कोदो मिलेट्स के अंतर्गत आने वाली बेहद शानदार फसल है। यह भारत के प्राचीनतम अन्न में से एक है, जिसको ऋषि अन्न भी कहा जाता था।
अगर हम कोदो के वानस्पतिक नाम की बात करें तो इसको पास्पलम स्कोर्बीकुलातम के नाम से जाने जाते हैं।
कोदो की खेती अनाज फसल के लिए की जाती है। इसको कम वर्षा वाले इलाकों में विशेष रूप से उगाया जाता है। भारत के विभिन्न हिस्सों में कोदो की खेती की जाती है।
इसकी फसल को शुगर फ्री चावल के रूप में जाना जाता है। कोदो की खेती काफी कम परिश्रम वाली खेती होती है, जिसकी बुवाई बारिश के मौसम के पश्चात की जाती है।
कोदो का उपयोग उबालकर चावल की भाँति खाने में किया जाता है। प्रयोग करने से पहले इसके दाने के ऊपर मौजूद छिलके को कूटकर हटाना जरूरी रहता है।
कोदो के दानों से चावल निकलता है, जिसको खाने के लिए उपयोग में लिया जाता है और स्थानीय बोली में ‘भगर के चावल‘ के नाम पर इसे उपवास में भी खाया जाता है।
इसके दाने में 8.3 प्रतिशत प्रोटीन, 1.4 प्रतिशत वसा तथा 65.9 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट विघमान रहता है।
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कोदो-कुटकी मधुमेह नियन्त्रण, यकृत (गुर्दों) और मूत्राशय के लिए फायदेमंद होता है। यह रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक के प्रभावों से भी मुक्त है।
कोदो-कुटकी हाई ब्लड प्रेशर के रोगियों के लिए किसी रामबाण से कम नहीं है। इसमें चावल की तुलना में कैल्शियम भी 12 गुना ज्यादा होता है। शरीर में आयरन की कमी को भी यह पूर्ण करता है।
कोदो के इस्तेमाल से विभिन्न पौष्टिक तत्वों की आपूर्ति होती है। आपने सामान्यतः बुजुर्गों को यह कहते हुए सुना होगा “नहाए के बाल और खाए के गाल अलग नजर आ जाते हैं।
कहने को ये बहुत साधारण सी बात है, लेकिन इसके मायने बहुत गहरे हैं”। जैसा आपका खान-पान होता है चेहरे पर चमक भी वैसी ही होती है।
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विशेषज्ञ बताते हैं, “मिलेट स्वास्थ्य और समृद्धि के लिए वरदान हैं, जिनके माध्यम से आधुनिक जीवन शैली की बीमारियों (मधुमेह, रक्तचाप, थायराइड, मोटापा, गठिया, एनीमिया और 14 प्रकार के कैंसर) को ठीक किये जा सकते हैं”।
लघु धान्य फसलों की खेती खरीफ के मौसम में की जाती है। सांचा, काकुन एवं रागी को मक्का के साथ मिश्रित फसल के रूप में लगाते हैं।
रागी को कोदों के साथ भी मिश्रित फसल के रूप में लेते हैं। ये फसलें गरीब एवं आदिवासी क्षेत्रों में उस समय लगाई जाने वाली खाद्यान्न फसलें हैं, जिस समय पर उनके पास किसी प्रकार अनाज खाने को उपलब्ध नहीं हो पाता है।
ये फसलें अगस्त के अंतिम सप्ताह या सितंबर के प्रारंभ में पककर तैयार हो जाती है।
अन्य खाद्यान्न का मूल्य बढ जाने से गरीब किसान उन्हें नहीं खरीद पाते हैं। अतः उस समय 60-80 दिनों में पकने वाली कोदो-कुटकी, सावां, एवं कंगनी जैसी फसलें महत्वपूर्ण खाद्यान्नों के रूप में प्राप्त होती हैं।
जबलपुर संभाग में ये फसलें अधिकतर डिण्डौरी, मण्डला, सिवनी एवं जबलपुर जिलों में ली जाती है।
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कुटकी का वैज्ञानिक नाम पनिकम अन्तीदोटेल है। कुटकी वर्षा ऋतु की फसलो में सर्वप्रथम तैयार होने वाली धान्य प्रजाति की फसल है।
इसे पिछड़े और आदिवासी क्षेत्रों में ज्यादा पसंद किया जाता है। छत्तीसगढ़ के आदिवासी क्षेत्रो में इसे चिकमा नाम से भी जाना जाता है। इसको गरीबों की फसल की संज्ञा भी दी गई है।
कुटकी काफी शीघ्रता से पकने वाली सूखा और जल भराव जैसी विषम परिस्थितियों को सहन करने वाली फसल है। यह एक पौष्टिक लघु धान्य हैं।
इसके 100 ग्राम दाने में 8.7 ग्राम प्रोटीन, 75.7 ग्राम कार्बोहाइड्रेट, 5.3 ग्राम वसा, 8.6 ग्राम रेशा के अलावा खनिज तत्व, कैल्शियम एंव फास्फोरस भरपूर मात्रा में पाया जाता है।