Agriculture

तोरई की खेती से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी
तोरई की खेती से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी

किसान वर्तमान में बागवानी फसलों का उत्पादन कर कम लागत में अच्छा मुनाफा कमा रहे हैं। तोरई एक ऐसी सब्जी है, जिसकी बाजार में हमेशा काफी मांग रहती है। 

अब इसी कड़ी में रायबरेली के राजकीय कृषि केंद्र के एक्सपर्ट दिलीप कुमार सोनी का कहना है, कि तोरई की शानदार किस्मों के बीजों से खेती करने पर काफी अच्छी पैदावार हांसिल होती है। 

पूसा संस्थान ने तोरई की उन्नत और ज्यादा उपज देने वाली बहुत सारी किस्में विकसित की हैं, जिनमें पूसा चिकनी, पूसा स्नेहा, पूसा सुप्रिया, काशी दिव्या, कल्याणपुर चिकनी, फुले प्रजतका, घिया तोरई, पूसा नसदान, सरपुतिया, कोयम्बू- 2 को काफी लोकप्रिय किस्में हैं।

तोरई की उन्नत किस्में  

तोरई की बेहतरीन किस्में जैसे कि T- 9 (काली) तोरई बीज, T- 36 (पीली) तोरई बीज, PT30 (काली) तोरई बीज PT 303 (काली) तोरई बीज शामिल है। तोरिया की इन किस्मों की पैदावार काफी अच्छी होती है। साथ ही, किसानों को बाजार में काफी अच्छा भाव मिलता है। 

बेहतरीन किस्म के बीजों का चुनाव करके किसान कम समय में मोटा मुनाफा हांसिल कर सकते हैं। सितंबर के प्रथम सप्ताह से 50 दिनों तक बुवाई के लिए अच्छा समय होता है। तोरई की देरी से बुवाई करने पर गेहूं की बुवाई में भी देरी का सामना करना पड़ सकता है।  

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तोरई का बीजोपचार 

अगर आप तोरई की खेती करना चाहते हैं, तो बीज की रोपाई से पहले बीजों का उपचार करना आवश्यक है। बीजोपचार के लिए 2 ग्राम काबेंडेजिम के साथ प्रति किलो बीजों का उपचार किया जा सकता है। इसके साथ ही बीजों को एजोटोबैक्टर जीवाणु खाद टीके से उपचारित करना भी लाभकारी सिद्ध हो सकता है।

तोरई की बिजाई

तोरई की खेती के लिए एक एकड़ खेत में 1.50 किलोग्राम बीजों की आवश्यकता हो सकती है। तोरई की बुवाई कतार बनाकर की जानी चाहिए। 

कतारों के बीच एक दूसरे से फासला करीब 30 सेमी. होना चाहिए। इसके अतिरिक्त बुवाई करने के लिए 4 से 5 सेमी गहराई आवश्यक है। पौधे से पौधे के बीच का फासला 10 से 15 सेमी रहना चाहिए। 

तोरई के खेत में सिंचाई 

तोरई की बुवाई के बाद फसल की बेहतर ढ़ंग से सिंचाई करनी चाहिए। साथ ही, मिट्टी की देखभाल करना भी बेहद आवश्यक है। खेतों में उचित जलनिकास की व्यवस्था रहनी चाहिए। 

तोरई की कटाई

तोरई की कटाई 70-80 दिनों की समयावधि में की जा सकती है। फल पकने की स्थिति में सब्जी बनाने के लिए या बीज के लिए उपयोग किए जा सकते हैं।

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निष्कर्ष -

तोरई की खेती से किसान काफी कम समय और लागत में अच्छा-खासा मुनाफा कमा सकते हैं। तोरई का उत्पादन करना एक अच्छी आय का विकल्प है। 

गेंहू कटाई को आसान बनाने के लिए कंबाइन हार्वेस्टर पर भारी छूट
गेंहू कटाई को आसान बनाने के लिए कंबाइन हार्वेस्टर पर भारी छूट

भारतीय किसानों के लिए सरकार की तरफ से एक अच्छी खुशखबरी प्रदान की गई है। जैसा कि हम सब जानते हैं, कि में किसान फिलहाल अपनी रबी सीजन की सबसे खास फसल गेहूं की कटाई में जुटे हुए हैं। 

किसान दिन रात खेतों में खूब पसीना बहा रहे हैं। अब ऐसे में सरकार ने किसानों की जरूरत को देखते हुए उनको राहत पहुँचाने के लिए सरकार ने विभिन्न योजनाएं जारी की हैं, जिनका उद्देश्य आधुनिक कृषि उपकरणों को कम कीमत पर मुहैय्या करवाना है। 

विशेष रूप से गेहूं जैसी फसलों की कटाई के लिए आवश्यक कंबाइन हार्वेस्टर मशीन पर सरकार अनुदान उपलब्ध करा रही है। 

सरकार की तरफ से प्रदान की जा रही इस अनुदान का फायदा उठाकर किसान काफी महंगी मशीनों को कम कीमत पर खरीद सकते हैं। परिणामस्वरूप किसान का परिश्रम, समय और लागत काफी कम होगी। 

ट्रैक्टरचॉइस के इस लेख में गेहूं की कटाई के लिए कृषकों को कंबाइन हार्वेस्टर मशीन पर अनुदान पाने के लिए योजना की पात्रता, आवेदन प्रक्रिया, जरूरी दस्तावेज और कीमत से जुड़ी बातों के बारे में।

कंबाइन हार्वेस्टर क्या है ?

कंबाइन हार्वेस्टर एक बहुउपयोगी कृषि यंत्र है। कंबाइन हार्वेस्टर मशीन फसल की कटाई, थ्रेसिंग (अनाज अलग करना) और कलेक्शन (भंडारण) का काम एक साथ करती है। 

कंबाइन हार्वेस्टर की मदद से गेहूं, जौ, मक्का और सोयाबीन जैसी फसलों की आसानी से कटाई की जाती है। इसके इस्तेमाल से किसानों का समय, श्रम और लागत तीनों की बचत होती है। यही वजह है, कि सरकार अब इसे बढ़ावा देने के लिए सब्सिडी प्रदान कर रही है। 

किस योजना के तहत मिलती है ?

कंबाइन हार्वेस्टर पर मिलने वाला अनुदान केंद्र सरकार की Sub Mission on Agricultural Mechanization (SMAM) योजना के अंतर्गत आती है। 

इस योजना के अंतर्गत विशेष रूप से छोटे, सीमांत, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति वर्ग के किसान, महिला किसान तथा अन्य श्रेणियों को मशीनों की खरीद पर मिलती है। 

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कंबाइन हार्वेस्टर पर कितने रुपए की छूट मिलेगी ? 

कंबाइन हार्वेस्टर की खरीद पर SC/ST, महिला और छोटे किसानों को 50% या अधिकतम 11 लाख रुपये तक का अनुदान मिलता है। सामान्य वर्ग के किसानों को 40% या अधिकतम 8.80 लाख रुपए तक का अनुदान मिलता है। 

योजना के लिए आवश्यक दस्तावेज ?

  • आधार कार्ड
  • पैन कार्ड
  • निवास प्रमाण-पत्र
  • आय प्रमाण-पत्र
  • जमीन के दस्तावेज
  • बैंक पासबुक की कॉपी
  • आधार से लिंक मोबाइल नंबर
  • पासपोर्ट साइज फोटो

योजना हेतु आवेदन प्रक्रिया ?

  1. सरकार की इस योजना का फायदा पाने के लिए किसान को https://agrimachinery.nic.in/ पर जाकर आवेदन करना पड़ेगा। 
  2. आवेदन के दौरान मशीन की खरीद कृषि विभाग से रजिस्टर्ड डीलर से ही करना अनिवार्य है।  
  3. बाजार में कंबाइन हार्वेस्टर की कीमत 5.35 लाख से लेकर 26.70 लाख रुपये तक होती है। 
  4. योजना के तहत अनुदान सिर्फ मशीन की मूल्य पर मिलता है और GST किसान को ही देना होगा। 

निष्कर्ष - 

सरकार द्वारा जारी उपरोक्त योजना का लाभ उठाने के लिए जल्द से जल आवेदन करें और अपनी फसल कटाई के लिए कंबाइन हार्वेस्टर घर ले जाइए बेहद ही किफायती और अनुदानित कीमत पर। 

मई माह में किए जाने वाले प्रमुख कृषि कार्य
मई माह में किए जाने वाले प्रमुख कृषि कार्य

भारत एक कृषि प्रधान देश है। भारत के अलग अलग राज्यों में अलग अलग फसलों का उत्पादन किया जाता है। सिर्फ इतना ही नहीं अलग अलग महीनों के हिसाब से कृषि कार्य भी किए जाते हैं। 

मई के महीने को वैशाख-ज्येष्ठ के नाम से भी जाना जाता है। मई माह में खरीफ की फसलों की बुवाई का सबसे अच्छा वक्त होता है। 

मई माह के प्रमुख कृषि कार्य क्या हैं ?

मई माह के निम्नलिखित कृषि कार्य इस प्रकार हैं:-

  • मई माह में रबी फसलों की गहाई और सफाई की जाती है।
  • मक्का, ज्वार, लोबिया आदि की बुवाई शुरू हो जाती है।
  • खेतों की जुताई करते हैं - मेड़ों को बाँध देते हैं।
  • गन्ने की फसल में 90-92 दिन के अंदर सिंचाई करते हैं।
  • मक्का, ज्वार, संकर नेपियर घास की फसलों की सिंचाई 10-12 दिन के समयांतराल पर करते हैं।
  • मई महीने में केला और पपीता फलों को पत्तियों व बोरियों से ढक कर तेज धूप से बचाया जाता है।
  • कद्दू जैसी फसलों में निदाई, गुड़ाई और सिंचाई का कार्य किया जाता है।
  • कद्दू, तरबूज, ककड़ी, खरबूजा को कीट रोग से बचाते हैं। जो फल तैयार हैं, उनको तोड़ लेते हैं।
  • किसान आम के पेड़ों की देखरेख सही ढ़ंग से करते हैं।
  • अरबी, अदरक, हल्दी की बिजाई की जाती है। 
  • सागौन, खम्हार, बीजा, महुआ, शीशम इत्यादि पौधों की बीज बिजाई का समय है। 
  • बीजों की बिजाई के पश्चात रोज सुबह-शाम हल्की सिंचाई करनी चाहिए।

कृषि में ध्यान देने योग्य आवश्यक बातें

फसलीय सुरक्षा 

बीजापचार में 1 कि.ग्रा. बीज के लिए 2-3 ग्राम दवाई लगती है तथा 1 एकड़  में सिर्फ 10-17 रूपये तक का खर्चा है। सही दवाई व ढंग से किए गये बीजोपचार से फसल पर बीमारी नहीं लगेगी और दवाईयां छिडकने पर लागत खर्च नहीं करनी पडेगी। 

अगर 2-3 दवाईयों से एक साथ बीजोपचार करना हो तो बीज पर सबसे पहले कीटनाशक, फिर बीमारी नाशक तथा सबसे बाद जैव-खाद का उपचार करें। 

इससे सेहत व पौष्टिक फसल के साथ-साथ धनराशि की काफी बचत होती है। यह फसल सुरक्षा का बेहद सुरक्षित व सफल तरीका है, इसको जरूर अपनाएं।

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विश्वसनीय कृषि साधनों का उपयोग 

किसान साथियों, उच्च श्रेणी के कृषि आदान जैसे रोगरोधक बीज, शुद्ध खाद व दवाईयां, कृषि यंत्र, जैव-खाद, सिंचाई जल, ऋण तथा कृषि संबंधी जानकारी के लिए सिर्फ प्रमाणित स्त्रोतों से लेने से ही आपको बगैर किसी दिक्कत के भरपूर व लाभदायक उपज मिल सकती है। 

किसी घटिया स्त्रोत से ये आठों कृषि आदान बेहद सस्ते व सहजता से तो मिल सकते हैं। लेकिन, इसमें मिलावट की भी शिकायत हो सकती है, जिससे फसल को बड़े नुकसान का सामना करना पड़ सकता है।

जैव-खादों का उपयोग 

उर्वरकों के साथ-साथ जैव-खादों का उपयोग कर दालों, मूंगफली, सोयाबीन, बरसीम जैसी फसलों की खेती करने मेंं खर्च कम होता है। 

राइजोवियम जैव-खाद जो, कि हर फसल के लिए अलग होता है। 10-20 रूपये की लागत से प्रति एकड़ एक बोरा यूरिया की बचत होती है। 

अन्य फसलें जैसे मक्का, कपास, सब्जियाँ, चारा में एजोटोवैक्टर, गन्ने में एसीटोवैक्टर, तथा धान में एजास्पीरीलियम का प्रयोग करें। ये जैव खाद हवा से नत्रजन खींचकर मुफ्त में फसल की आवश्यकताओं को पूर्ण करते हैं।

निष्कर्ष - 

किसान साथियों, ट्रैक्टरचॉइस के इस लेख में आज हमने आपको मई माह में किए जाने वाले कुछ प्रमुख कार्यों के बारे में जानकारी प्रदान की है। 

आशा है, आपको इस लेख के माध्यम से मई माह में किए जाने वाले आवश्यक कृषि कार्यों के बारे में मिली जानकारी फायदेमंद साबित होगी।   

फ्रेंचबीन की खेती से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी
फ्रेंचबीन की खेती से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी

फ्रेंचबीन की हरी पौध सब्जी के तौर पर खायी जाती है। फ्रेंचबीन को आप सुखा कर इसको राजमा और लोबिया इत्यादि के रूप में खा सकते हैं। 

फ्रेंचबीन विटामिन बी2 और सोल्युबल फाईबर का प्रमुख स्रोत होता है। जिसकी वजह से यह ह्रदय रोगियों के लिए काफी फायदेमंद होता है। 

सा माना जाता है, कि एक कप पके हुए बीन्स का प्रतिदिन सेवन करने से खून में कोलेस्टेरोल की मात्रा 6 हफ्ते में 10% प्रतिशत तक कम हो सकती है। फ्रेंचबीन से ह्रदयाघात का संकट भी 40% प्रतिशत तक कम हो सकता है।

फ्रेंचबीन में पाए जाने वाले पोषक तत्व 

हरी बीन्स या सामान्य भाषा में फ्रेंचबीन में प्रमुख रूप से पानी, प्रोटीन, कुछ मात्रा में वसा और कैल्सियम, फास्फोरस, आयरन, कैरोटीन, थायमीन, राइबोफ्लेविन, नियासीन, विटामिन सी आदि प्रकार के मिनरल और विटामिन विघमान रहते हैं। 

फ्रेंचबीन में सोडियम की मात्रा कम और पोटेशियम, कैल्सियम व मेग्नीशियम की मात्रा ज्यादा होती है। लवणों का इस प्रकार का समन्वय स्वास्थ्य के लिए काफी फायदेमंद है। इससे रक्तचाप नहीं बढ़ता और ह्रदयघात का संकट भी टल सकता है।

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फ्रेंचबीन की दो उन्नत किस्में

फ्रेंचबीन की झाड़ीदार किस्में  

फ्रेंचबीन की झाड़ीदार किस्मों में जाइंट स्ट्रींगलेस, कंटेंडर, पेसा पार्वती, अका्र कोमल, पंत अनुपमा तथा प्रीमियर, वी.एल. बोनाी-1 आदि किस्म शामिल हैं। 

फ्रेंचबीन की बेलदार किस्में  

फ्रेंचबीन की बेलदार किस्मों में केंटुकी वंडर, पूसा हिमलता व एक.वी0एन.-1 आदि किस्में शामिल हैं।  

फ्रेंचबीन के लिए जलवायु 

फ्रेंचबीन के लिए हल्की गर्म जलवायु की जरूरत पड़ती है। फ्रेंचबीन की अच्छी ग्रोथ के लिए 18-24 डिग्री से. तापमान सबसे अनुकूल रहता है।

फ्रेंचबीन ज्यादा ठंड अथवा ज्यादा गर्मी दोनों ही स्थिति में हानिकारक होता है। फ्रेंचबीन की सफल खेती के लिए निरंतर 3 माह अनुकूल मौसम चाहिए।

फ्रेंचबीन के लिए जमीन  

फ्रेंचबीन की खेती के लिए बलुई दोमट व दोमट मिट॒टी सबसे अच्छी होती है। फ्रेंचबीन की खेती के लिए भारी व अम्लीय मृदा उपयुक्त नहीं होती है।

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फ्रेंचबीन के लिए बीजदर 

फ्रेंचबीन की झाड़ीदार किस्मों के लिए बीजदर 80-90 कि.ग्रा. बीज/हेक्टेयर और बेलदार किस्मों के लिए 35-30 कि.ग्रा. बीज/हेक्टेयर होना जरूरी है। 

फ्रेंचबीन की बुवाई का समय 

उत्तर भारत में जहाँ पर ज्यादा ठंड होती है। फ्रेंचबीन की बुवाई अक्टूबर व फरवरी माह में की जा सकती है। हल्की ठंड वाले स्थानों पर नवंबर के पहले सप्ताह में बुवाई उपयुक्त है। पहाड़ी क्षेत्रों में फरवरी, मार्च व जून माह में बुवाई की जा सकती है।

फ्रेंचबीन बीज की बुवाई में फासला 

फ्रेंचबीन के बीज की बुवाई पंक्ति से पंक्ति 45-60 सें.मी. तथा बीज से बीज की दूरी 10 सें.मी. होती है। परंतु, बेलदार किस्मों के लिए पंक्ति से पंक्ति में 100 से.मी. की दूरी रखनी चाहिए। साथ ही, पौधों को सहारा देने का प्रबंध भी जरूरी है। पर्याप्त नमी होना बीज अंकुरण के लिए भी बेहद जरूरी है।

फ्रेंचबीन की सिंचाई  

फ्रेंचबीन की बुवाई के समय बीज अंकुरण के लिए पर्याप्त नमी की जरूरत पड़ती है। इसके बाद 1 सप्ताह से 10 दिन के समयांतराल पर फसल की जरूरत के अनुरूप सिंचाई करनी चाहिए।

फ्रेंचबीन में खरपतवार नियंत्रण  

फ्रेंचबीन की खेती में खरपतवार नियंत्रण के लिए दो से तीन बार निराई व गुड़ाई करनी जरूरी होती है। एक बार पौधों का सहयोग करने के लिए मिट॒टी चढ़ाना जरूरी है। 

रासायनिक खरपतवार नियंत्रण के लिए 3 लीटर स्टाम्प का प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई के बाद दो दिन के अंदर घोलकर छिड़काव करें।

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फ्रेंचबीन की तुड़ाई  

फ्रेंचबीन की खेती के लिए तुड़ाई फूल आने के 2-3 सप्ताह के बाद शुरू हो जाती है। तुड़ाई नियमित रुप से जब फलियाँ नर्म व कच्ची अवस्था में हो, तभी करें।

फ्रेंचबीन की उपज  

फ्रेंचबीन की खेती के लिए हरी फली उपज 75-100 क्विंटल/हेक्टेयर की दर से हांसिल होती है। फ्रेंचबीन की उपज किस्म के ऊपर निर्भर रहती है।

फ्रेंचबीन का बीज उत्पादन  

  • फ्रेंचबीन किस्म की मांग के आधार पर बीज का उत्पादन करें। आधार बीज के लिए 10 मीटर और प्रमाणित बीज के लिए 5 मीटर की दूरी पर्याप्त है। 
  • प्रजाति की शुद्धता बरकरार रखने के लिए दो बार अवांछित पौधों को बीज फसल से बाहर निकाल दें। 
  • पहली बार फूल आने की स्थिति में और दूसरी बार फली के अच्छी तरह विकसित होने की अवस्था में, जिससे बीज फसल की विशुद्धता बनी रहे। 
  • फ्रेंचबीन की लगभग 90% प्रतिशत फलियों के पकने पर फसल की कटाई करें। 
  • फ्रेंचबीन फसल मड़ाई, बीज की सफाई के बाद उसको सुखाएँ व बीज उपचार के बाद बीज का भंडारण करें।

फ्रेंचबीन की पैदावार

फ्रेंचबीन की खेती से औसत उपज 10-15 क्विंटल प्रति हैक्टेयर और यह सबसे ज्यादा किस्म पर आधारित होती है।   

निष्कर्ष -

फ्रेंचबीन की खेती से किसान काफी अच्छा-खासा मुनाफा कमा सकते हैं। फ्रेंचबीन की बाजार में बहुत ही शानदार मांग और कीमत दोनों होने की वजह से यह बेहतरीन उपज देने वाली फसल है। फ्रेंचबीन की सहायता से किसान काफी अच्छा-खासा मुनाफा अर्जित कर सकते हैं। 

अप्रैल-मई में उगाई जाने वाली कुछ बागवानी फसलें
अप्रैल-मई में उगाई जाने वाली कुछ बागवानी फसलें

किसान इस समय अपनी रबी फसलों की कटाई के कार्यों में जुटे हुए हैं। अब इसके बाद किसान जायद सीजन की फसलों की बुवाई करेंगे। 

इसलिए आज हम ट्रैक्टरचॉइस के इस लेख में आज हम आपको जानकारी देंगे अप्रैल-मई में उगाई जाने वाली कुछ ऐसी सब्जियों की खेती के बारे में जो कम खर्च में आपको अच्छा-खासा मुनाफा प्रदान कर सकती हैं।  

हालाँकि, अप्रैल-मई का महीना कृषि के लिए काफी अलग होता है। चलिए जानते हैं, कुछ ऐसी सब्जियों की खेती के बारे में जो कम समय और कम लागत में अधिक मुनाफा दिलाने वाली हैं। 

भिंडी की खेती 

ग्रीष्मकाल में भिंडी का काफी बड़े पैमाने पर सेवन किया जाता है। इसलिए यह गर्मियों की सबसे स्वादिष्ट और पसंदीदा सब्जी मानी जाती है। भिंड़ी की खेती उष्ण और शुष्क दोनों ही मौसम में बड़ी सहजता से की जा सकती है।  

भिंडी की खेती के लिए अप्रैल-मई का महीना सबसे अच्छा होता है। भिंड़ी की खेती के लिए न्यूनतम तापमान 20 से 35 डिग्री सेल्सियस तक होना चाहिए। 

भिंडी की पैदावार सर्दी की तुलना में गर्मी में ज्यादा अच्छी होती है। किसान भिंड़ी के हाईब्रिड किस्मों की बुवाई कर अगेती खेती कर सकते हैं। भिंडी की बाजार में अच्छी खासी मांग और अच्छी कीमत मिलती है। 

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बैंगन की खेती

रबी सीजन की फसलों की कटाई के बाद किसान बैंगन की खेती कर अच्छा लाभ अर्जित कर सकते हैं। भारत के अंदर बेंगन का उत्पादन और उपभोग सदियों से होता चला आ रहा है। बेंगन भारत भर में सिर्फ ऊँचाई वाले इलाकों को छोड़कर हर जगह आसानी से उगाया जा सकता है। 

बेंगन की वर्षाकालीन फसल के लिए खेती का सबसे अच्छा समय अप्रैल का महीना है। बेंगन की बिजाई के समय सामान्य किस्म के बीज की मात्रा– 250-300 ग्राम और संकर किस्म की 200-250 ग्राम प्रति हेक्टेयर मात्रा है। 

बेंगन की खेती के लिए गहरी, दोमट और समुचित जलनिकासी वाली जमीन सबसे उपयुक्त होती है। बेंगन की फसल की सिंचाई 3 से 4 दिन के समयांतराल पर करनी चाहिए। 

लौकी की खेती

लौकी एक कद्दूवर्गीय सब्जी है, जो गर्मियों के समय में शरीर को शीतलता प्रदान करने के लिए प्रमुख रूप से खाई जाती है। 

लौकी की बुवाई के लिए सबसे अच्छा समय अप्रैल (गर्मी), जून-जुलाई (खरीफ), सितंबर-अक्टूबर (रबी) होता है। तोरई की सब्जी का उपयोग गर्मियों में लोग रायता, हलवा और सब्जी बनाने के लिए करते हैं। 

यही वजह है कि लौकी की बाजार मांग और कीमत दोनों अच्छी हैं। इसलिए किसान कम लागत में अधिक उत्पादन और लाभ देने वाली लौकी की खेती से काफी मुनाफा कमा सकते हैं। 

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तोरई की खेती 

ग्रीष्मकाल के दौरान तोरई का काफी बड़े पैमाने पर सेवन किया जाता है। तोरई काफी पौष्टिक और एक लोकप्रिय बागवानी फसल है। तोरई की बुवाई के लिए सबसे अच्छा समय अप्रैल माह है। 

तोरई की खेती के लिए सामान्य से 40 डिग्री सेल्सियस तक तापमान अनुकूल रहता है। तोरई की खेती के लिए कार्बनिक पदार्थों से युक्त उपजाऊ मिट्टी सबसे अच्छी होती है। तोरई की गर्मियों में अधिक मांग होने की वजह से अच्छी कीमत भी मिल जाती है। 

निष्कर्ष - 

उपरोक्त बताई गई कुछ ग्रीष्मकालीन सब्जियों की खेती कर किसान कम समय और लागत में अच्छी आमदनी कर सकते हैं। आप अपने इलाके की मृदा-जलवायु के हिसाब से इन सब्जियों में से किसी एक का उत्पादन कर लाभ कमा सकते हैं। 

भारत में उगाई जाने वाली कपास की उन्नत किस्में
भारत में उगाई जाने वाली कपास की उन्नत किस्में

भारत एक कृषि समृद्ध देश होने की वजह से विभिन्न फसलों का उत्पादन करता है। भारत में उगाई जाने वाली प्रमुख फसलों में कपास भी एक है। किसी भी फसल की अच्छी उपज और मुनाफा उसकी किस्म पर आधारित होता है। 

इसलिए किसान साथियों आपको किसी भी फसल की बुवाई करने से पहले उन्नत किस्मों का चुनाव करना चाहिए। यह आपकी फसल की सफलता में काफी सहयोगी होता है। 

आप हमेशा अपने क्षेत्र की जलवायु और मृदा को ध्यान में रखकर ही किस्म का चयन करें। इसके अलावा कीट और रोग प्रतिरोधक क्षमता वाली प्रजातियों का चयन आपकी कपास की फसल की सुरक्षा करने और रासायनिक हस्तक्षेप की जरूरत को कम करने में सहयोग कर सकता है। ट्रैक्टरचॉइस के इस लेख में हम कपास की विभिन्न उन्नत किस्मों की बात करेंगे। 

कपास की उन्नत किस्में 

भारत में कपास की खेती में बीटी, संकर से लेकर पारंपरिक किस्मों तक की विविधता है, जिनमें से प्रत्येक की अपनी अनूठी विशेषताएँ और पैदावार हैं। कुछ कपास की किस्में इस प्रकार हैं, जैसे-

कपास की लोकप्रिय बीटी किस्में 

अगर हम बात करें कपास की प्रसिद्ध बीटी किस्मों के बारे में तो  एबीसीएच 243, एबीसीएच 4899, एबीसीएच 254, एसीएच 133-2, एसीएच 155-2, एसीएच 177-2, एसीएच 33-2, अंकुर 3224, अंकुर 3228, अंकुर की 3244, बायोसीड 6588 बीजी- II, बायोसीड बंटी बीजी- II, जेकेसीएच 1947, एमआरसी 7017 बीजी- II, तुलसी 4 बीजी, रासी 314 और मरू बीटी संकर एमआरसी- 7017 आदि बीटी कपास की प्रचलित किस्में है।

बीटी कॉटन एक खास कपास की विविधता है, जिसे जेनेटिक रूप से बेसिलस थुरिंगिनेसिस (बीटी) नामक एक प्रोटीन का उत्पादन करने के लिए बदल दिया गया है। 

यह प्रोटीन एक प्राकृतिक कीटनाशक के रूप में कार्य करता है, जो कपास के पौधे को बोलवॉर्म जैसे कीटों से लड़ने में मदद करता है।

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कपास की संकर किस्में 

कपास की संकर किस्मों की बात करें तो एच एच एच 223, एच एच एच 287, फतेह, एल डी एच 11, एल एच 144, धनलक्ष्मी, एच एच एच 223, सी एस ए ए 2, उमाशंकर, राज एच एच 116 और जे के एच वाई 1 संकर कपास की प्रमुख प्रचलित किस्में हैं।

संकर कपास की किस्में 

संकर कपास की किस्में अपनी उच्च उपज क्षमता और रोग प्रतिरोधक क्षमता की वजह से किसानों के बीच तेजी से लोकप्रिय हो रही हैं। इन किस्मों को वांछित गुणों को संयोजित करने के लिए क्रॉस-परागण के जरिए से उगाया जाता है।

नरमा कपास की किस्में 

पूसा 8-6, एल एस 886, एफ 286, एफ 414, एफ 846, एफ 1378, एफ 1861, एल एच 1556, एस 45, एच 1098 एच एस 6, एच 1117, एच 1226, एच 1236, एच 1300, आर एस 2013, आर एस 810, आर एस टी 9, बीकानेरी नरमा और आर एस 875 नरमा की प्रमुख प्रचलित किस्में है।

अमेरिकी कपास की किस्मों ने भारत के कृषि परिदृश्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह कपड़ा उद्योग में कृषकों और हितधारकों के लिए अद्वितीय विशेषताओं और आर्थिक अवसरों की पेशकश करती है।

देसी कपास की पारंपरिक किस्में 

अगर हम देसी कपास की पारंपरिक किस्मों की बात करें तो एच डी 107, एच डी 123, एच डी 324, एच डी 432, आर जी 18, डी एस 5, एल डी 230, एल डी 327, एल डी 491, एल डी 694 और आर जी 542 आदि देसी कपास की प्रमुख प्रचलित किस्में हैं।

भारत में पारंपरिक कपास की किस्मों की खेती पीढ़ियों से की जाती रही है और इसका काफी सांस्कृतिक महत्व है। देसी किस्में स्थानीय बढ़ती परिस्थितियों के प्रति अपना लचीलापन और अनुकूलनशीलता के लिए जानी जाती हैं।

विभिन्न कपास किस्मों की विशेषताएं 

भारत में कपास की प्रजातियों की बात आती है, तो फाइबर की गुणवत्ता और उत्पादन क्षमता जैसे कारक किसानों के लिए किस्मों के चयन को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जैसे-

फाइबर की गुणवत्ता 

फाइबर की गुणवत्ता कपास की किस्मों पर आधारित होती हैं, जिसमें स्टेपल की लंबाई, मजबूती और महीनता शामिल है। फाइबर की गुणवत्ता अंतिम उत्पाद की बनावट, स्थायित्व और बाजार कीमत को प्रभावित करती है।

उपज क्षमता

कपास की किस्मों का चुनाव करते वक्त किसानों के लिए उपज क्षमता एक अहम विचारणीय बिन्दु है। कपास की शानदार उपज वाली किस्में उत्पादकता और लाभप्रदता को बढ़ा सकती हैं, जिससे वे उत्पादकों के बीच लोकप्रिय विकल्प बन जाती हैं।

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कपास की किस्मों का क्षेत्रीय वितरण

कपास की खेती देशभर में एक समान नहीं है, जलवायु, मिट्टी के प्रकार और खेती के तरीकों जैसे कारकों के आधार पर विभिन्न इलाकों में अलग-अलग किस्मों को प्राथमिकता दी जाती है। 

उत्तरी इलाका  

उत्तरी क्षेत्र के राज्य जैसे पंजाब और हरियाणा और उत्तर प्रदेश मुख्य रूप से बीटी और संकर कपास किस्मों की खेती करते हैं। अपनी उच्च उपज क्षमता और कीट प्रतिरोध के लिए जानी जाती हैं।

पश्चिमी इलाका 

पश्चिम क्षेत्र में गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्य पारंपरिक और संकर कपास किस्मों को उगाने के लिए जाने जाते हैं, जो अपने फाइबर की गुणवत्ता और सूखा सहन करने की क्षमता के लिए बेशकीमती हैं।

दक्षिणी इलाका  

दक्षिणी क्षेत्र में, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश जैसे राज्य संकर और पारंपरिक कपास किस्मों के मिश्रण की खेती करते हैं, जो क्षेत्र में विविध कृषि-जलवायु परिस्थितियों को पूरा करते हैं।

पूर्वी इलाका  

ओडिशा और पश्चिम बंगाल सहित पूर्वी क्षेत्र के राज्य पारंपरिक कपास किस्मों को प्राथमिकता देते हैं, जो क्षेत्र में प्रचलित सामान्य कीटों और बीमारियों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता प्रदर्शित करती हैं।

कपास की किस्मों का कैसे चयन करें ? 

कपास की सही किस्म का चयन आपकी फसल की सफलता में बहुत बड़ा अंतर ला सकता है। जलवायु और मिट्टी की स्थिति जैसे कारक यह निर्धारित करने में बड़ी भूमिका निभाते हैं, कि आपके क्षेत्र में कौन सी किस्म पनपेगी। 

कीट और रोग प्रतिरोधक क्षमता वाली किस्मों का चुनाव आपकी कपास की फसल की रक्षा करने और रासायनिक हस्तक्षेप की आवश्यकता को कम करने में मदद कर सकता है। 

कपास के लिए उपयुक्त जलवायु व मिट्टी

हमारे देश में कपास की किस्में अलग-अलग जलवायु और मिट्टी की स्थितियों के अनुकूल होती हैं। कुछ किस्में गर्म और शुष्क जलवायु के लिए अधिक उपयुक्त हो सकती हैं, जबकि अन्य अधिक आर्द्र वातावरण में पनपती हैं। 

अपने स्थानीय जलवायु और मिट्टी के प्रकार को समझना सही कपास किस्म का चयन करने की कुंजी है, जो सर्वोत्तम परिणाम देगी।

कीट व रोग प्रतिरोधक क्षमता

कीट और रोग कपास की फसलों पर काफी कहर बरपा सकते हैं, जिससे किसानों को काफी हानि का सामना करना पड़ सकता है। 

आम कीटों और बीमारियों के लिए अंतर्निहित प्रतिरोधक क्षमता वाली कपास की किस्मों का चुनाव फसल के नुकसान के जोखिम को कम करने और कीटनाशकों के इस्तेमाल की आवश्यकता को कम करने में सहयोग कर सकता है। इससे ना केवल पर्यावरण को फायदा होगा। साथ ही, किसानों की लागत और समय की बचत होगी। 

निष्कर्ष -

कपास की खेती के लिए किसानों को उपरोक्त में बताई गई उन्नत किस्मों में से किसी एक का चयन करना चाहिए। कपास की खेती करना आज के समय में काफी शानदार मुनाफे का विकल्प है। 

मूंग की 2 नई विकसित किस्मों से कम समय में मिलेगा अधिक मुनाफा
मूंग की 2 नई विकसित किस्मों से कम समय में मिलेगा अधिक मुनाफा

वर्तमान में किसान अपने रबी सीजन की फसल गेहूं की कटाई करने में लगे हुए हैं। लेकिन, गेंहू की कटाई के बाद किसान अपनी अगली फसल की बुवाई की तैयारी में जुट जाएंगे। 

इसलिए आज हम आपको चौधरी चरणसिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय की ओर से विकसित की गई मूंग की दो उन्नत किस्मों के बारे में जानकारी देंगे। 

मूंग की इन दो किस्मों का उत्पादन कर किसान भाई कम समय में अधिक उपज और मुनाफा कमा सकते हैं।  इन किस्मों की बाजार में मांग और भाव दोनों ही काफी अच्छे हैं। 

चलिए ट्रैक्टरचॉइस के इस लेख में जानते हैं, इन पोषक तत्वों से भरपूर इन दो किस्मों के बारे में।  

मूंग की यह दो उन्नत किस्में कौनसी हैं ?

चौधरी चरणसिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय की ओर से मूंग की दो उन्नत किस्में एमएच 1762 और एमएच 1772 को विकसित किया गया है। 

बताया जा रहा है कि इन किस्मों की खेती करने से किसानों को 10 से 15 प्रतिशत अधिक पैदावार प्राप्त हो सकती है। इसी के साथ यह किस्में पीला मौजेक जैसे रोगों के प्रति काफी हद तक प्रतिरोधी हैं।  

मूंग की एमएच 1762 किस्म की क्या विशेषताएं हैं ? 

मूंग की एमएच 1762 किस्म की विशेषताओं की बात करें तो इसको बसंत और ग्रीष्मकाल में उगाया जा सकता है। मूंग की यह किस्म लगभग 60 दिनों के समयांतराल में पककर तैयार हो जाती है। 

इस किस्म के दाने चमकीले हरे रंग के और मध्यम आकार के होते हैं। मूंग की इस किस्म की औसत उपज क्षमता 14.5 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक होती है। मूंग की एमएच 1762 किस्म का उत्पादन राजस्थान, पंजाब, हरियाणा आदि राज्यों में करना सबसे अच्छा रहेगा।

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मूंग की एमएच 1772 किस्म की क्या विशेषताएं हैं ?

मूंग की एमएच 1772 किस्म का उत्पादन विशेष रूप से खरीफ सीजन में की जाती है। मूंग की इस किस्म के दाने भी चमकीले हरे रंग के होते हैं और यह मध्यम आकार के होते हैं। 

मूंग की एमएच 1772 किस्म लगभग 62 दिनों के समयांतराल में पककर तैयार हो जाती है। इस किस्म की उत्पादन क्षमता 13.5 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक है। 

मूंग की इस किस्म की बुवाई उत्तर–पूर्व भारत के मैदानी इलाकों जैसे– बिहार, पश्चिम बंगाल, असम आदि राज्यों में की जा सकती है। 

किसानों को बीज उपलब्ध कराने की योजना  

मूँग की इन दोनों किस्मों को चौधरी चरणसिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय की तरफ से विकसित किया गया है। साथ ही, विश्विद्यालय से मूंग की इन किस्मों के बीज बड़ी संख्या में किसानों को उपलब्ध कराने के लिए राजस्थान की एक बीज कंपनी “स्टार एग्रो सीड्स” के साथ समझौता किया है। 

विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बी.आर काम्बोज का कहना है, कि "विश्वविद्यालय द्वारा विकसित उन्नत किस्में अधिक से अधिक किसानों तक पहुंचे, इसके लिए विभिन्न राज्यों की कंपनियों के साथ समझौते किए जा रहे हैं।" 

निष्कर्ष -

मूंग की इन उन्नत किस्मों की बुवाई करने पर किसानों को काफी शानदार उपज और बेहतरीन मुनाफा मिलेगा।  

कलौंजी की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी
कलौंजी की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

कलौंजी एक प्रसिद्ध औषधीय फसल है, इसका विभिन्न प्रकार की परंपरागत दवाईयां बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। यह डायरिया, अपच और पेट दर्द में काफी लाभदायक होती है। 

कलौंजी का उपयोग यकृत के लिए काफी लाभकारी है। इसका इस्तेमाल सिर दर्द और माइग्रेन में भी किया जाता है। कलौंजी के बीज में 0.5 से 1.6 प्रतिशत तक आवश्यक तेल पाया जाता है। कलौंजी के तेल का इस्तेमाल अमृतधारा इत्यादि औषधियों को तैयार करने में किया जाता है। 

मिट्टी 

कलौंजी की खेती के लिए कार्बनिक पदार्थ वाली बलुई दोमट मृदा सबसे ज्यादा उपयुक्त होती है। पुष्पण और बीज के विकास के समय मृदा में उचित नमी का होना बेहद आवश्यक है। 

इसकी खेती के लिए कम से कम 5-6 सिंचाइयों की आवश्यकता पड़ती है। यह फसल किसानों के लिए काफी लाभदायक होती है।

जलवायु

उत्तर भारत में इसकी बुवाई रबी की फसल के रूप में की जाती है। शुरुआत में वानस्पतिक वृद्धि के लिए ठंडा मौसम अनुकूल होता है। बीज के परिपक्व होने के दौरान शुष्क एवं अपेक्षाकृत गर्म मौसम उपयुक्त होता है।

भूमि की तैयारी

कलौंजी की खेती के लिए मिट्टी भुरभुरी एवं उचित जल निकास वाली होनी चाहिए। खेत की तैयारी के लिए एक गहरी जुताई और दो-तीन उथली जुताइयों के बाद पाटा लगाना अच्छा होता है। 

कलौंजी की बुवाई से पहले खेत को सुविधानुसार छोटी-छोटी क्यारियों में विभाजित कर लेना चाहिए, जिससे कि सिंचाई के जल का फैलाव समान रूप पर हो सके इससे बीज का जमाव एक समान होता है।

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कलौंजी की उन्नत किस्में इस प्रकार हैं ?

एन.आर.सी.एस.एस.एन.-1

यह प्रजाति 135 दिनों में तैयार हो जाती है। यह जड़गलन रोग के प्रति सहनशील है। इसकी उत्पादन क्षमता 12 क्विंटल/हैक्टेयर है।

आजाद कलौंजी 

  • आजाद कलौंजी किस्म 130 से 135 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इसकी उत्पादन क्षमता 8-10 क्विंटल/ हैक्टेयर है।

एन.एस.-44 

  • एन.एस.-44 किस्म 140 से 150 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इसकी उत्पादन क्षमता 4.5-6.5 क्विंटल/हैक्टेयर है।

एन.एस.-32 

  • एन.एस.-32 किस्म 140 से 150 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इसकी उत्पादन क्षमता 4.5-5.5 क्विंटल/हैक्टेयर है।

अजमेर कलौंजी 

  • अजमेर कलौंजी 135 दिन के अंदर पककर तैयार हो जाती है। इसकी उत्पादन क्षमता 8 क्विंटल/हैक्टेयर है।

कालाजीरा 

  • कालाजीरा किस्म की फसल 135 से 145 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसकी उत्पादन क्षमता 4-5 क्विंटल/ हैक्टेयर है।

अन्य किस्में 

  • राजेन्द्र श्याम एवं पंत कृष्णा आदि।

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खरपतवार नियंत्रण

फसल के 30-35 दिन के हो जाने पर उसी समय कतारों से अतिरिक्त पौधों को भी निकाल देना चाहिए, जिससे फसल वृद्धि एवं विकास बेहतर तरीके से हो सके। 

फसल की दूसरी निराई-गुड़ाई 60-70 दिनों के समयांतराल पर करनी चाहिए। इसके बाद यदि आवश्यक हो तो एक निराई और कर देनी चाहिए। 

रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण करने के लिए पेन्डिमेथलिन दवा 1 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व को जमाव पूर्व 500-600 लीटर पानी में घोलकर मृदा पर छिड़काव करना चाहिए। इस विधि से अच्छे परिणाम हांसिल करने के लिए यह आवश्यक है, कि भूमि में पर्याप्त नमी हो।

बुवाई का समय

उत्तर भारत में बुवाई के लिए मध्य सितंबर से मध्य अक्टूबर का महीना सबसे अच्छा होता है।

बीजदर

सीधी बुवाई के लिए 7 कि.ग्रा. बीज एक हैक्टेयर के लिए पर्याप्त होता है।

बीजोपचार

बीज की बिजाई से पूर्व कैप्टॉन, थीरम व बाविस्टीन से 2.5 ग्राम प्रति कि.ग्रा. की दर से उपचारित करना चाहिए।

बुवाई की विधि

कतार विधि 

कतार विधि में बीज की बुवाई 30 सें.मी. की दूरी पर बनी कतारों में करनी चाहिए। बीज बुवाई के समय यह हमेशा ध्यान रखना चाहिए, कि गहराई 2 सें.मी. से अधिक ना हो अन्यथा बीज जमाव पर इसका काफी ज्यादा प्रभाव पड़ता है।

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सिंचाई

पुष्पण एवं बीज विकास के समय मृदा में उचित नमी का होना आवश्यक है। अच्छी पैदावार के लिए तकरीबन 5-6 सिंचाइयों की जरूरत पड़ती है।

खरपतवार नियंत्रण

कलौंजी की फसल में खरपतवार पर नियंत्रण करने के लिए निराई-गुड़ाई का कार्य करें।  

निष्कर्ष - 

कलौंजी की खेती करना किसानों के लिए एक बेहतरीन विकल्प है। कलौंजी का बड़े पैमाने पर कई तरह की दवा बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। इसकी वजह से कलौंजी की बाजार में मांग और कीमत दोनों ही काफी अच्छी होती हैं।

 सैलेरी की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी
सैलेरी की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

किसान साथियों, आज हम आपको अजमोद यानी सैलेरी की खेती के बारे में कुछ महत्वपूर्ण जानकारी देंगे। सबसे पहले आपको बतादें कि सैलेरी का प्रयोग करने से कई सारे रोग दूर होते हैं। 

जैसे कि - जोड़ों का दर्द, सिर दर्द, घबराहट, गठिया और खून साफ करने आदि के लिए किया जाता है। सैलेरी के अंदर विटामिन सी, विटामिन के, विटामिन बी 6, फोलेट और पोटाशियम काफी ज्यादा मात्रा में पाया जाता है। 

सैलेरी का वानस्पतिक नाम एपिऐसी ग्रेविओलेन्स है और इसको कार्नोलीके नाम से भी जाना जाता है। सैलेरी के द्वारा तैयार की जाने वाली दवाइयों के कारण यह काफी लोकप्रिय जड़ी बूटी है। 

सैलेरी का आकार 

सैलेरी के आकार से संबंधित बात करें तो इसकी औसतन ऊंचाई 10-14 इंच और फूलों का रंग सफेद होता है। इसके तने हल्के हरे रंग के होते है और इसके साथ 7-18 सै.मी लंबे पत्ते होते हैं। 

पत्तों से हरे सफेद रंग के फूल पैदा होते हैं, जो फल पैदा करते है और बाद में यही फल बीज में बदल जाते हैं, जिनकी लंबाई 1-2 मि.मी होती है और रंग हरा-भूरा होता है। 

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सैलेरी के प्रमुख उत्पादक इलाके 

सैलेरी अधिकतर मेडिटेरेनियन क्षेत्रों में, दक्षिण एशिया इलाकों में यूरोप और उत्तरी अमेरिका के दलदली क्षेत्रों में और भारत के कुछ इलाकों में पाया जाता है। 

पश्चमी उत्तर प्रदेश में लाडवा और सहारनपुर जिलें, हरियाणा और पंजाब के अमृतसर, गुरदासपुर और जालंधर जिले मुख्य सैलेरी उगाने वाले क्षेत्र हैं। 

सैलेरी की खेती के लिए मिट्टी एवं जलवायु

यह काफी किस्म की बढ़िया निकास वाली मिट्टी जैसे कि रेतीली दोमट से चिकनी, काली मिट्टी और लाल मिट्टी में उगाई जा सकती है। यह जैविक तत्वों वाली दोमट मृदा में अच्छी उपज देती है। 

सैलेरी की बुवाई पानी सोखने वाली, खारी और नमकीन मिट्टी में नहीं करनी चाहिए। इसकी खेती के लिए मिट्टी को 5.6 से भी ज्यादा पी,एच मान की जरूरत होती है।

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सैलेरी की मशहूर किस्में एवं उपज 

पंजाब सैलेरी  

यह पंजाब खेतीबाड़ी यूनिवर्सिटी के द्वारा तैयार की गयी पहली किस्म है। इसके बीज भूरे रंग के होते है। फूलों वाली किस्म पनीरी लगाने से 140-150 दिनों बाद तैयार हो जाती है। इसकी औसतन पैदावार बीजों के रूप में 4.46 कुइंटल प्रति एकड़ होती है। इसमें कुल तेल की मात्रा 20.1% होती है। 

आर.आर.एल- 85-1 / RRL-85-1  

  • यह क्षेत्रीय खोज लबोरटरी, जम्मू के द्वारा तैयार की गयी है| यह 2-3% पीला परिवर्तनशील तेल पैदा करती है। 

स्टैंडर्ड बीअरर / Standard bearer  

  • यह किसम IARI, नयीं दिल्ली द्वारा तैयार की गयी है| यह सलाद के लिए प्रयोग की जाती है। 

राइट ग्रोव जायंट / Wright grove giant  

  • यह किस्म IARI, नयीं दिल्ली द्वारा तैयार की गयी है| यह सलाद के लिए प्रयोग की जाती है। 

फोर्डहुक एम्परर / Fordhook Emperor  

  • यह देरी से पकने वाली किस्म है और इसके शुरुआत में पत्ते छोटे, सख्त और घने सफ़ेद रंग के होते है। 

जायंट पास्कल / Giant Pascal  

  • यह सर्दियो में बढ़िया पैदा होती है, इसका कद 5-6 सै.मी. होता है। 

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भूमि तैयारी  

सैलेरी की खेती के लिए भुरभुरी और एकसार मृदा की आवश्यकता होती है। मिट्टी को सही स्तर पर पहुँचाने के लिए 4-5 बार हल के साथ जोताई करें और जोताई के बाद सुहागा फेर दें। सैलेरी की पनीरी तैयार किए बिना नर्सरी बैडों पर लगाई जाती है।

बिजाई

बिजाई का समय जैसे कि यह हाड़ी की फसल है, तो आधे-सितंबर से आधे-अक्टूबर तक तैयार कर देनी चाहिऐ। पनीरी को 45x25 सै.मी. के फासले पर लगाएं। 

बीज की गहराई की बात करें तो इसके बीज को 2-4 सै.मी. की गहराई पर बोना चाहिए। बीज की मात्रा खुले परागन वाली किस्मों के लिए 400 ग्राम प्रति एकड़ में इस्तेमाल करें। 

पनीरी की देख-रेख व रोपण

पनीरी की बिजाई से पूर्व कैल्शियम अमोनिया और सिंगल सुपर-फास्फेट के 150 ग्राम मिश्रण को बैडों पर लगा दें। 8x1.25 मीटर लंबे और आवश्यकतानुसार चौड़े बैडों पर बीजों की बुवाई करें। 

बिजाई के पश्चात बैडों को रूडी की खाद के साथ ढक दें और मृदा में अच्छी तरह से मिश्रित कर दें। बिजाई से तुरंत बाद फुवारे (स्प्रिंकलर) के साथ सिंचाई करनी आवश्यक है।

बिजाई से 12-15 दिन के पश्चात बीज अंकुरण होना प्रारंभ हो जाता है। अंकुरण शुरू होने के वक्त, अंकुरण से पहले पखवाड़े कैल्शियम अमोनिया नाइट्रेट हर एक बैड पर डालें। 

पौधे के अच्छे आकार के लिए एक माह के फासले पर हर एक बैड पर कैल्शियम अमोनिया नाइट्रेट 100 ग्राम हर एक बैड पर डालें।

बिजाई वाले पौधे रोपाई के लिए 60-70 दिनों के समयांतराल में तैयार हो जाते हैं। पनीरी निकलने से पहले बैडों को हल्का पानी लगा दें, ताकि पौधों को आसानी से निकाला जा सके। आम तौर पर रोपाई आधे-नवम्बर से आधे-दिसंबर तक की जाती है। 

सैलेरी की खेती में खरपतवार नियंत्रण

खेत को नदीन रहत करने के लिए हाथों और कही से हल्की गोड़ाई करें। अगर नदीनों पर काबू नहीं किया जाएँ तो यह पैदावार को कम कर देते हैं। खरपतवारों की प्रभावशाली रोकथाम के लिए कृषि विशेषज्ञों के सलाहनुसार रासायनिक दवाओं का छिड़काव करें।  

खरपतवारों की रोकथाम करने के लिए मल्चिंग भी एक शानदार तरीका है। इसके स्वाद को बढ़ाने के लिए और संवेनदशीलता को बरकरार रखने के लिए इसमें पीलापन होना अति आवश्यक है। 

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सैलेरी की फसल सिंचाई

सैलेरी को बढ़ी विकास के लिए बहुत ज्यादा मात्रा में पानी की जरूरत होती है। थोड़े-थोड़े समय के बाद हल्की सिंचाई करते रहें। नाइट्रोजन डालने से पहले थोड़े-थोड़े समय के बाद हल्की सिंचाई की आवश्यकता होती है। 

सैलेरी की फसल कटाई

कटाई सामान्य तौर पर बिजाई से 4-5 माह के पश्चात की जाती है। फसल की कटाई पौधे और बीज के लिए की जाती है। पौधे जमीन से थोड़ा ऊपर तेज छुरी की सहायता के साथ काटे जाते हैं। 

बीजों की प्राप्ति आमतौर पर बीजों का रंग हल्के भूरे से सुनहरा होने तक की जाती है। फसल तैयार होते ही कटाई कर लेनी चाहिए। सैलेरी की देरी से कटाई करने पर बीज की उपज में गिरावट आती है। 

निष्कर्ष -

सैलेरी का बड़े पैमाने पर उपयोग दवाइयां तैयार करने में होने की वजह से बाजार में इसकी कीमत और मांग दोनों किसानों के लिए फायदेमंद हैं। अतः किसान साथी सैलेरी का उत्पादन कर एक अच्छी आय अर्जित कर सकते हैं। 

केसर की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी
केसर की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

केसर यानी सैफ्रॉन को इसकी खूबियों और कीमत की वजह से धरती को सोना कहा जाता है। अगर हम केसर की खेती के इलाकों की बात करें तो यह प्रमुख रूप से जम्मू कश्मीर और हिमाचल प्रदेश के कुछ इलाकों में उगाई जाती है। 

हालाँकि, आज के समय में कृषि वैज्ञानिकों के अथक प्रयास और खोज की वजह से मैदानी क्षेत्रों में भी केसर की खेती की जा रही है।

केसर विश्वभर में सर्वाधिक महंगा मसाला है। इसकी कीमत सोना और चांदी के समान कीमती है। बाजार में एक किलोग्राम केसर की कीमत 3,00,000 रुपये से भी अधिक है। 

केसर की खेती मुख्य रूप जम्मू कश्मीर और हिमाचल प्रदेश के कुछ हिस्सों में की जाती है। लेकिन, कृषि वैज्ञानिकों की कड़ी मेहनत और खोज से केसर की खेती अब मैदानी इलाकों में भी संभव हो सका है। हालांकि, इसके लिए तापमान को काबू करने की आवश्यकता होती है। 

केसर की खेती के लिए मिट्टी कैसी होनी चाहिए ?

शबला सेवा संस्थान गोरखपुर के अध्यक्ष किरण यादव के अनुसार , केसर (Saffron) की खेती के लिए बंजर और दोमट मृदा सबसे अच्छी होती है। 

उनका कहना है, कि "केसर की खेती जहां करनी है, वह जलभराव का खेत नहीं होना चाहिए। केसर के खेत में जलभराव होने से कंद हरने लगता है और पौधे सूखने लगते हैं। 

केसर की खेती के लिए हल्की सिंचाई की आवश्यकता होती है। लेकिन, सिंचाई के दौरान जलभराव नहीं होना चाहिए। 

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केसर की खेती कब करें ?

केसर की फसल लगने का सही समय जुलाई से अगस्त है। लेकिन, मध्य जुलाई का समय सबसे अच्छा होता है। 

केसर की बिजाई 

  • केसर की खेती कंद के माध्यम से की जाती है। 
  • कंद को लगाने के लिए 6 या 7 सेंटीमीटर का गड्ढ़ा खोदें।  
  • कंद से कंद के बीच में लगभग 1 सेंटीमीटर का फासला रखना चाहिए। 
  • इससे पौध अच्छे से फलेगी फूलेगी और पराग भी अच्छी-खासी मात्रा में निकलेगा। 
  • कंद लगाने के बाद 15 दिन में हल्की तीन सिंचाई की जरूरत होती है। 
  • यह 3 से 4 महीने की फसल है। धूप कम से कम 8 घंटा चाहिए। 
  • अधिक ठंड में यह पौधा सूख जाता है इसकी खेती में सड़ा गोबर का खाद उपयुक्त होता है। 
  • औषधीय गुण में कोई कमी नहीं होती है।  

केसर की कटाई व उपज  

किसान साथियों, अगर हम आपसे केसर की उपज के बारे में बात करें तो एक हेक्टेयर में 1.5 किलोग्राम से 2 किलोग्राम तक सूखे फूल मिलते हैं, जो केसर कहलाता है। 

पौधा अक्टूबर माह में फूलना चालू कर देता है। केसर के फूल सुबह में खिलते हैं और दिन बढ़ने ही मुरझाने लग जाते हैं। केसर की कटाई के बारे में अधिक विशिष्ट होने के लिए, केसर के फूलों को सूर्योदय से सुबह 10 बजे के बीच तोड़ना चाहिए।

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केसर की कीमत सोना-चांदी की तरह होती है 

किरण यादव का कहना है कि "केसर की खेती में एक हेक्टेयर में लगभग 1,80,000 रुपये की लागत आती है। दूसरे वर्ष किसान को खेती में मजदूरी की लागत लगती है, क्योंकि रोपाई के लिए कंद होता है। 

एक बार रोपाई करने के बाद किसान दूसरे साल भी केसर के फसल की उपज ले सकते हैं। कश्मीरी केसर की कीमत 3 से 5 लाख रुपये प्रति किलोग्राम तक होती है।" 

निष्कर्ष - 

केसर का उत्पादन कर किसान काफी अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं। केसर के अंदर विघमान बेहतरीन गुणों की वजह से बाजार में इसकी मांग और कीमत दोनों ही अच्छी रहती हैं।  

काले चावल की सफल खेती करने वाली सुनीता चौधरी की कहानी
काले चावल की सफल खेती करने वाली सुनीता चौधरी की कहानी

आज हम ट्रैक्टरचॉइस के इस लेख में गुजरात की मूल निवासी एक सफल महिला किसान सुनीता चौधरी की सफलता की कहानी के बारे में जानेंगे। 

दरअसल, सुनीता चौधरी गुजरात के तापी जनपद की रहने वाली हैं। उन्होंने नेचुरल फार्मिंग करके काले चावल की खेती करना शुरू किया। 

सफल महिला किसान सुनीता चौधरी ने बेहद कम निवेश में नेचुरल फार्मिंग करके काले चावल की खेती करना प्रारंभ कर दिया। 

सुनीता को प्राकृतिक खेती का विचार कब आया ? 

सुनीता चौधरी ने साल 2013 में 'द आर्ट ऑफ लिविंग' के यूथ लीडरशिप ट्रेनिंग कार्यक्रम में भाग लिया था। सुनीता ने इस प्रशिक्षण कार्यक्रम में खेती किसानी की कई बारीकियां और गुर सीखे। 

उन्होंने जाना कि कैसे कृषि महज आजीविका का साधन ही नहीं बल्कि एक शानदार आमदनी का कार्य माना जाता है। बस यही से सुनीता के मन में खेती-किसानी करने का विचार आया। 

इसके बाद प्राकृतिक खेती की यानी सुनीता ने बगैर मशीन और रसायनों के खेती करना प्रारंभ किया। उनका उद्देश्य टिकाऊ आजीविका बनाना था। 

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काले चावल की खेती में लागत और मुनाफा 

सुनीता चौधरी ने केवल 4000 रुपये के निवेश से काले चावल का उत्पादन करना शुरू किया। सुनीता ने मिश्रित फसल को अपनाया और अपनी पैदावार में विविधता लाई। 

उन्होंने मिट्टी की नमी बनाए रखने के लिए मल्चिंग का उपयोग किया। साथ में जीवामृत जैसे बायो-इनपुट का उपयोग किया।

आधा एकड़ भूमि पर सुनीता ने 150 किलो काला चावल उगाया और उसे 300 रुपये प्रति किलो के हिसाब से बेचा है। सुनीता को इससे 650% प्रतिशत मुनाफा हुआ। 

सुनीता के उगाए गए लोगों को काफी पसंद भी आने लगे। फलस्वरूप उनकी बिक्री भी बढ़ गई। इतना ही नहीं सुनीता 15व किस्म के चावलों की खेती करती है।

निष्कर्ष - 

सुनीता खुद तो प्राकृतिक खेती करती ही हैं अब साथ में दूसरे लोगों को भी प्राकृतिक खेती करना सिखाती हैं। अभी तक सुनीता 3000 से ज्यादा किसानों को प्राकृतिक खेती की ट्रेनिंग प्रदान कर चुकी हैं। 

सफल महिला किसान संगीता: अंगूर की खेती से सालाना ₹25 लाख कमाई
सफल महिला किसान संगीता: अंगूर की खेती से सालाना ₹25 लाख कमाई

भारत में कई तरह की फसलों का उत्पादन किया जाता है। आज हम बात करें सफल अंगूर महिला किसान संगीता पिंगले के बारे में। महिला किसान संगीता पिंगले की कहानी काफी प्रेरणादायक है। 

संगीता महज 13 एकड़ जमीन पर अंगूर की सफल खेती कर सालाना 20-25 लाख रुपए की शानदार आय अर्जित करती हैं। संगीता बचपन से पढ़ाई में बेहद अच्छी थी। संगीता ने केमिस्ट्री से ग्रेजुएशन किया था। 

महिला किसान संगीता पिंगले का बचपन और शिक्षा ? 

संगीता पिंगले का जन्मस्थान नासिक के अंतर्गत शिलापुर गांव है। संगीता को बचपन से पढ़ाई में रूची थी। परिवार की मदद से साल 2000 में संगीता ने केमिस्ट्री से ग्रेजुएशन की पढाई पूरी की। 

संगीता ने जिस वर्ष ग्रैजुएशन की उसी साल उनकी शादी मातोरे गांव निवासी अनिल पिंगले के साथ हुई। अनिल खेती-किसानी का काम करते थे। 

संगीता भी घर-परिवार संभालने का कार्य करती थी। शादी के एक साल बाद साल 2001 में संगीता की एक बेटी को जन्म दिया। लेकिन इसी वर्ष उन्होंने अपने पिता को खो दिया। 

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पति, पुत्र और ससुर की मौत के बाद शुरू की खेती 

साल 2004 में संगीता ने एक दिव्यांग बेटे को जन्म दिया। इसके चलते उन्होंने काफी छोटी उम्र में ही अपने बेटे को खो दिया। बेटे की मौत से संगीता को गहरा सदमा लगा। 

संगीता के जीवन में सबसे बड़ा दुखदायक क्षण साल 2007 में आया जब वह 9 महीने की गर्भवती थीं, उन्होंने एक सड़क दुर्घटना में अपने पति को खोया। हालाँकि, ईश्वर की कृपा से उनके पति की मौत के 15 दिन बाद ही संगीता को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। 

संगीता पिंगले संयुक्त परिवार में रहती थी। लेकिन, साल 2016 में परिवार में संपत्ति का बंटवारा हो गया। संगीता के हिस्से में 13 एकड़ जमीन आई। 

संपत्ति के बंटवारे के 3 महीने बाद ही ससुर की भी मौत हो गई। संगीता को खेती किसानी के बारे में ज्यादा ज्ञान नहीं था, लेकिन फिर भी उन्होंने परिवार के भरण पोषण के लिए बिना हिम्मत हारे खेती करना शुरू कर दिया। संगीता ने अंगूर की खेती करने का फैसला किया। संगीता ने अंगूर उत्पादन के दौरान बेहद परिश्रम किया। 

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निष्कर्ष-

कई गंभीर चुनौतियों का सामना करने के बाद भी संगीता के सामने बच्चों के पालनपोषण की जिम्मेदारी थी। संगीता ने बच्चों के लिए निजी दुखों को भुलाकर खेती करने की ठानी। 

सफल महिला किसान संगीता ने एक हजार टन अंगूर का उत्पादन किया। वह अंगूर की खेती से सालाना 20-25 लाख रुपए की शानदार आय कर रही हैं। संगीता अपने क्षेत्र और देश की महिलाओं के लिए मिशाल बन गई हैं।