकता होती है। 

क्योंकि, इसकी बुवाई के बाद बीजों के अंकुरण के लिए अधिक तापमान की आवश्यकता होती है। यही वजह है, कि सूरन की बुवाई अप्रैल से लेकर जून के महीने तक ही की जाती है। वहीं, पौधों के विकास के लिए अच्छी बारिश का होना ज्यादा जरूरी है।

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सूरन की उन्नत किस्में निम्नलिखित हैं 

अगर आप भी सूरन की खेती करना चाहते हैं, तो इसकी विभिन्न प्रकार की उन्नत किस्में उपलब्ध हैं, जिन्हें उनकी गुणवत्ता पैदावार और उगने के मौसम के आधार पर तैयार किया गया है। 

जैसे कि गजेंद्र, एम-15, संतरागाछी, संतरा गाची जैसी उन्नत किस्म उपलब्ध है। अपने क्षेत्र के जलवायु के आधार पर ही आप सूरन की किस्मों का विचारपूर्वक चयन करें।

1. गजेंद्र किस्म के पौधे

कृषि विज्ञान केंद्र सबलपुर द्वारा इस किस्म को तैयार किया गया है। कम गर्मी वाले समय में इसके पौधे में फल लगते हैं। इसका सेवन करने से खुजली नहीं होती है। 

गजेंद्र किस्म के पौधों को हल्की गर्मी के दिनों में उगाया जाता है। इस तरह के पौधे में सिर्फ एक ही फल निकलता है।

साथ ही, इसके अंदर हल्के नारंगी रंग का गुदा पाया जाता है। प्रति हेक्टेयर में तकरीबन 80 से 85 टन उपज होती है।

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2. संतरागाछी किस्म के पौधे

संतरागाछी किस्म के एक ही पौधे में विभिन्न प्रकार के फल पाए जाते हैं। इन फलों की तासीर हल्की गर्म होती है। हमें खाने से खुजली जैसी समस्या देखने को मिलती है। 

इस फसल की पैदावार तकरीबन 6 से 7 महीने में होनी चालू हो जाती है। इस किस्म की पैदावार 50 टन प्रति हेक्टेयर तक होती है। 

3. एम-15 किस्म के पौधे

एम-15 दक्षिण भारत की स्थानीय किस्मों में है इसे पद्या के नाम से जाना जाता है। इसके फलों की तासीर भी कम गर्मी वाली होती है। 

परंतु, इसको खाने से किसी भी प्रकार की खुजली की समस्या पैदा नहीं होती है। इस प्रजाति में एक ही पौधे में एक ही फल प्राप्त होता है। इसमें 80 टन की पैदावार प्रति हेक्टेयर में होती है। 

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सूरन की बुवाई और बीज उपचार

सूरन की बुवाई आलू की भाँति ही की जाती है। आलू को काटकर लगाया जाता है, लेकिन सूरन को आप पूरा ही लगा सकते हैं। 

अगर आप सूरन को आलू की तरह काट कर लगाते हैं, तो इसके लिए कटिंग वाले कन्दों के अंकुरित होने के लिए कालिका आंखों का होना बहुत ही आवश्यक होता है। 

सूरन की बुवाई करने से पहले उसका उपचार करना काफी जरूरी होता है। 

उपचार करने के एमिसान 5 ग्राम एवं स्ट्रेप्टोसाइक्लिन0. 5 ग्राम को प्रति लीटर पानी में घोलकर कन्द को 30 से 35 मिनट तक भिगोकर रखने के बाद छाया में सुखाएं या फिर ताजी गोबर का गाढ़ा घोल बनाकर उसमें दो ग्राम कार्बोडाइजिम् पाउडर का प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर कन्द को अच्छे से भिगो दें और फिर उसे छाया में अच्छी तरह से सुखाने के बाद ही लगाऐं। 

सूरन की खेती का उपयुक्त समय क्या है ?

भारत में सूरन की खेती करने का सबसे उपयुक्त समय बारिश मौसम के पहले या बारिश मौसम के बाद होता है। अप्रैल मई और जून का महीना भी सूरन की खेती के लिए उपयुक्त होता है। 

परंतु, अगर आप लोगों के पास सिंचाई का साधन उपलब्ध है, तो आप सूरन की बुवाई मार्च महीने में भी कर सकते हैं।

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सूरन की खेती में ध्यान रखने योग्य बातें

  1. सूरन की बुवाई करने के बाद उसे पुआल या पत्तियों से ढंग दे। 
  2. यह बहुत अच्छे उर्वरक का काम करता है। 
  3. अंकुरण जल्दी प्राप्त करने के लिए मल्चिंग नहीं का उपयोग करें जिस खेत में नमी बनी रहती है। 
  4. मल्चिंग विधि का उपयोग करने से खेतों में खरपतवार के काम होने के साथ-साथ पैदावार भी अच्छी होती है। 
  5. खेतों में नमी को बरकरार रखने के लिए एक या दो बार हल्के सिंचाई अवश्य कर दें। 
  6. बरसात के मौसम में सूरन के पौधों के पास जल को एकत्रित न होने दें। 
  7. सूरन के साथ-साथ और अधिक मात्रा में कमाई करने के लिए आप उसके अंदर खाली स्थान में मेहंदी मूंग मक्का खीर लौकी कद्दू आदि फसल की बुवाई कर सकते हैं। 

सूरन का बीज लगाने की विधि

सूरन की बुवाई करने के दो विधियां निम्नलिखित है पहले गड्ढा में दूसरा चौरस खेत में

गड्ढा विधि द्वारा सूरन की बुवाई 

गड्ढा विधि द्वारा सूरन की बुवाई करने के लिए 75×75×30 सेंटीमीटर का गड्ढा खोदकर सूरन की बुवाई की जाती है। बीजों का उपचार करने से पहले उचित मात्रा में खाद एवं उर्वरक को गड्ढे में डाल दिया जाता है। 

सूरन की बुवाई के बाद मिट्टी को 15 सेंटीमीटर पिरामिड के आकार में ऊंचा कर दे सूरन के बीच की बुवाई इस तरह करते हैं, 

ताकि सूरन में निकला कालिका युक्त भाग ऊपर की तरफ सीधा रहे इस प्रकार से गड्ढा विधि द्वारा सूरन की बुवाई की जाती है। 

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चौरस खेत में सूरन की बुवाई की विधि

सूरन की बुवाई करने से पहले गोबर की सड़ी हुई खाद्य रासायनिक उर्वरक पोटाश का एक तिहाई भाग एवं फास्फोरस की पूर्ण मात्रा में मिलकर खेतों में डाल दिया जाता है। 

इसके बाद खेत की जुताई अच्छे से कर दे इसके बाद सूरन के बीज़ों के आकार के अनुसार 80 से 90 सेंटीमीटर की दूरी पर कुदाल की सहायता से 25 से 30 सेंटीमीटर की गहरी नाली बनाकर सूरन की बुवाई कर दे। इसके बाद नालियों में मिट्टी डालकर उसे अच्छे तरीके से ढक दें। 

बीजों की दर 250 ग्राम वाले कांड को 75 सेंटीमीटर की दूरी पर लगाने पर 50 कुंतल प्रति हेक्टेयर की पैदावार होती है।

अगर 500 ग्राम सूरन के बीच को 75 सेंटीमीटर की दूरी में लगाने पर 80 कुंतल प्रति हेक्टेयर की पैदावार प्राप्त होती है।

वहीं, यदि ढाई सौ ग्राम सूरन के बीच को 1 मीटर की दूरी पर लगाया जाए तो 25 कुंतल प्रति हेक्टेयर की दर से पैदावार होती है। 

अगर इस स्थान पर हम 500 ग्राम वाले सूरन के बीज को 1 मीटर की दूरी पर लगाऐं तो 50 कुंतल प्रति हेक्टेयर की दर से पैदावार होती है।

सूरन के खेतों की निराई गुड़ाई और सिंचाई

सूरन की खेती करने के लिए सामान्य रूप से खरपतवारों को काबू करना अत्यंत जरूरी होता है। 

इसके लिए बीजों की बुवाई करने के तकरीबन 15 से 20 दिन बाद प्राकृतिक ढ़ंग से निराई गुड़ाई करनी चाहिए। सूरन के पौधों को तकरीबन चार से पांच बार करना चाहिए। 

सूरन की फसल को अत्यधिक सिंचाई की आवश्यकता होती है। इसलिए रोपाई के तुरंत बाद ही सिंचाई कर देनी चाहिए

जब तक बीज अंकुरित नहीं हो जाते तब तक खेतों में नमी को बनाए रखें जिसके लिए हमें एक सप्ताह में दो बार सिंचाई करना चाहिए 

सर्दियों के मौसम में 15 से 20 दिन में एक बार इसी सिंचाई करें वही बारिश के मौसम में आवश्यकता पड़ने पर ही सिंचाई करें।

वीएसटी कंपनी ने ट्रैक्टर व पावर टिलर की बिक्री का आँकड़ा जारी किया
वीएसटी कंपनी ने ट्रैक्टर व पावर टिलर की बिक्री का आँकड़ा जारी किया

वीएसटी ने अपने ट्रैक्टर और पावर टिलर दोनों सेगमेंट में अपनी सेल्स रिपोर्ट जारी कर दी है। 

इसके अनुसार वीएसटी ने दिसंबर 2024 के सेल्स डेटा को प्रकाशित किया है जिसमें  ट्रैक्टर और पावर टिलर दोनों सेगमेंट में अलग–अलग परिणाम दिखाई दिए हैं। 

दिसंबर 2023 के मुकाबले में, कंपनी ने दिसंबर 2024 में कुल मिलाकर 3,372 यूनिट बेचीं, जो 38.5% की बढ़ाेतरी को दिखाता है।

दिसंबर 2024 में, वीएसटी ने 3,007 पावर टिलर बेचे, जो पिछले साल दिसंबर 2023 बेची गई 2,039 इकाइयों से 47.5% अधिक है। 

हालांकि, कंपनी के लिए ट्रैक्टर की बिक्री में उल्लेखनीय बदलाव देखने को मिला। दिसंबर 2024 में, वीएसटी ने 365 ट्रैक्टर यूनिट्स बेचीं, जो 2023 में इसी महीने बेची गई 395 यूनिट से 7.6% कम है। 

दिसंबर 2024 में ट्रैक्टरों और पावर टिलर की कुल बिक्री 3,372 यूनिट रही, जो पिछले वर्ष इसी महीने में बेची गई 2,434 यूनिट्स से 38.5% अधिक है।

वीएसटी के पावर टिलर और ट्रैक्टर के वार्षिक आँकड़े 

साल-दर-साल (YTD) के आंकड़े बताते हैं कि वीएसटी के प्रदर्शन के परिणाम मिलेजुले रहे हैं। 2024 में वीएसटी पॉवर टिलर की बिक्री में गिरावट आई है। 

व्यवसाय ने 24,019 यूनिट्स बेचीं, जो 2023 में इसी अवधि में बेची गई 24,914 यूनिट्स के मुकाबले 3.6% कम है। 

वहीं, दूसरी तरफ अगर हम ट्रैक्टर की बिक्री की बात करें तो इसमें मामूली बढ़ोतरी देखी गई, जिसमें 2024 में 3,997 यूनिट्स बेची गईं, जो 2023 में इसी अवधि में बेची गई 3,903 यूनिट्स की अपेक्षा में 2.4 प्रतिशत ज्यादा है। 

वर्ष 2024 के लिए कंपनी की कुल पावर टिलर और ट्रैक्टर बिक्री 28,016 यूनिट रही, जो 2023 में बेची गई 28,817 यूनिट्स से 2.8 प्रतिशत कम है।

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निष्कर्ष 

अगर हम संक्षेप में बात करें, तो वीएसटी के YTD 2024 के सेल्स प्रदर्शन ने विभिन्न प्रकार के नतीजे दिखाए। 

हालांकि, दिसंबर में ट्रैक्टर की बिक्री में गिरावट आई, परंतु कंपनी की समकुल बिक्री में वृद्धि जरूर हुई, जिसमें पावर टिलर की बिक्री में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज हुई है। 

भले ही ट्रैक्टर की बिक्री में कुछ हद तक बढ़ोतरी हुई है। परंतु, इस वर्ष अब तक पावर टिलर की बिक्री में गिरावट से कंपनी की कुल बिक्री बुरी तरह प्रभावित हुई है।