सरकार की तरफ से किसानों की आमदनी को दोगुना करने की हर संभव कोशिश की जा रही है। इसके अंतर्गत किसानों को खेती में नवीन तकनीकों के उपयोग पर जोर दिया जा रहा है।
इसके लिए सरकार की तरफ से सब्सिडी का लाभ भी प्रदान किया जा रहा है। इसी कड़ी में राज्य सरकार की तरफ से राज्य के किसानों को खजूर की खेती पर 1.60 लाख रुपए तक का अनुदान दिया जा रहा है।
भारत के अंदर खजूर की खेती अब किसानों के लिए एक शानदार विकल्प बनकर उभर रही है। खजूर की खेती की मुख्य बात यह है, कि इसकी खेती कम पानी और कम लागत में की जा सकती है।
ऐसे में इसकी खेती उन इलाकों के लिए बेहद फायदेमंद साबित हो सकती है। जहां सिंचाई के लिए पानी की उपलब्धता काफी कम है। किसान खजूर की खेती से काफी शानदार मुनाफा अर्जित कर सकते हैं।
राज्य सरकार की ओर से “एकीकृत बागवानी मिशन” (MIDH) के तहत खजूर की खेती पर सब्सिडी देने का फैसला किया गया है।
योजना 2025 के तहत किसानों को खजूर की खेती के लिए प्रति हैक्टेयर 1.60 लाख रुपए तक की सब्सिडी दी जा रही है। यह सब्सिडी उन किसानों के लिए है जो खजूर की खेती को अपनाना चाहते हैं या पहले से कर रहे हैं और अपने क्षेत्र में इसका विस्तार करना चाहते हैं।
अनुदान की यह राशि सीधे किसानों के बैंक खातों में DBT स्कीम (डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर) के माध्यम से भेजी जाएगी, जिससे प्रक्रिया पारदर्शी और तेज हो।
राज्य सरकार खजूर की खेती के इच्छुक किसानों को तकनीकी प्रशिक्षण और मार्गदर्शन भी प्रदान कर रही है। इसके तहत किसानों को मिट्टी की जांच, पौध चयन, सिंचाई पद्धति और देखभाल के आधुनिक तरीकों की जानकारी दी जा रही है।
कृषि विज्ञान केंद्रों (KVK) और बागवनी विभाग के माध्यम से यह सहायता उपलब्ध करवाई जा रही है, ताकि किसान खजूर उत्पादन को वैज्ञानिक तरीके से कर सकें।
अभी हरियाणा सरकार की ओर से “एकीकृत बागवनी विकास मिशन” के तहत राज्य के किसानों को खजूर की खेती पर सब्सिडी का लाभ प्रदान किया जा रहा है।
खासकर प्रदेश के दक्षिणी हिस्सों में खेती करने वाले किसानों को प्राथमिकता दी जा रही है। ऐसा इसलिए कि यहां पानी की कमी है, ऐसे में यहां के किसानों के लिए कम पानी में फसल जैसे खजूर की खेती से अच्छा लाभ प्राप्त कर सकेंगे।
प्रदेश के अनुदान पाने हेतु इच्छुक किसान अपने नजदीकी बागवानी विभाग कार्यालय में जाकर संपर्क कर सकते हैं। इसके अलावा हरियाणा सरकार की कृषि संबंधित वेबसाइटों पर ऑनलाइन आवेदन की सुविधा भी मौजूद है। आवेदन के लिए आपको जिन आवश्यक दस्तावेजों की जरूरत है, वे निम्नलिखित हैं :-
प्रश्न: किस राज्य में मिल रही खजूर की खेती पर सब्सिडी ?
उत्तर : हरियाणा
प्रश्न : किस संस्थान द्वारा खजूर की खेती का प्रशिक्षण दिया जा रहा है ?
उत्तर: केवीके (KVK)
प्रश्न: किस मिशन के तहत सब्सिडी प्रदान की जा रही है ?
उत्तर: “एकीकृत बागवानी विकास मिशन”
भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहां विभिन्न प्रकार की फसलों की खेती की जाती है। भारतीय कृषि क्षेत्र में सिंदूर की खेती एक लोकप्रिय कृषि विकल्प बनता जा रहा है।
क्योंकि इसमें कम लागत, लंबी उपज अवधि और वैश्विक मांग की वजह से यह खेती किसानी को आर्थिक तौर पर मजबूत करती है। सिंदूर की प्राकृतिक रंग 'एन्नाटो' के रूप में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी काफी बड़ी मांग है।
भारतीय संस्कृति में पेड़ों की भी पूजा की जाती है। साथ ही कुछ पेड़ों से जुड़ी श्रद्धा और परंपरा भी हैं। इन्ही में से एक सिंदूर का पेड़ भी है, जिसको आजकल Vermilion Farming के रूप में जाना जाता है।
सिंदूर के पेड़ की अहमियत केवल इसके लाल रंग के साथ साथ इस रंग से जुड़ी आस्था और परंपरा के लिए भी है। दक्षिण भारत, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल और झारखंड जैसे क्षेत्रों में यह पेड़ अब किसानों के लिए न केवल एक पौधा, बल्कि एक सोने की खान बन चुका है।
सिंदूर, जो कि धार्मिक अनुष्ठानों का अभिन्न हिस्सा है, अब किसानों की खुशहाली का भी प्रतीक बन चुका है। इसकी खेती न सिर्फ कम लागत में उगाई जा सकती है, बल्कि यह लाखों रुपये का मुनाफा भी किसानों को प्रदान करने में सक्षम है।
सिंदूर का पेड़ उष्णकटिबंधीय जलवायु में उगता है और इसके बीजों से एक प्राकृतिक रंगद्रव्य प्राप्त होता है, जिसका उपयोग खाद्य पदार्थों, कॉस्मेटिक्स और औषधियों में किया जाता है। इसके बीजों से निकाला गया रंग ‘एन्नाटो’ कहलाता है, जो विश्वभर में प्राकृतिक रंग के रूप में लोकप्रिय है।
सिंदूर के पेड़ की निम्नलिखित विशेषताएं हैं:-
सिंदूर बनाने की प्रक्रिया में सबसे पहले बिक्सा पौधे के फलों से बीज निकालकर एकत्रित करना । इसके बाद इन बीजों को कुछ दिनों तक धूप में सुखाया जाता है, ताकि इनमें मौजूद नमी समाप्त हो जाए।
फिर सूखे बीजों को पीसकर एक लाल रंग का पाउडर तैयार किया जाता है। इसके बाद पाउडर को छानकर उसमें से अशुद्धियाँ हटाई जाती हैं। इसमें हल्दी, चंदन, कपूर, या गुलाब जल जैसे तत्व मिलाकर इसको और भी उपयोगी बनाया जा सकता है।
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भारत के अंदर आज भी सिंदूर की खेती काफी सीमित है, जबकि वैश्विक बाजार में एन्नाटो की भारी मांग है। अमेरिका, जापान और यूरोप के कई देशों में प्राकृतिक रंगों की मांग बढ़ रही है। इसके कारण भारत में सिंदूर उत्पादन को प्रोत्साहन मिल सकता है।
भारत के अंदर विभिन्न राज्यों के कृषि विभाग सिंदूर की खेती को बढ़ावा देने के लिए प्रशिक्षण, पौध वितरण और विपणन सहयोग दे रहे हैं।
विशेष रूप से छत्तीसगढ़, झारखंड और ओडिशा जैसे राज्यों में यह खेती आदिवासी किसानों के बीच काफी लोकप्रिय होती जा रही है।
प्रश्न: भारत में सिंदूर उत्पादन को क्यों प्रोत्साहन दिया जा रहा है ?
उत्तर: सिंदूर की वैश्विक बाजार में बढ़ती मांग की वजह से भारत में सिंदूर उत्पादन को प्रोत्साहन मिल सकता है।
प्रश्न: सिंदूर की खेती के लिए कैसी जलवायु होनी चाहिए ?
उत्तर: सिंदूर की खेती के लिए उष्णकटिबंधीय जलवायु सबसे उपयुक्त होती है।
प्रश्न: भारत के किन क्षेत्रों में सिंदूर की खेती की जा रही है ?
उत्तर: भारत के अंदर सबसे ज्यादा सिंदूर की खेती छत्तीसगढ़, झारखंड और ओडिशा जैसे राज्यों में की जा रही है।
राइपनिंग एक महत्वपूर्ण आधुनिक तकनीक है, जिससे फल समय से पहले पक जाते हैं। अगर हम इसके उपयोगकर्ताओं की बात करें तो इसका इस्तेमाल बहुत सारे बड़े फल विक्रेता करते हैं।
इस तकनीक के माध्यम से फल पकाने के लिए छोटे-छोटे चैंबर वाला कोल्ड स्टोरेज तैयार किया जाता है। इस चैंबर में एथिलीन गैस को छोड़ दिया जाता है। इसकी मदद से फल शीघ्रता से पकने लग जाते हैं। इससे किसी तरह के का फलों को खतरा नहीं होता है।
राइपनिंग तकनीक वर्तमान में फलों को पकाने का सबसे आसान और पारंपरिक तरीका है। राइपनिंग तकनीक से फल को बिना नुकसान पहुंचाए लंबे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है।
फलों को पकाने के लिए राइपनिंग तकनीक का इस्तेमाल करके किसान ज्यादा लंबे समय तक फलों को तरोताजा रख सकते हैं।
राइपनिंग तकनीक का इस्तेमाल करने से फलों की गुणवत्ता में अंतर नहीं आता है। यह एक आधुनिक तकनीक है, जिसका इस्तेमाल फलों को समय से पूर्व पकाने में किया जाता है। बड़े-बड़े फल विक्रेता इसी प्रोसेस का इस्तेमाल करके फलों को लंबे समय तक ताजा रखते हैं।
राइपनिंग तकनीक की इस प्रक्रिया में फल पकाने के लिए छोटे-छोटे चैंबर वाला कोल्ड स्टोरेज तैयार किए जाते हैं। इस चैंबर में एथिलीन गैस छोड़ी जाती है। इससे फल भी काफी कम समयावधि में पकने लग जाते हैं।
राइपनिंग तकनीक से फलों को पकाने पर फलों को किसी तरह का संकट नहीं रहता है। इस तकनीक का उपयोग आम, पपीता और केला को पकाने में किया जाता है।
आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि राइपनिंग तकनीक का इस्तेमाल करने पर सरकार से सब्सिड़ी भी मिलती है। इस तकनीक में कोल्ड स्टोरेज निर्माण के लिए सरकार की तरफ से मदद दी जाती है।
राइपनिंग तकनीक के तहत सरकार से कोल्ड स्टोरेज निर्माण के लिए किसानों को करीब 35 से 50 प्रतिशत तक की सब्सिडी भी दी जाती है।
राइपनिंग तकनीक अन्य तकनीकों की तुलना में काफी कम खर्चीला है। फल को पकाने के लिए इसे बोरे, पैरा और भूसे और अनाज के बीच में दबाकर रखने से भी फल समय से पहले पकाया जा सकता है। फल को कागज में लपेटकर रखने से भी फल काफी अच्छी तरह से पकते है।
किसान साथियों, सामान्य भाषा में समझें तो राइपनिंग एक महत्वपूर्ण आधुनिक तकनीक है, जिससे फल समय से पहले पक जाते हैं।
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI) ने स्व. डॉ. नुनावथ अश्विनी की स्मृति में नवीन चने की किस्म ‘पूसा चना 4037 (अश्विनी)’ विकसित किया है।
यह किस्म उच्च उपज, पोषण और रोग प्रतिरोधक क्षमता के साथ खेती में नई उम्मीद लेकर आयी है। यह उत्तर-पश्चिमी भारत के मैदानी क्षेत्रों, जैसे पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली, उत्तरी राजस्थान, जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के लिए उपयुक्त है।
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पूसा चना 4037 (अश्विनी) किस्म प्रतिभा, समर्पण और सेवा की मिसाल डॉ. नुनावथ अश्विनी की याद में बनाई गई है, जो एक युवा कृषि वैज्ञानिक थीं, जिनकी 2024 में मृत्यु हो गई थी।
डॉ. अश्विनी ने ICAR-ARS 2021 परीक्षा में ऑल इंडिया रैंक 1 का मुकाम हांसिल किया था। उन्होंने IARI, नई दिल्ली से स्नातक और परास्नातक में स्वर्ण पदक हांसिल किया था।
डॉ. अश्विनी रायपुर स्थित ICAR-NIBSM में वैज्ञानिक के तौर पर कार्यरत थीं। डॉ. अश्विनी की ग्रामीण विकास के प्रति गहरी प्रतिबद्धता और वैज्ञानिक शोध में उनकी दक्षता की वजह से उनकी बड़े स्तर पर तारीफ की गई।
पूसा चना 4037 (अश्विनी) किस्म उत्तर भारत के चना उत्पादक इलाकों के लिए तैयार की गई है। इसमें 2673 किग्रा/हेक्टेयर की औसत उपज है, जबकि अधिकतम संभावित उपज 3646 किग्रा/हेक्टेयर तक है। 24.8% प्रतिशत प्रोटीन सामग्री इसको पोषण के दृष्टिकोण से और भी बेहतर बनाती है।
यह किस्म मशीन से कटाई के लिए भी अनुकूल है। यह फ्यूजेरियम विल्ट के प्रति मजबूत प्रतिरोध और ड्राई रूट रॉट, कॉलर रॉट, स्टंट रोग के प्रति मध्यम प्रतिरोध दिखाती है।
प्रश्न: डॉ अश्विनी की मौत कैसे हुई ?
उत्तर: स्व. डॉ. नुनावथ अश्विनी एक प्रतिभाशाली युवा कृषि वैज्ञानिक थीं। डॉ अश्विनी की पिछले साल सितंबर में तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में आई विनाशकारी बाढ़ के दौरान मृत्यु हो गई।
प्रश्न: पूसा चना 4037 अश्विनी किस्म का नाम किस संस्थान ने रखा है ?
उत्तर: भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI)
डॉ. अश्विनी रायपुर स्थित ICAR-NIBSM में वैज्ञानिक के तौर पर कार्यरत
प्रश्न: डॉ. अश्विनी वैज्ञानिक के तौर पर कहाँ कार्यरत थी ?
उत्तर: रायपुर स्थित ICAR-NIBSM
भारत के अंदर रंग-बिरंगी सब्जियां काफी बड़े आकर्षण का केंद्र बन रही हैं। बाजार में ये सब्जियां बड़े ही आराम से बिक जाती हैं। इनसे विज्ञान भी जुड़ा है। हर अलग रंग की सब्जी के फायदे भी अलग होते हैं।
इनके सेवन से शरीर काफी स्वस्थ रहता है। आमतौर पर भारत के ज्यादातर इलाकों में हरी सब्जियों का सेवन किया जाता है, लेकिन अब ग्राहकों की डिमांड बदलने लगी है।
कभी हरे रंग में मिलने वाली सब्जियां अब अलग-अलग रंगों में उपलब्ध करवाई जा रही है। ये पूरी तरह प्राकृतिक होती है। केवल वैरायटी का अंतर होता है।
उदाहरण के लिए- हरे रंग की शिमला मिर्च के साथ-साथ अब लाल और पीले रंग की शिमला मिर्च भी आ गई है, जो स्वाद और सेहत के मामले में बहुत अच्छी है।आज हम आपको सदियों से लोकप्रिय भिंडी को भी अब लाल रंग में उपलब्ध करवाया जा रहा है। उत्तर प्रदेश के साथ-साथ मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ में भी काफी पसंद किया जा रहा है।
ट्रैक्टरचॉइस के इस लेख में आज हम बात करेंगे वाराणसी स्थित भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित आयरन, जिंक, कैल्शियम और प्रोटीन से भरपूर लाल रंग की काशी लालिमा भिंडी के बारे में।
जानकारी के लिए बतादें, कि लाल भिंडी 'काशी लालिमा' में एंथोसाइनिन पाया जाता है, जबकि हरे रंग की भिंडी में क्लोरोफिल मौजूद होता है। एंथोसाइनिन लाल भिंडा का कारक होता है। इसमें मौजूद एंटी-ऑक्सीडेंट्स भी शरीर को स्वस्थ रखने में सहयोग करता है।
काशी लालिमा में फोलिक एसिड पाया जाता है, जो गर्भ में पल रहे बच्चे के मानसिक विकास के लिए बहुत जरूरी होता है। इस भिंडी का नियमित रूप से सेवन करने पर कैंसर, डायबिटीज, हार्ट डिजीज, कोलेस्ट्रॉल जैसी बीमारियों का खतरा भी कम होता है।
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राष्ट्रीय बीज निगम लिमिटेड की जानकारी के मुताबिक, लाल भिंडी काशी लालिमा को बाजार में अधिक मूल्य मिला है। वैसे तो लाल भिंडी को भी हरी भिंडी की भांति ही उगाया जाता है, हालांकि हरी भिंडी की तुलना में इसकी प्रति हेक्टेयर पैदावार कुछ कम है। लाल भिंडी काशी लालिमा की निम्नलिखित खासियत हैं :-
प्रश्न: लाल भिंडी में कौन से पोषक तत्व होते हैं ?
उत्तर: लाल भिंडी में आयरन, जिंक, कैल्शियम और प्रोटीन विघमान होते हैं।
प्रश्न: लाल भिंडी की काशी लालिमा किस्म की बुवाई का समय क्या है ?
उत्तर: काशी लालिमा किस्म की बुवाई 15 जून से लगाकर 15 जुलाई के बीच होती है।
प्रश्न: काशी लालिमा वैरायटी की प्रति पौधा उपज क्या है ?
उत्तर: काशी लालिमा वैरायटी का प्रति पौधा 20 से 22 भिंडी उपज देता है।
आम को फलों का राजा कहा जाता है, और भारत में शायद ही कोई होगा जो इसकी मिठास और स्वाद का दीवाना न हो। खासकर गर्मियों में लोग आम को सीधे खाते हैं या शेक और डेज़र्ट्स में इसका लुत्फ उठाते हैं।
जैसे-जैसे गर्मियों का मौसम नजदीक आता है, बाजार में आम की मांग तेज़ी से बढ़ने लगती है। यही वजह है कि आम उत्पादक किसान इस समय का लाभ उठाकर अच्छी आमदनी कर सकते हैं।
इस लेख में हम आपको उत्तर प्रदेश की प्रसिद्ध आम की किस्मों के बारे में विस्तार से जानकारी देंगे, जिनकी मांग देशभर में रहती है।
लंगड़ा आम उत्तर प्रदेश की सबसे प्रसिद्ध किस्मों में से एक है। इसका नामकरण एक पुजारी के नाम पर हुआ था, जो शारीरिक रूप से विकलांग था।
कहा जाता है कि 250 साल पहले बनारस के एक मंदिर में एक साधु ने उस पुजारी को दो आम के पौधे दिए। जब उन पेड़ों में फल लगे तो उन्हें भगवान शिव को अर्पित किया गया। बाद में यह आम “लंगड़ा आम” के नाम से प्रसिद्ध हो गया।
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चौसा आम स्वाद, रस और मिठास के लिए जाना जाता है। यह आम जुलाई के महीने में बाज़ार में आता है और अपनी विशेष सुगंध और स्वाद से लोगों को आकर्षित करता है।
इतिहास: 1539 में शेरशाह सूरी ने हुमायूँ से युद्ध जीतने के बाद इस आम का नाम "चौसा" रखा था।
हुस्नआरा आम लखनऊ की शान है। यह आम सिर्फ स्वाद में ही नहीं, बल्कि देखने में भी बेहद आकर्षक होता है। इसका छिलका सेब जैसा होता है।
सफेदा आम अपनी खट्टी-मीठी तासीर और कम फाइबर कंटेंट के लिए जाना जाता है। इसका छिलका पकने पर हल्के सफेदपन के साथ चमकीला पीला हो जाता है।
रतौल आम का नाम यूपी के बागपत जिले के रतौल गांव पर रखा गया है। यह आम छोटा लेकिन स्वाद में जबरदस्त होता है।
गौरजीत आम भले ही बाकी किस्मों की तरह प्रसिद्ध न हो, लेकिन इसका स्वाद इसे खास बनाता है। यह गोरखपुर और तराई क्षेत्र में खूब पसंद किया जाता है।
प्रश्न: चौसा आम का नामकरण किसने किया था?
उत्तर: शेर शाह सूरी ने 1539 में हुमायूँ से युद्ध जीतने के बाद इस आम को "चौसा" नाम दिया।
प्रश्न: हुस्नआरा आम मूल रूप से कहाँ का है?
उत्तर: हुस्नआरा आम लखनऊ की प्रसिद्ध किस्म है।
प्रश्न: गौरजीत आम बाजार में कब आता है?
उत्तर: यह आम मई के मध्य में पकता है और जून के मध्य तक बाजार में आने लगता है।
ई–रिपर मशीन एक इलेक्ट्रिक फसल कटाई यंत्र है जो कम खर्च में 8 घंटे तक लगातार काम करता है। यह पर्यावरण अनुकूल मशीन छोटे किसानों के लिए किफायती किराए पर उपलब्ध है और खेती को आसान व लाभकारी बना रही है।
भारत में जैसे–जैसे कृषि क्षेत्र में आधुनिकता बढ़ती जा रही है वैसे–वैसे किसानों की मेहनत कम और मुनाफा बढ़ने लगा है।
गेहूं की कटाई के इस मौसम में किसानों को ऐसी मशीन की जरूरत पड़ती है, जो कम समय और कम खर्च में अधिक क्षेत्रफल में फसलों की कटाई कर सकें।
वर्तमान में किसानों की इसी आवश्यकता को मद्देनजर रखते हुए ई–रिपर मशीन को तैयार किया गया है। यह एक कटाई के लिए अद्भुत और किफायती समाधान है। भोपाल की एक नवाचार आधारित कृषि यंत्र निर्माता कंपनी किसान मित्र ने इस मशीन को तैयार किया है।
ई–रिपर की सबसे खास बात यह है कि यह बैटरी के जरिए चलती है, जिससे डीजल या पेट्रोल पर अधिक खर्च नहीं आता है। इस मशीन का निर्माण विशेष रूप से छोटे और मध्यम किसान की जरूरतों को ध्यान में रखकर हुआ है।
ई–रिपर एक अत्याधुनिक फसल कटाई मशीन है, जो पूरी तरह से इलेक्ट्रिक बैटरी के माध्यम से चलती है। किसान मित्र कंपनी ने इस मशीन को पर्यावरण अनुकूल, चलाने में आसान और हर मौसम व फसल के अनुकूल बनाने की दिशा में विशेष रूप से कार्य किया है।
वर्तमान में यह मशीन किसानों को किफायती किराये पर उपलब्ध कराई जा रही है, जिससे वे बिना बड़ी पूंजी लगाए इसका लाभ प्राप्त कर सकें।
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ई–रिपर मशीन की बहुत सारी ऐसी खूबियां हैं, जो इसको आम कटाई मशीनों से हटकर बनाती हैं। यह एक बार चार्ज करने पर निरंतर 8 घंटे तक कार्य करती है।
एक घंटे में एक एकड़ तक फसल की कटाई करने की क्षमता होती है। बिना धुंआ और शून्य कार्बन उत्सर्जन की वजह से यह पर्यावरण के लिए अनुकूल है।
बैटरी को आसानी से बदला जा सकता है। यह गेहूं, चना, धान जैसी प्रमुख फसलों की सटीक और समतल कटाई करती है।
मशीन की हल्की बनावट और मजबूत चेसिस इसे उबड़–खाबड़ रास्तों पर भी चलाने योग्य बनाते हैं। छोटे ट्रॉली वाहन या ठेले पर इसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर आसानी से ले जाया जा सकता है।
ई–रिपर को फिलहाल किसानों को केवल 1000 रुपए प्रति एकड़ की दर पर किराये पर दिया जा रहा है। इससे छोटे किसान भी आधुनिक तकनीक का लाभ ले पा रहे हैं, जो पहले उनके लिए केवल एक सपना था।
यह पहल खास तौर पर उन किसानों के लिए वरदान साबित हो रही है, जिनके पास अपनी खुद की कटाई मशीन नहीं है। खबरों के अनुसार, कई किसान अब ई–रिपर के साथ बाइंडर की भी मांग कर रहे हैं, ताकि कटाई के साथ बंधाई का कार्य भी एक साथ हो सके।
प्रश्न: ई-रिपर क्या होता है ?
उत्तर: ई–रिपर मशीन एक इलेक्ट्रिक फसल कटाई यंत्र है जो कम खर्च में 8 घंटे तक लगातार काम करता है।
प्रश्न: ई-रिपर निर्माता कंपनी का क्या नाम है ?
उत्तर: भोपाल की इस नवाचार आधारित कृषि यंत्र निर्माता कंपनी का नाम किसान मित्र है।
प्रश्न: किसान मित्र कंपनी और कौन-से उत्पाद बनाती है ?
उत्तर: किसान मित्र कंपनी आने वाले समय में इलेक्ट्रिक थ्रेशर, सोलर पंप और मिनी ट्रैक्टर जैसे उत्पाद तैयार कर रही है।
काजी नेमू असम के विभिन्न भागों में उगाई जाने वाली असम नींबू की एक विशेष किस्म है। काजी नेमू असम का राजकीय फल है।
काजी नेमू एक बारहमासी कांटेदार झाड़ी है। काजी नेमू के पत्ते गहरे हरे रंग के होते हैं और तोड़ने पर काफी खुशबू भी देते हैं।
नींबू की छाल पतली होती है और पके नींबू रस से भरपूर होते हैं। फल का रंग गहरे हरे से लेकर हल्के हरे-पीले रंग तक होता है।
यह तोड़ने के लिए काफी अनुकूल होता है। काजी नेमू की खेती वर्षभर होती है। लेकिन, नवंबर से जनवरी तक पैदावार कम होती है।
काजी नेमू के उत्पादन के लिए समुचित जल निकासी वाली दोमट मृदा सबसे उपयुक्त होती है। नींबू की खेती के लिए शुष्क उपोष्णकटिबंधीय जलवायु आदर्श है।
काजी नेमू को विशेष तौर पर कटिंग के माध्यम से प्रचारित किया जाता है। हालांकि, बीजों से भी पौधे उगाए जा सकते हैं।
काजी नेमू का पेड़ आमतौर पर 2-3.5 मीटर की ऊंचाई तक बढ़ता है। काजी नेमू की पत्तियों की लंबाई 7-10 सेमी और चौड़ाई 3-5 सेमी तक होती है। काजी नेमू के पेड़ों की आयु लगभग 20 से 25 साल होती है।
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काजी नेमू से अधिक पैदावार प्राप्त करने के लिए, उचित उर्वरक और जल प्रबंधन प्रथाओं को लागू किया जाना चाहिए। कीटों और बीमारियों से बचाने के लिए कीटनाशकों की सिफारिश की जाती है।
काजी नेमू के पेड़ पर हल्के बैंगनी रंग के फूल आते हैं और परिपक्व होने पर 300 से 500 फल देते हैं। हर एक फल का वजन तकरीबन 60-100 ग्राम तक होता है। यह पेड़ प्रति वर्ष प्रति हेक्टेयर 20 से 30 टन तक उपज प्रदान कर सकते हैं।
प्रश्न: काजी नेमू प्रमुख रूप से कहाँ की फसल है ?
उत्तर: असम
प्रश्न: काजी नेमू की क्या खासियत है ?
उत्तर: यह रसदार और सुगंधित नींबू है जिसकी छाल पतली होती है।
प्रश्न: एक हेक्टेयर से काजी नेमू की औसत उपज क्या होती है?
उत्तर: लगभग 20 से 30 टन प्रति वर्ष।
खेती-किसानी भारत की अर्थव्यवस्था का प्रमुख स्तंभ है। क्योंकि भारत एक कृषि प्रधानता वाला देश है। मई माह में गर्मी की फसलें खरीफ की शुरुआत किसानों के लिए मुनाफे का बड़ा अवसर लेकर आती है। भिंडी, फूलगोभी, मूंग, और कपास जैसी फसलों की बुवाई से किसान तगड़ी कमाई कर सकते हैं।
मई माह में जायद, खरीफ फसलों की खेती की शुरुआत होती है। इसके साथ ही कई ऐसी सब्जियां उगाई जा जाती है, जिनसे किसानों की जबरदस्त कमाई हो सकती है। किसान भाई इन फसलों की खेती से अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं।
ग्रीष्मकालीन मक्का की बुवाई, चारे और मोटे अनाज की बुवाई, कम समय में तैयार होने वाली मूंग और उड़द की बुवाई, हरा चारा और मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने के लिए लोबिया की बुवाई, अच्छी पैदावार के लिए हल्की मिट्टी में मूंगफली की बुवाई, ढेंचा हरी खाद के लिए, मिट्टी में नाइट्रोजन बढ़ाने में मदद करता है।
कपास एक काफी मुनाफे की फसल है। कपास की मई माह में सिंचित इलाकों में बुवाई प्रारंभ की जा सकती है। किसान मई महीने में धान की नर्सरी तैयार करके जून-जुलाई में रोपते हैं। अरहर की खेती की शुरुआत भी मई महीने से की जा सकती है।
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भिंडी गर्मी की मुख्य सब्जी, जिसकी हाई डिमांड रहती है। बैंगन सब्जी की मांग भी साल भर बनी रहती है। टमाटर उन फसलों में शामिल हैं, जिसकी मांग हर सीजन में बनी रहती है। अगेती किस्में मई में बोई जा सकती हैं। लौकी, करेला, मिर्च, फूलगोभी की अगेती किस्में की खेती कर सकते हैं।
सब्जियों की तरह कई जड़ वाली फसलें ऐसी भी हैं, जिनकी बाजार में मांग और कीमत दोनों अच्छी होने की वजह से काफी मुनाफेदार होती है। इन फसालों में अरबी, अदरक, हल्दी आदि शामिल हैं।
प्रश्न: मई माह में फसलों की बुवाई से पहले किन का बातों का ध्यान रखें ?
उत्तर: खेती के लिए उन्नत किस्मों का चुनाव करें. अगेती और हाइब्रिड किस्में अधिक उपज और जल्दी तैयार होने के लिए उपयुक्त हैं.
प्रश्न: किसान अपनी फसल कहां बेच सकते हैं?
उत्तर: स्थानीय मंडी, e-NAM पोर्टल, किसान उत्पादक संगठन (FPO) या कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग विकल्पों से बेच सकते हैं।
प्रश्न: फसल संबंधी सलाह कहां से लें?
उत्तर: नजदीकी कृषि विज्ञान केंद्र (KVK) या कृषि विशेषज्ञों से निःशुल्क सलाह प्राप्त करें।
एक ही खेत में एक क्यारी में एक साथ दो या दो से अधिक फसलों का उत्पादन करना मल्टीक्रॉप फार्मिंग कहलाता है। आज के समय में किसान ग्रीष्मकालीन बागवानी फसलों की मल्टीक्रॉप फार्मिंग कर काफी शानदार मुनाफा कमा सकते हैं।
उदाहरण के तोर पर किसान गेंहू के साथ सरसों और मूंग के साथ बाजरा की मल्टीक्रॉप फार्मिंग कर काफी कम समय और कम लागत में अधिक मुनाफा कमा सकते हैं।
बहुफसलीय खेती या मल्टीक्रॉप फार्मिंग से मिट्टी की उर्वरक शक्ति बढ़ती है। बहुफसलीय खेती के जरिए फसलीय उपज में इजाफा होता है। इसकी वजह से फसलों का निर्यात बढ़ता है, जो कि विदेशी मुद्रा को देश में लाता है।
यह खरपतवार से निपटने में भी काफी मददगार रहता है। यह मिट्टी की उर्वरता को बनाए रखने और सुधारने में सहायता करता है। एकल फसल की तुलना में बहुफसलीय खेती के अंदर कीटों और बीमारियों का संकट कम होता है।
बहुफसलीय खेती के माध्यम से एक ही खेत में एक साथ कई प्रकार की फसलों का उत्पादन किया जा सकता है। बहुफसलीय खेती दुनियाभर के परिवारों को संतुलित आहार देने में सहायता करती है।
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बहुफसलीय खेती कीट और यहां तक कि बीमारियां भी इसे बहुत आसानी से प्रभावित कर सकती हैं। आज के समय में संचालित तकनीकी नवाचारों का उपयोग कठिन है।
अगर एक फसल में कीट और रोग हैं तो वह एक फसल से दूसरी फसल में आसानी से फैल सकते हैं। खरपतवारों को नियंत्रित करना हमेशा कठिन होता है
बहुफसलीय खेती के निम्नलिखित प्रकार होते हैं :-
प्रश्न:- मिश्रित फसल की परिभाषा क्या है ?
उत्तर:- यह वह प्रकार है जिसमें एक ही समय में दो या उससे अधिक फसलें बोई जाती हैं और उन्हें एक ही मौसम में और अंत में एक ही मौसम के खेत में मिलाया जाता है। मिश्रित फसल में, फसल के क्षेत्र को हमेशा परिपक्वता अवधि के आधार पर एक के बाद एक काटा जाता है।
प्रश्न:- बहुफसलीय खेती से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:- एक ही खेत में एक क्यारी में एक साथ दो या दो से अधिक फसलों का उत्पादन करना मल्टीक्रॉप फार्मिंग कहलाता है।
बायोगैस प्लांट आज के समय में बढ़ते प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग के चलते बेहद जरूरी है। एक बायोगैस प्लांट की मदद से किसान बिजली, गैस और जैविक खाद आसानी से तैयार कर सकते हैं।
विश्वभर में जैविक खाद की मांग की तुलना में इसका उत्पादन वर्तमान में काफी कम हैं। विश्वभर में बढ़ते रोगों की वजह लोग फिर से जैविक उत्पाद की तरफ रुख करने लगे हैं।
आजकल प्राकृतिक खाद्य पदार्थों का चलन बढने लगा है। देश के कई जगहों पर जैविक गैस तैयार होने लगी हैं, जिसको खरीदने के लिए कई कंपनियों में होड मचने लगी है।
प्राकृतिक खेती से कम बीमारियां होने की संभावना रहती है। अब ऐसी स्थिति में लोग अब जैविक खेती को प्रोत्साहन दे रहे हैं, जिस वजह से गोबर खाद की मांग तेजी से बढने लगी है।
बायो गैस प्लांट में क्षमता के अनुसार दो अनलोडिंग टैंक होते हैं। इनमें पहले गोबर पहुंचता है। इसके बाद यह गोबर सेडिमेंटेंशन टैंक में पहुंचता है, जहां गोबर से मिट्टी अलग होती है।
इसके बाद फीडिंग ट्रैक में पहुंचे गोबर से अन्य गंदगियां दूर हो जाती है। यहां से गोबर स्थापित किए गए दो डाइजेस्टर में पहुंचता है। जहां 30 दिनों की प्रकिया के पश्चात इसमें से गोबर गैस निकलती है। इसमें मीथेन गैस से कम्प्रेस्ड बायो गैस तैयार की जाती है।
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बायोगैस से वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों का शून्य उत्सर्जन होता है। इस वजह से ऊर्जा के रूप में अपशिष्ट से गैस का इस्तेमाल करना ग्लोबल वार्मिंग से निपटने का एक बेहतरीन तरीका है।
बायोगैस का एक और लाभ यह है, कि बायोगैस उत्पादन से पानी की गुणवत्ता में सुधार हो सकता है। इसके अलावा जलजनित रोगों की घटनाओं को कम करने में भी काफी प्रभावी है। परिणामस्वरूप, पर्यावरण और स्वच्छता में बेहतरी होती है।
बायोगैस उत्पादन प्रक्रिया का उप-उत्पाद समृद्ध कार्बनिक डाइजेस्टेट है, जो रासायनिक उर्वरकों के लिए एक बेहतरीन विकल्प है। डाइजेस्टर से निकलने वाला उर्वरक पौधों के विकास और बीमारियों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है।
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बायोगैस बनाने के लिए उपयोग की जाने वाली तकनीक काफी सस्ती होती है। इसको स्थापित करना काफी सुगम और सहज रहता है। इसको छोटे पैमाने पर इस्तेमाल करने पर इसमें काफी कम निवेश की जरूरत पड़ती है।
खुली आग पर खाना पकाने की जगह गैस स्टोव पर खाना पकाने से परिवार को रसोई में धुएं के संपर्क में आने से बचाया जा सकता है। इसकी मदद से घातक श्वसन रोगों की रोकथाम करने में मदद मिलती है।
प्रश्न:- बायोगैस प्लांट क्यों जरूरी है ?
उत्तर:- बायोगैस प्लांट स्वच्छ पर्यावरण और ग्लोबल वार्मिंग को कम करने के लिए जरूरी है।
प्रश्न:- बायोगैस प्लांट की मदद से क्या तैयार किया जाता है ?
उत्तर:- बायोगैस प्लांट की मदद से आपको रसोई गैस, बिजली और खाद मिलती है।
प्रश्न:- बायोगैस प्लांट लगाने के लिए न्यूनतम कितना खर्च आता है ?
उत्तर:- बायोगैस प्लांट की स्थापना में कम से कम 1 लाख का खर्च आता है।
किसानों का फोकस अब ऐसी फसलों की खेती करने पर अधिक है जहां कम लागत में छप्परफाड़कमाई हो। इसी कड़ी में एक खास चीज की खेती किसान कर रहे हैं, जिसे सभी 'रतालू' के नाम से जानते हैं। गर्मियों के सीजन में इसकी डिमांड काफी रहती है। एक बार इसे लगाने के बाद आपको बंपर उत्पादन भी मिलता है।
रतालू शंकरकंद की भांति दिखने वाली सब्जी होती है। यह जमीन के नीचे उगती है। इसको पकाकर, उबाल कर, भून कर, तल कर या सेककर खाया जा सकता है। रतालू के माध्यम से सब्जी, चिप्स, वेफर इत्यादि तैयार किया जाता है।
रतालू की खेती प्रमुख तौर पर अफ्रीका में होती है। लेकिन, वर्तमान में रतालू की खेती भारत के विभिन्न राज्यों में की जा रही है। रतालू का सर्वाधिक उत्पादन मेवाड़ के इलाके में किया जाता है।
रतालू की खेती के लिए दोमट मृदा सबसे अच्छी होती है। यदि आप रतालू की खेती करना चाहते हैं, तो आपको उपजाऊ एवं उचित जल निकास वाली जमीन का ही चयन करना चाहिए। रतालू की खेती के लिए क्षारीय जमीन अच्छी नहीं होती है।
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रतालू के लिए खेत तैयार करते समय सबसे पहले खेत की गहरी जुताई करें। रतालू के लिए आप ट्रैक्टर, रोटावेटर और कल्टीवेटर की मदद ले सकते हैं। क्यारियों में 50 सेंटीमीटर के फासले पर डोलियां बना लें। अब इन डोलियों पर 30 सेंटीमीटर की दूरी पर रतालू की बुवाई करें।
जानकारी के अनुसार रतालू की खेती का उचित समय अप्रैल से जून तक का माना जाता है। लेकिन कई जगहों पर किसान इसकी बुवाई मार्च माह में ही कर देते हैं और नवंबर में रतालू निकालने का काम शुरू हो जाता है।
रतालू की बुवाई के बाद इसकी सिंचाई पर जरूर ध्यान देते रहें। इसकी फसल को बुवाई से लेकर तैयार होने तक करीब 15 से लेकर 25 सिंचाइयों की जरूरत होती है।
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रतालू की फसल 8 से 9 माह में तैयार हो जाती है। इसके बाद रतालू के पौधे खोदकर निकाला जाता है।
कृषि विशेषज्ञों के अनुसार, रतालू की एक बीघा खेत में बुवाई करने पर लगभग 15,000 रुपये की लागत आती है। सफेद रतालू का होलसेल भाव 15 से 20 रुपये किलोग्राम और लाल रतालू का होलसेल भाव 30-40 रुपये किलोग्राम होता है।
रतालू का बाजार भाव 60 से 70 रुपये प्रति-किलो तक मिल जाता है। रतालू की एक हैक्टेयर में करीब एक टन तक पैदावार होती है। अब ऐसे में किसान रतालू की खेती से लाखों की आमदनी कर सकते हैं।
रतालू की खेती करना किसानों के लिए काफी मुनाफे का विकल्प है। रतालू एक बहुउपयोगी फसल है। इस वजह से रतालू की बाजार में मांग और कीमत दोनों काफी अच्छी हैं।