तिल की खेती में बहुत से रोग ऐसे रहते है , यदि ध्यान न दिया जाये तो कुछ ही दिनों में सम्पूर्ण फसल को नष्ट कर देते है। इससे किसानो को काफी नुक्सान हो सकता है। तिल की फसल में ज्यादातर रोग तराई और नमी के कारण होते है ,क्यूंकी तिल की फसल को ज्यादा नमी की आवश्कता नहीं रहती है। तिल की फसल ज्यादा पानी और नमी की वजह से रोगग्रस्त हो सकती है।
तिल की खेती में लगने वाले रोग तना एवं जड़ सडन, अल्टेरनेरिया पत्तीधब्बा ,फाइटोफथोरा अंगमारी , सरकोस्पोरा पत्तीधब्बा ,फायलोडी रोग इसे पाउडरी मिल्ड्यू के नाम से भी जाना जाता है। इन रोगो से किसानो को आर्थिक घाटे भी हो सकते है ,इसीलिए किसानो द्वारा समय समय पर फसल की जाँच कर लेनी चाहिए।
इस रोग की वजह से पौधा की जड़े सड़ने लगती है ,और तने का रंग भूरा हो जाता है। इस रोग की वजह से पौधे का संक्रमण वाला भाग काला पड जाता है। मैक्रोफोमिना फैसियोलिना कवक के द्वारा ये रोग होता है।
ये भी पढ़ें: जाने कब और कैसे की जाती है ,तिल की खेती
किसानो द्वारा बार बार एक ही फसल की खेती नहीं करनी चाहिए , किसान को फसल चक्र अपनाना चाहिए। यदि फसल में तना एवं जड़ गलन रोग लग गया है तो ,किसानो द्वारा 1 ग्राम कार्बेंडाजिम को 3-4 लीटर पानी में मिलाकर फसल में छिड़काव कर सकते है। यदि रोग का प्रकोप ज्यादा है तो इसका इस्तेमाल एक हफ्ते बाद फिर से करे।
यह रोग ज्यादातर नमी के कारण होता है। इस रोग की वजह से पत्तियों में भूरे रंग के धब्बे पड़ने लगते है। पत्तियों का रंग भूरा और पीला पड जाने से कुछ दिनों में पत्तियां मुरझा जाती है ,और झड़ने लगती है। यह रोग ज्यादातर अल्टानेरिया सिटेजी नामक कवक से भी होता है।
इस रोग की रोकथाम के लिए किसानो को कम से कम 2 साल तक फसल चक्र अपनाना चाहिए। किसानो को तिल की बुवाई से पहले बीज उपचार कर लेना चाहिए , उसमे किसी प्रकार का रोग तो नहीं है। यदि इसके बाद भी फसल में कही रोग दिखता है ,तो इसकी रोकथाम के लिए किसानो को 2 ग्राम मैंकोजेब प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव कर देना चाहिए।
ये भी पढ़ें: कपास की फसल के प्रमुख और रोगों के नियंत्रण के उपाय
इस रोग का प्रकोप सभी आयु के पौधो पर देखना को मिलता है। यह रोग फाइटोफ्थोरा पैरसीटीका कवक के द्वारा होता है। इस रोग की वजह से पौधे में भूरे रंग के शुष्क धब्बे दिखाई देने को मिलते है। बाद में यह धब्बे काले रंग के हो जाते हैं , और ज्यादा रोग फैलने की वजह से पौधा मर भी जाता है।
एक ही खेत में बार बार तिल की खेती न करें। रोग की रोकथाम करने के लिए किसानो द्वारा 10 दिन के अंतराल पर रिडोमिल नामक कीटनाशक का छिड़काव करना चाहिए। इसके बाद किसानो द्वारा मैंकोजेब का भी उपयोग किया जा सकता है। प्रति हेक्टेयर में किसानो द्वारा 2.5 ग्राम मेंकोजेब को पानी में मिलाकर छिड़काव करें ,रोग दिखने पर इसका छिड़काव 15 दिन बाद फिर से किया जा सकता है।
इस रोग की वजह से पौधे का विकास रुक जाता है। इसमें पौधे के सभी भाग सिकुड़कर पत्तियों के समान हो जाते है। इस रोग में पौधों की पत्तियां गुच्छे के समान हो जाती है और छोटी दिखाई देखने लगती है। यह रोग फसल में माइकोप्लास्मा के द्वारा होता है। यह रोग सबसे ज्यादा फूल को प्रभावित करता है।
इस रोग से फसल को बचाने के लिए किसानो द्वारा रोगग्रस्त पौधो को उखाड़कर फेंक देना चाहिए। या फिर समय समय पर किसानो द्वारा फसल की नराई और गुड़ाई करती रहनी चाहिए। फसल को रोग से बचाने के लिए किसानो द्वारा डाइमेथोएटे कीटनाशक का छिड़काव किया जा सकता है।
ये भी पढ़ें: इन राज्यों में बढ़ा जीरे का उत्पादन क्या जीरे की कीमत को प्रभावित करेगा?
यह रोग पेड़ की पत्तियों पर ज्यादातर दिखाई देता है। इस रोग की वजह से पौधे की पत्तियों पर सफ़ेद चूर्ण दिखाई पड़ता है। यह रोग फसल की बुवाई के 45 दिन बाद से देखने को मिलता है और फसल में पकने तक रहता है। ये रोग फसल में कवक के द्वारा होता है।
इस रोग के रोकथाम के लिए किसानो द्वारा सल्फर का उपयोग किया जाना चाहिए। 25 ग्राम सल्फर का घोल बनाकर फसल में छिड़काव करना चाहिए। इस छिड़काव का उपयोग किसानो द्वारा 10 दिन के अंतराल पर 3 बार करना चाहिए।
इन रोगो के अलावा तिल की खेती में लगने वाले मुख्य कीट इस प्रकार है :
इस रोग को बहु भक्षी कीट के नाम से जाना जाता है। इस रोग में पौधो की नवजात पत्तियों को कीटो द्वारा समूह में खाया जाता है। इस रोग के संक्रमण से पत्तिया छलनी के रूप में दिखाई देती है। इसके प्रभाव से पौधे कमजोर होने लगते है ,और फलियां भी आना कम हो जाता है। इस रोग को रोयेदार इल्ली के रूप में भी जाना जाता है।
प्रतिरोधक किस्मो का उपयोग किया जाना चाहिए। कीटो के प्रभाव से संक्रमित हुए पौधे को उसी वक्त उखाड़ देना चाहिए। किसानो द्वारा हाथ से की जाने वाली नराई और गुड़ाई से इस रोग के होने की बहुत ही कम सम्भावनाये होती है।
इन मक्खियों का ज्यादा प्रभाव फूल पर पड़ता है। ये फूल के कोमल हिस्सों से रस को चूसकर फूल को कमजोर या फिर नष्ट कर देते है। इस रोग का प्रभाव कलियों के निकलते ही होने लगता है। कलियाँ ज्यादातर सितम्बर माह में निकलती है ,और नवंबर तक के अंत तक रहती है।
ये भी पढ़ें: जाने काली मिर्च की खेती की सम्पूर्ण जानकारी और फायदे
इस रोग की रोकथाम के लिए किसानो द्वारा मोनोक्रोटोफास का उपयोग किया जा सकता है। छिड़काव करते समय ध्यान रखे मोनोक्रोटोफास की मात्रा 0.05 रखे और उसे 650 लीटर पानी में अच्छे से घोलकर खेत में छिड़काव कर दे।
इसमें कीटो द्वारा फलों के अंदर के हिस्से को खा लिया जाता है। यह कीट पत्तियों के साथ साथ फलो में घुसकर भीतरी भाग को भी कमजोर बनाता है। इस रोग के प्रकोप से जड़ो की वृद्धि पर काफी असर पड़ता है ,इसके आक्रमण से पौधा नष्ट होने लगता है। बुवाई के 15 दिन बाद ही इस कीट का प्रकोप फसल में दिखाई देने लगता है।
इस रोग की रोकथाम करने के लिए किसानो द्वारा फसल की बुवाई जल्दी की जानी चाहिए। प्रारंभिक अवस्था में कीटो के प्रभाव से झुलसाए हुए पौधो को उसी समय उखाड़ देना चाहिए। इसकी रोकथाम के लिए किसानो द्वारा रासायनिक कीनाल्फास का छिड़काव खेतो में किया जा सकता है।