भारत एक कृषि प्रधान देश होने की वजह से यहाँ विभिन्न प्रकार की तकनीकों और पद्धतियों के इस्तेमाल से खेती की जाती है।
किसानों की हमेशा यही कोशिश रहती है, कि वह कैसे ज्यादा से ज्यादा फसल उत्पादन कर सकें। फसलीय उत्पादन के लिए सबसे जरूरी चीज भूमि होती है।
ऐसे में किसान ऐसी जगहों को भी फसल उत्पादन करने के लिए तैयार करते हैं, जो कि पहाड़ी इलाकों में ऊँचे नीचे टीलों पर जमीन होती है।
ऐसी स्थिति में आपको सीढ़ीनुमा खेती यानी सीढ़ीदार खेत कहते हैं। सीढ़ीनुमा खेती के बहुत सारे लाभ और हानि भी देखने को मिलती है।
सीढ़ीदार खेत, पर्वतीय या पहाड़ी राज्यों की ढलवां जमीन पर कृषि के लिए तैयार किए गए इलाकों को कहा जाता है।
ऐसे राज्यों में मैदानी क्षेत्र ना होने पर पहाड़ों की ढलानों पर सीढ़ियों के आकार के छोटे-छोटे खेत तैयार किए जाते हैं।
भारत के अंदर अगर हम बात करें तो असम, हिमाचल प्रदेश, सिक्किम, उत्तराखंड और मिजोरम जैसे राज्यों में प्रमुख रूप से सीढ़ीनुमा खेती की जाती है।
टेरेस फार्मिंग या सीढ़ीनुमा खेती फसल उत्पादन की एक ऐसी पद्धति है, जो एक पहाड़ी या पहाड़ की ढलानों को चोटीदार प्लेटफार्मों या छतों का निर्माण करके खेत में परिवर्तित किया जाता है।
पहाड़ों की ऊपरी सतह को हटाकर मेढ़ तैयार करके एकसार किया जाता है, जिससे कि जमीन पर आसानी से खेती की जा सके।
टैरेस फार्मिंग का मकसद पानी के बहाव को कम करके मिट्टी के कटाव को रोकना है। सामान्यतः अधिक वर्षा होने की स्थिति में पानी पोषक तत्वों से युक्त मृदा को बहा देता है।
सीढ़ीनुमा खेती मृदा अपरदन और बारिश के पानी को बहने से रोकने में सहायक होती है। इस वजह से सीढ़ीनुमा खेती की वजह से किसानों को बेहतर उपज और मुनाफा दिलाने का कार्य करती है।
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बेंच्ड टैरेस पहाड़ों में सीढ़ीनुमा खेती का सबसे बुनियादी ढंग है। इसके अंदर बारिश के पानी को बेहतर तरीके से धारण करने की क्षमता से उत्पादन की अच्छी संभावना होती है।
सीढ़ीनुमा खेती अधिक वर्षा होने की स्थिति में पौधों को पानी के भारी प्रवाह में बहने से रोकने में मदद करती है।
इसलिए सीढ़ीनुमा खेती केवल पर्वतीय इलाकों में ही नहीं बल्कि अत्यधिक बारिश वाले इलाकों में भी काफी बड़े पैमाने पर की जाती है। सीढ़ीनुमा खेती के निम्नलिखित फायदे हैं।
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सीढ़ीनुमा खेती में बिना कृषि यंत्रों के ढलानों का निर्माण करना बेहद कठिन कार्य है। साथ ही, तीव्र ढ़लाननुमा भूमि पर आसान काम के लिए भारी मशीनरी को ले जाना बहुत कठिन होता है।
ढ़लानों का निर्माण करते वक्त भी दुर्घटना होने की संभावना रहती है। अगर ढलान पर्याप्त तरीके से एकसमान नहीं है, तो ढलानों में पानी ठीक से नहीं रह सकता है। इसकी वजह से किसान को पानी की कमी की किल्लत से झूझना पडता है।