रबी सीजन शुरू हो होने के साथ ही किसान भाई फसलों की बुवाई की तैयारियों में लग गए हैं।
अगर हम फसलों की बात करें, तो गेहूं भारत के अंदर सबसे ज्यादा बोई जाने वाली फसलों में से एक है।
गेहूं की फसल के अंदर भरपूर मात्रा में कार्बोहाइड्रेट और प्रोटीन उपलब्ध होते हैं। भारत की बड़ी जनसँख्या का प्रमुख खाद्य अनाज गेंहू है।
बड़े पैमाने पर भारतीय किसान अपनी खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने और अच्छे मुनाफे की उम्मीद से गेहूं की खेती करते हैं।
लेकिन, गेहूं की फसल में रोग लगने से किसान को काफी नुकसान का सामना करना पड़ता है। ऐसे में किसान इन रोगों से फसलों को बचाने के लिए नए-नए तरीके अपनाते हैं।
आइये ट्रैक्टरचॉइस के इस लेख में जानेंगे इन रोग/कीटों और वैज्ञानिकों द्वारा बताए गए प्रबंधन के बारे में।
यह रोग गेहूं की निचली पत्तियों पर अधिकतर लगते हैं, जो नारंगी और भूरे रंग के होते हैं। यह लक्षण पत्तियों की ऊपर और नीचे की सतह पर दिखाई देते हैं।
जैसे-जैसे फसलों की अवस्था बढ़ती है, वैसे-वैसे इन रोगों का प्रभाव भी बढ़ने लगता है।
यह रोग विशेष रूप से देश के उत्तर पूर्वी क्षेत्रों में जैसे की पश्चिमी बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब आदि में पाया जाता है। कुछ हद तक इसका प्रकोप मध्य भारत क्षेत्रों में भी देखा जाता है।
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गेहूं की फसलों को भूरा रतुआ रोग से बचाने के लिए एक किस्म को ज्यादा क्षेत्र में ना लगाएं।
दरअसल, किसी एक किस्म को बहुत ज्यादा क्षेत्र में उगाने से उसका रोग के प्रति संवेदनशील होने का खतरा बढ़ सकता है। इससे रोग का फैलाव काफी तेज हो जाता है।
इस रोग के संक्रमण को कम करने के लिए प्रोपिकोनाजोल 25 ई.सी. (टिल्ट) या टेबुकोनाजोल 25 ई.सी. का 0.1 प्रतिशत घोल बनाकर छिड़काव अवश्य करें।
रोग के प्रकोप तथा फैलाव को देखते हुए दूसरा छिड़काव 10-15 दिन के अंदर ही कर दें।
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काला रतुआ रोग भूरे रंग के होते हैं, जो गेहूं के तने पर लगते हैं। इस रोग का प्रभाव तनों से होते हुए पत्तियों तक पहुंचता है।
इस वजह से तने कमजोर हो जाते हैं और संक्रमण गंभीर होने पर गेहूं के दाने बिलकुल छोटे और झिल्लीदार बनते हैं, जिससे पैदावार कम होती जाती है।
इस रोग से दक्षिणी पहाड़ी क्षेत्र की फसलें ज्यादा प्रभावित होती हैं और कुछ हद तक इसका प्रकोप मध्य भारत के हिस्सों में देखा जाता है।
गेहूं की फसल को भूरा रतुआ रोग से बचाने के लिए गेहूं की एक किस्म को अधिक क्षेत्र में ना लगाएं। किसान अपने खेतों की समय-समय पर निगरानी करते रहे और वृक्षों के आस-पास उगाई गई फसल पर ज्यादा ध्यान दें।
इस रोग के प्रकोप को कम करने के लिए प्रोपिकोनाजोल 25 ई.सी. (टिल्ट) या टेबुकोनाजोल 25 ई.सी. का 0.1 प्रतिशत घोल बनाकर छिड़काव जरूर करें।
रोग के प्रकोप तथा फैलाव को देखते हुए दूसरा छिड़काव 10-15 दिन के अंदर ही कर दें।
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गेहूं की फसल में पीला रतुआ रोग में पत्तों पर पीले रंग की धारियां दिखाई देती हैं। इन पत्तियों को छूने पर पाउडर जैसा पीला पदार्थ हाथों पर चिपकने लगता है।
जोकि इस रोग का मुख्य लक्षण है। यह रोग गेहूं की फसल को काफी तेजी से प्रभावित करता है और फसलों को ज्यादा नुकसान पहुंचाता है।
इस रोग का प्रकोप मुख्य रूप से उत्तरी पहाड़ी क्षेत्रों जैसे की हिमाचल प्रदेश व जम्मू एंव कश्मीर और उत्तर पश्चिमी मैदानी क्षेत्रो में जैसे की पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश आदि में पाया जाता है।
गेहूं की ऐसी किस्मों का चयन करें जो पीला रतुआ रोग के प्रति प्रतिरोधी हों और उन्हें अधिक क्षेत्र में लगाने से बचें। साथ ही, खेतों की समय-समय पर निगरानी भी करते रहें।
विशेष रूप से उन क्षेत्रों में ध्यान दें जहां वृक्षों के आस-पास गेहूं की फसल उगाई गई हो, क्योंकि यहां इस रोग का ज्यादा असर हो सकता है।
साथ ही, पीला रतुआ रोग के प्रकोप को नियंत्रित करने के लिए, प्रोपिकोनाजोल 25 ई.सी. (टिल्ट) या टेबुकोनाजोल 25 ई.सी. का 0.1 प्रतिशत घोल बनाकर छिड़काव अवश्य करें।
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गेंहू की फसल में दीमक सबसे ज्यादा लगता है। यह फसल में कॉलोनी बनाकर रहते हैं। दिखने में यह पंखहीन छोटे और पीले/सफेद रंग के होते हैं।
दीमक के प्रकोप की संभावना अधिकतर बलुई दोमट मिट्टी, सूखे की स्थिति में रहती हैं। यह कीट जम रहे बीजों को और पौधों की जड़ों को खाकर बड़ी हानि पहुंचाते हैं। इस कीट से प्रभावित पौधे आकार में कुतरे हुए दिखाई देते हैं।
इस रोग से फसल को बचाने के लिए किसानों को खेत में गोबर डाल देना है। साथ ही, बची हुई फसलों के अवशेषों को भी समाप्त कर देना है।
इसके बाद खेत में प्रति हेक्टेयर 10 क्विंटल नीम की खेली डालकर अच्छे से बुवाई कर देनी है।
वहीं, अगर पहले से लगी हुई फसल में यह रोग लग जाता है, तो इसके लिए सिंचाई के दौरान क्लोरपाइरीफास 20% प्रतिशत ईसी 2.5 ली प्रति हेक्टेयर की दर से करें।
यह पंखहीन या पंखयुक्त हरे रंग के चुभाने और चूसने वाले मुखांग छोटे कीट होते हैं।
ये कीट पत्तियों और बालियों से रस चूसते हैं और मधुश्राव भी करते हैं। इसके चलते काले कवक का प्रकोप होता है और फसलों को काफी नुकसान पहुंचाता है।
वैज्ञानिकों के अनुसार, इन रोगों से फसलों को बचाने के लिए खेत की गहरी जुताई करवानी चाहिए।
साथ ही कीटों की निगरानी के लिए जगह-जगह गंध पास (फेरोमेन ट्रैप) प्रति एकड़ के हिसाब से लगाना चाहिए।
जब कीटों की संख्या फसलों को अधिक प्रभावित करने लगे तब क्यूनालफास 25% ई.सी.नामक दवा की 400ml मात्रा 500-1000 लीटर पानी प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करवा दें।
साथ ही, फसलों की सुरक्षा के लिए खेतों के चारों तरफ मक्का/ज्वार/बाजरा जरूर लगाएं।