भारतीय कृषि को जैविक खेती और जीरो बजट खेती एक नवीन बुलंदी की तरफ लेकर जा सकती है। यह ना सिर्फ कृषि रसायनों की निर्भरता को कम करती है, बल्कि पर्यावरणीय स्थिरता और मानव स्वास्थ्य को भी सुरक्षित करती है।
सरकार और समाज को एकजुट होकर कोशिशें करनी होंगी, जिससे जैविक खेती को प्राथमिक कृषि प्रणाली की श्रेणी में लाया जा सकता है। सिर्फ इतना ही नहीं यह टिकाऊ खेती की दिशा में यह एक मील का पत्थर साबित होगा।
भारत के अंदर लगातार बढ़ती आबादी के लिए खाद्यान्न उपलब्ध कराने की समस्या को मद्देनजर रखते हुए, कृषि रसायनों के संतुलित इस्तेमाल की शुरुआत किया गया था।
यह माना गया कि कृषि रसायनों का उपयोग बेहद जरूरत होने पर भी सीमित मात्रा में ही किया जाए। परंतु, समय के साथ इन रसायनों का अंधाधुंध इस्तेमाल होने लगा है, जिसकी वजह से खेती आए दिन अधिक विषैली होने लग गई है।
नतीजतन, कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों का आक्रमण भी काफी बढ़ा है। मृदा, जल और फसलों में विषाक्तता की वजह से समाज के प्रत्येक वर्ग में कृषि रसायनों के प्रति काफी आक्रोश पनप रहा है।
इसी बीच, जैविक खेती और जीरो बजट खेती (प्राकृतिक खेती) की तरफ कृषकों का रुझान बढ़ने लगा है।
कृषि रसायनों के निरंतर बढ़ते इस्तेमाल से मृदा की उर्वरता में काफी कमी आ रही है। किसान भाई ज्यादा फायदा कमाने की प्रतिस्पर्धा में अंधाधुंध रसायनों का इस्तेमाल कर रहे हैं, जिसकी वजह से फसलों की गुणवत्ता खराब होने के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन की समस्या भी काफी बढ़ रही है।
अब ऐसे में जैविक खेती एक ऐसा विकल्प है, जो टिकाऊ कृषि प्रणाली की तरफ हमको अग्रसर करता है।
जैविक खेती में प्राकृतिक रूप से उपलब्ध संसाधनों का इस्तेमाल किया जाता है, इससे मिट्टी की गुणवत्ता, फसलों की उत्पादकता और पर्यावरणीय संतुलन को स्थिर बनाए रखने में मदद मिलती है।
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जीरो बजट खेती, जिसको प्राकृतिक खेती भी कहा जाता हैं। यह एक रसायन मुक्त खेती की विधि है। इसमें प्रमुख रूप से पशुपालन आधारित उत्पाद, जैसे गोबर और गौमूत्र का इस्तेमाल किया जाता है। इनसे जीवामृत' और घनामृत' जैसे उत्पाद तैयार किए जाते हैं, जो मृदा की उर्वरता को बढ़ाने का कार्य करते हैं।
जीवामृत: गोबर, गौमूत्र, गुड़, दाल का आटा और मिट्टी का मिश्रण, जिसे फसलों पर छिड़काव के लिए उपयोग किया जाता है।
घनामृत: इसे पौधों के पोषण और कीट नियंत्रण के लिए इस्तेमाल किया जाता है।
कृषकों को जीरो बजट खेती में उर्वरक और कीटनाशक खरीदने की जरूरत नहीं पड़ती है। यह स्थानीय संसाधनों पर पूर्णतय निर्भर रहती है।
गोबर और गौमूत्र जैसे प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल मृदा की जैविक गुणवत्ता को बरकरार बनाए रखता है। इस विधि में सिंचाई की काफी कम जरूरत पड़ती है, जिससे जल की खपत 10 से 15% प्रतिशत तक घट जाती है।
रसायन मुक्त फसलों की वजह से कृषकों को ज्यादा भाव हांसिल होता है और उपभोक्ताओं को स्वस्थ खाद्य सामग्री मिलती है।
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जैविक खेती की लोकप्रियता दुनियाभर में काफी तीव्रता से बढ़ रही है। बतादें, कि 2019 तक करीब 72.3 मिलियन हेक्टेयर भूमि पर जैविक खेती की जा रही थी, जिसमें ऑस्ट्रेलिया अग्रणी स्थान पर रहा।
यह कृषि प्रणाली खेती में रसायनों के कम से कम उपयोग और पर्यावरणीय संरक्षण पर आधारित है।
अंतर्राष्ट्रीय संगठन, IFOAM (International Federation of Organic Agriculture Movements), जैविक खेती के मानकों को नियंत्रित करने में अहम भूमिका निभाता है।
भारत के अंदर सिक्किम को पहला जैविक राज्य घोषित किया जा चुका है। आंध्र प्रदेश ने "शून्य बजट प्राकृतिक खेती" परियोजना की शुरुआत कर ड़ाली है,
जिसका मकसद 2024 तक रसायनों के इस्तेमाल को चरणबद्ध ढ़ंग से समाप्त करने का लक्ष्य रखा गया था। हालांकि, जैविक खेती को सफलता पूर्वक करने के लिए कुछ बातें बेहद जरूरी हैं।
जैविक खाद को सरकारी संस्थानों से प्रमाणित कर सस्ती दर पर उपलब्ध कराया जाए। किसानों को प्रारंभिक वर्षों में हुए घाटे की भरपाई के लिए बीमा योजनाओं का प्रावधान किया जाए।
रासायनिक कृषि पर दिए जाने वाले अनुदान को जैविक खेती की तरफ स्थानांतरित किया जाए।
कृषकों को ज्यादा से ज्यादा पशुपालन करने के लिए प्रोत्साहित किया जाए, जिससे गोबर और गौमूत्र बड़ी सहजता से उपलब्ध हो सके। वर्मी कंपोस्ट तैयार करने की विधियों पर प्रशिक्षण भी प्रदान किया जाना चाहिए।
दो फसलों के मध्य हरी खाद उगाने को बढ़ावा दिया जाए। जैविक कीटनाशकों के इस्तेमाल पर काफी बल दिया जाए। किसानों को जागरूक करने के लिए सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों द्वारा प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए जाएं।